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8 मार्च महिला दिवस - एक आँख का क्या बंद करें और क्या खोलें

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                                                     -डॉ. पद्मजा शर्मा (साहित्यकार एवं शिक्षाविद) 

पिछलेदिनों एक खबर पढ़ी। मन गुस्से से भर गया। आज भी हम और हमारा समाज लड़के वाली ग्रंथि से बाहर नहीं आए हैं। हम पढ़ लिए, आधुनिक कहलाए मगर विचार और सोच हमारी अब भी वही कि बेटा होना जरूरी है, वरना मरते समय मुँह में गंगा जल कौन डालेगा। चिता को अग्नि कौन देगा। बुढ़ापे की लाठी कौन होगा। इसलिए घर में एक लड़का तो चाहिए और एक लड़का ही नहीं कम से कम दो होने चाहिए। एक आँख का क्या बंद करना और क्या खोलना। लड़की नहीं चाहिए क्योंकि उसके विवाह के लिए दहेज जुटाना पड़ता है। वह पराया धन है। उसकी कमाई हमें थोड़े ही मिलेगी जो उसे पढ़ाएँ लिखाएँ। भले आज  हम लड़कियों को उच्च शिक्षा लेते हुए देख रहे हैं पर इनसे कहीं ज्यादा संख्या,कम पढ़ी लिखी या अनपढ़ लड़कियों की है ।

खबर थी कि लड़का न होने पर दो पुत्रियों की माँ को घर से निकाला। उसे रोज पति द्वारा ताने दिए जाते कि न तो तेरे बेटा है और न तू दहेज लाई। पहली लड़की के होने पर उसे कहा गया कि पीहर से दो लाख रुपए ला। दूसरी लड़की होने पर पाँच लाख रुपए की माँग की गई। फिर माँ को दोनों बेटियों के साथ घर से निकाल दिया। माँ अपने साथ हुए अत्याचार के कारण महिला थाने गई और पति के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाया। आरोपी पति को गिरफ्तार कर लिया गया और कोर्ट में पेश किया गया। जहाँ उसे जमानत भी नहीं मिली।

एक समाचार था कि बेटियाँ होने के तानों से तंग आकर महिला ने तीन पुत्रियों के साथ कुएँ में कूदकर जान दे दी। कई बार हम सोचते हैं ऐसे केस तो अनपढ़ गँवारों में होते होंगे। पढ़े लिखे लोग ऐसी सोच नहीं रखते। अगर हम ऐसा सोचते हैं तो गलत सोचते हैं। मैं एक ऐसी महिला को जानती हूँ जो उच्च शिक्षित है और उसके पति बड़े अफसर हैं। जब उनके घर पहली लड़की हुई तो घर में सब उदास हो गए और पति ने कहा लड़का होता तो बात और थी। घर में तेरी इज्जत बढ़ जाती। भाठा पैदा किया। इससे तो बांझ रह जाती तो बढ़िया रहता। दूसरी लड़की होने पर तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर था। वह महिला बताती है कि रात को कभी जब बच्ची रोती तो कहते इसे बाहर लेकर जा। मेरी नींद खराब कर रही है। वह कहती मेरी भी नींद खराब होती है। दिन भर मुझे भी घर का काम करना होता है। थोड़ी देर आप भी संभाल लो। कहते- लड़कियाँ जनी है, तू ही संभाल। कोई हीरे थोड़े ही हैं जो संभालूँ।  ऐसे लोगों को कोई समझाए कि लड़कियाँ लड़कों से कमतर नहीं है। लम्बी ऊँची उड़ान भरने लगी हैं ।

स्त्रियाँ अपने साथ हुए अत्याचारों के विरोध में कोर्ट जा सकती हैं और प्रताड़ित करने वाले को सजा दिला सकती हैं। पर इसकी नौबत ही क्यों आए?जरूरत है अपनी सोच बदलने की। यह सोच पूरे समाज की बदलनी होगी किसी एक की नहीं। और बेटा- बेटी तो एक ही डाल के दो फूल हैं। उनमें भेदभाव क्यों ? आज के जमाने में तो बिलकुल नहीं जब वे दोनों समान रूप से सब क्षेत्रों में आ जा रहे हैं और काम कर रहे हैं। जमीन- आसमान- अन्तरिक्ष सब जगह कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं। लड़की के जन्म लेने पर भी लड्डू बाँटिए जैसे लड़के के जन्म पर बाँटते है । ऐसी स्थिति न पैदा हो कि बेटी की माँ को मरना पड़े।


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