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जीवन दर्शनः खुशियाँ ढूँढें अपने अंदर

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-विजय जोशी (पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल , भोपाल)

 ज़िंदगी ज़िंदादिली का नाम है

मुर्दादिल क्या ख़ाक जिया करते हैं

    खुशी या गमसुख या दुख सब अंतस की अवस्था है। यह हम पर निर्भर करता है कि हमारा खुद और परिवेश के प्रति नज़रिया क्या है। अच्छी नज़र से नज़ारे हो जाते हैं खूबसूरत और नज़ारे से जन्म लेता है हमारा नज़रिया। परिस्थिति कैसी भी हो अवश्यसंभावी है पर हमारा दृष्टिकोण कैसा हो यही सब कुछ तय करता है जीवन में। बिलकुल वैसा ही जैसा कृष्ण ने गीता में प्रतिपादित किया है अनासक्त कर्मयोग।

   एक 90 वर्षीय विदेशी महिला उम्र के उस दौर में भी अपनी साज- संवार तथा शृंगार के प्रति बेहद सजग रहा करती थी। पति के साथ 70 वर्ष के दांपत्य जीवन में भी किसी ने उसे हतोत्साहित नहीं देखा। पति के अवसान के बाद चूंकि उसकी कोई संतान नहीं थी अत: वहाँ प्राप्त सामाजिक सुरक्षा के मद्देनजर अब उसका अपना घर खाली करते हुए सीनियर सिटीज़न होम यानी वरिष्ठ नागरिक निवास में शिफ्ट होने का समय आ गया था।  मज़ेदार बात यह भी थी कि घर से विदाई की वेला में भी उसका परिधान सुव्यवस्थित था।

    नए निवास पर वह प्रतीक्षा कक्ष में कमरा तैयार होने तक बैठी थी। उसकी परिचारिका ने स्वागत करते हुए बताया कि जिस कमरे में अब से उसका निवास होगा वह कितना छोटा होगा।

    मैं उस कमरे को प्यार करूंगी महिला ने बाल सुलभ उत्कंठा तथा मुस्कान के साथ उत्तर दिया।

   परिचारिका ने कहा श्रीमती जोंस आपने तो अभी तक अपना कमरा देखा भी नहीं है।

   उत्तर मिला मेरी कमरे की पसंदगी इस बात पर निर्भर नहीं है कि वह कितना बड़ा या छोटा या उसमें कितना फर्नीचर हैबल्कि इस बात पर है कि मैं समय पूर्व अपना मानस कैसा बनाती हूँ। और मैंने यह तय कर लिया है कि मुझे उससे तथा अपने भावी जीवन से प्यार तथा संगी साथियों से अनुराग है। इस निर्णय पर मैं हर सुबह ही पहुँच जाती हूँ। जानती हो मेरी सबसे बड़ी दौलत क्या है। वह है यह तय करने का सामर्थ्य कि मुझे कैसा अनुभव करना है।

    उसने अपनी बात जारी रखी मैं बिस्तर पर लेटे रहकर या तो अपने दर्द का सियापा करती रहूँ या फिर ईश्वर के आशीर्वाद से जीवंत अंगों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए आनंद प्राप्त करूँ। हर दिन ईश्वर का उपहार है जहाँ तक मैं उसे आँखें खोलकर देख सकूँ। और इस समय भी मैं वही कर रही हूँ।

    परिचारिका महिला का जीवन के प्रति सकारात्मक सोच देखकर अभिभूत हो गई। और वह भी उम्र के उस दौर में जब जीवन समस्याओं और व्याधियों से आप्लावित रहता है।

       बात का सारांश स्पष्ट है। खुशी वह संपदा है जिसे हमें खुद अपनाना है। ईर्ष्याद्वेष अनिमंत्रित अतिथि हैं। जीवन से प्यार तो हमें खुद खोजना होगा। नकारात्मकता खुद पैठती है। सकारात्मकता को हमें ढूँढना होगा। शिकायत स्वचालित है। आभार का सुखद भार हमें स्वयं अपनाना होगा। ग्लास पानी से आधा भरा है यह सकारात्मक जब कि आधा खाली नकारात्मक सोच है। आधा भरा भी क्यों। वह तो पूरा भरा हैक्योंकि शेष में हवा भी हाजिर है। अत: सही मानसिकता का कीजिए सृजन और जीवन में आनंद का आरोहण।

होकर मायूस न शाम से ढलते रहिए

ज़िंदगी भोर है सूरज से निकलते रहिए

सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल-462023, मो. 09826042641, E-mail- v.joshi415@gmail.com


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