
शुचिता का सफ़रनामा
-विजय जोशी (पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल)
निर्मल मन जन सो मोहि पावा
मोहि कपट ,छल, छिद्र न भावा
स्वाधीनता के उपरांत हमारे प्रजातंत्र में मूल्य कैसे गिरे इसका साक्षात उदाहरण है हमारी राजनीति, जिसमें नीति तो हो गई तिरोहित और शेष रह गई येन केन प्रकारेण किसी भी तरह राज करने का लोभ तथा लालसा। यही कारण है कि आज़ादी के दौर का सबसे पवित्र शब्द नेता आज स्वार्थ तथा मौकापरस्ती का प्रतीक हो गया। यह तो हुई पहली बात।
दूसरी यह कि अपनी धरती की सौंधी महक से उपजे तथा जमीन से जुड़े सज्जन, सरल, निःस्वार्थ नेताओं को हमने वह सम्मान नहीं दिया जिसके वे अधिकारी थे। केवल कुछ आभिजात्यपूर्ण परिवारों का बंधक होकर रह गया हमारा प्रजातंत्र, जो हमारी कृतघ्नता का सूचक है। तो आइए आज इन पलों में हम चिंतन करें राजनैतिक शुचिता की प्रतीक आत्मा देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के तीन प्रसंग से अपने पापों के प्रक्षालन हेतु।
1 . बुद्धिमान : राजेंद्र बाबू बचपन से ही कितने ज़हीन थे इसका साक्षात प्रमाण प्रसंग- जब कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में न केवल उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ बल्कि 30 रु./ माह का वज़ीफा भी, जो उन दिनों बहुत अधिक था। कालांतर में प्रेसीडेंसी कालेज में परीक्षा के दौरान जब उन्होंने 10 में से केवल 5 प्रश्नों के उत्तर देने की बाध्यता से परे जाकर सब प्रश्नों के उत्तर देते हुए परीक्षक से कोई भी 5 के आकलन की सुविधा प्रदान की तो खुद परीक्षक ने उनकी उत्तर पुस्तिका पर लिखा कि परीक्षार्थी परीक्षक से अधिक बुद्धिमान है, जो आज भी रेकार्ड में सुरक्षित है।
2 . राष्ट्रधर्म : राजनैतिक शुचिता तथा कर्तव्य परायणता से परिपूर्ण। 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति समारोह के मुख्य अतिथि स्वरूप परेड की सलामी लेते हैं। वर्ष 1950 में समारोह की पूर्व रात्रि उनकी बहन भगवती देवी का निधन हो गया। उन कठिन पलों को किसी से भी न साझा करते हुए वे सुबह परेड में उपस्थित थे तथा समारोह समाप्ति के पश्चात् ही अंतिम क्रिया में सम्मिलित हुए। है क्या इतिहास में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण।
3 . गाँधी जी, आज़ादी के बाद स्वीकारी गई धर्मरहित राजनीति के पक्षधर नहीं थे। राजेंद्र बाबू भी गाँधी के समान ही निर्मल, निःस्वार्थ, धर्म विश्वासी व्यक्ति थे। उनके काल में जब सोमनाथ का जीर्णोद्धार हुआ तथा उन्हें लोकार्पण हेतु के. एम. मुंशी द्वारा आमंत्रित किया गया तो तत्कालीन राजनैतिक नेतृत्व की मनाही के बावजूद वे उस धार्मिक कम तथा सांस्कृतिक अधिक, समारोह में सम्मिलित हुए। यह बात दूसरी है कि इसकी उन्हें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। खतरे में पड़ी दूसरी पारी के राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के बारे में तो कहा जाता है कि सबसे बड़ा योगदान मौलाना आज़ाद का था। और तो और पद त्याग के बाद उन्हें देश का प्रथम पुरुष रह चुकने के बाद भी दिल्ली में एक अदना सा मकान तक मुहैया नहीं किया गया। नतीजतन उन्हें पटना लौटना पड़ा और वहाँ भी दिल्ली दरबार की सरकारी आवास न प्रदान करने के निर्देश के कारण सदाकत आश्रम में जीवन के अंतिम पल बेहद कठिन परिस्थितियों में गुजारने पड़े। उनके निधन पर दिल्ली से किसी की भी भागीदारी तक न केवल प्रतिबंधित की गई बल्कि उनके परम मित्र तत्कालीन राज्यपाल राजस्थान डॉ. सम्पूर्णानंद तक को अंतिम क्रिया में जाने से रोक दिया गया, राजधानी में उनके लिए समाधि स्थल तो बहुत दूर की बात है।
अब सोचिये ऐसा कोई दूसरा उदाहरण देखने को मिल पाया हमें तथा हमारी आगत पीढ़ी को आज़ादी के उपरांत। कहाँ गए ऐसे लोग जिनका अपने प्राणों को देश पर उत्सर्ग करने के बावजूद इतिहास में कहीं नाम तक नहीं है।
वक़्त की रेत पर कदमों के निशाँ मिलते हैं
जो लोग चले जाते हैं वो लोग कहाँ मिलते हैं