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चक्रधर शुक्ल की चार बाल कविताएँ

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1. तुम कहते हो बच्चा है

तुम कहते हो बच्चा है,

हमसे तुमसे अच्छा है।

 

किलकारी में गाता है,

गोद सभी कीजाता है,

मन्द-मन्द मुस्काता है

सबका जी बहलाता है

मन का कितना सच्चा है,

तुम कहते हो बच्चा है,

हमसे तुमसे अच्छा है ।

 

मुखड़ा-मुखड़ा जाने ये

करता नहीं बहाने  ये

भेदभाव ना जाने ये

लगता लार गिराने ये

कितना प्यारा अच्छा है

तुम कहते हो बच्चा है,

हमसे तुमसे अच्छा है।

 

बात बात पे रोना है

खोता रोज खिलौना है

गीले किए बिछौना है

दिन में, जी भर सोना है

खुशियों का गुलदस्ता है,

तुम कहते हो बच्चा है,

हमसे तुमसे अच्छा है।

 

बचपन निर्मल,दाग नहीं

इसके मन में राग नहीं

कलह-द्वेष की आग नहीं

गति है,भागम्-भाग नहीं,

कोरा-कोरा जस्ता है,

तुम कहते हो बच्चा है,

हमसे तुमसे अच्छा है।

2. आँधी

मुखिया का गमछा उड़ करके

जा बबूल पल लटका।

सुखिया की उड़ गई टीन,

आँधी ने मारा झटका।

 

पेड़ उखड़कर गिरे सड़क पर,

लगा सब जगह जाम।

आसमान में धूल छा गई,

काली  आँधी  नाम।

 

आम टूट कर गिरे पेड़ से

बिना पके ही भइया।

चलते-चलते गिरे मुसाफिर,

भगी  रँभाती गइया।

 

बाराती गुस्से में बैठे,

इसने काम बिगाड़ा।

आँधी ने आकर शादी का

भइया किया कबाड़ा।

3. सबके  मुँह में रहना

रसगुल्ला बोला बरफी से -

मेरा स्वाद निराला।

चटखारे ले-ले कर खाता ,

मुझको खाने वाला।

 

बरफ बोली रसगुल्ले से-

मेरी शान निराली।

केसरिया, दूधिया, रँगीली ,

बनूँ तिरंगे वीली।

 

तभी थाल से लड्डू बोला-

इतराती क्यों बहना ?

मुझे परीक्षाफल, शादी में

सबके मुँह में रहना।

4. गूँजे जोर ठहाके

नाच रहे हैं बनकर देखो

नन्हे-मुन्ने मोर।

बजी तालियाँ गूँज रहा है

'वंस मोर 'का शोर।

 

तितली की पोशाक पहनकर

रीतू छम-छम नाची।

ऐनक लगा शौक में-

डब्बू जी ने पोथी बाँची।

 

अरे! सब्जियाँ घूम रही हैं

पहन-पहन पोशाकें।

बैगन जी गिर पड़े मंच पर

गूँजे जोर ठहाके।

 

तरह -तरह के खेल दिखाए,

गाए गीत रसीले।

जीवन है अनमोल इसे तू,

हँसते -गाते जी ले।  


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