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दो बाल कथाएँ

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 दुनियादारी सीखी गुलाब ने
 - प्रियंका गुप्ता

सुबह की पहली किरण के साथ गुलाब की नन्ही-सी कली ने अपनी आँखें खोल कर धीरे से बाहर झाँका। ओस की बूँउसकी आँखों में गिर पड़ी तो कली ने गबरा कर अपनी पंखुड़ियाँ फैला दी। अपनी लाल-लाल कोमल पंखुड़ियोंपर वह खुद ही मुग्ध हो गई। थोड़ी देर इधर-उधर का नज़ारा देखने के बाद उसे कहीं से बातें करने की आवाज़ सुनाई दी। घूम कर देखा तो जूही और बेला के फूल आपस में बतिया रहे थे। गुलाब ने भी उनसे बातें करनी चाही, बड़े भाइयों, मैं भी आपसे बात करना चाहता हूँ...।
तुम बेटे...अभी बच्चे हो, जूही -बेला के फूलों ने विनोद से झूमते हुए कहा, थोड़ी दुनियादारी सीख लो, तब शामिल होना हमारी मंडली में...।
वे फिर आपस में बातें करने लगे तो गुलाब ने सिर को झटका दिया,हुँ...बच्चा हूँ...। कैसी बोरियत भरी दुनिया है...। क्या मेरा कोई दोस्त नहीं है...? दु:खी होकर उसने सिर झुका लिया।
 दु:खी क्यों होते हो दोस्त, कहीं से बड़ी प्यार-भरी आवाज़ आई, हम तुम्हारे दोस्त हैं न...। तुम्हारे लिए हम पलकें बिछाए हुए हैं। आओ, हमारे दोस्त बन जाओ...।
 गुलाब ने सिर उठाकर चारो तरफ़ देखा। कौन बोला ये? फिर अचानक काँटों को अपनी ओर मुख़ातिब पा उसने मुँह बिचका दिया, दोस्ती और तुमसे...? शक्ल देखी है अपनी...? क्या मुकाबला है मेरा और तुम्हारा? न मेरे जैसा रूप, न कोमलता...और उस पर से मेरे लिए पलकें बिछाए बैठे हो...। न बाबा न, तुम्हारी पलकें तो मेरे नाजुक शरीर को चीर ही डालेंगी।
गुलाब की कड़वी बातों ने काँटों का दिल ही तोड़ दिया। पर उसे बच्चा समझ उन्होंने उसे माफ़ कर दिया और मुस्कराते रहे पर बोले कुछ नहीं।
 पापा, देखो! कितना प्यारा गुलाब है...। तीन वर्षीय बच्चे को अपनी तारीफ़ करते सुन कर गुलाब गर्व से और तन गया।
 ‘ऐसे ही प्यारे लोग मेरी दोस्ती के क़ाबिल हैं,’ गुलाब ने सोचा और काँटों की ओर देख कर व्यंग्य से मुस्करा दिया।
 पापा, मैं तोड़ लूँ इसे? अपनी कॉपी में इसकी पंखुडिय़ाँ रखूँगा। बच्चे की बात सुन गुलाब सहम गया, ओह! कोई तो मुझे तोड़े जाने से बचा लो...। आज ही तो मैंनेअपनी आँखें खोली हैं। अभी मैंने देखा ही क्या है? गुलाब ने आर्त्तस्वर में दुहाई दी,मैं क्या बेमौत कष्टकारी मौत मारा जाऊँगा?
नहीं दोस्त! काँटों की गंभीर आवाज़ सुनाई दी, तुम चाहे हमें दोस्त समझो या न समझो, पर हम तुम्हारा बाल भी बाँकानहीं होने देंगे...।
इससे पहले कि बच्चे का हाथ गुलाब तोड़ पाता, काँटों ने अपनी बाँहें फैला दी। बच्चा चीख मारता हुआ, सहमकर वापस चला गया। गुलाब ने चैन की साँस ली।
  थोड़ी देर बाद बगीचे के फूलों के हँसी-ठहाकों में गुलाब और काँटों की सम्मिलित हँसी सबसे तेज़ थी।
 गुलाब अब दुनियादारी सीख चुका था...।

             गोलू की सूझ


कुछ समय पहले की बात है, एक बेहद पिछड़े गाँव में अपने माता-पिता के साथ गोपाल आसरे नाम का एक लड़का रहा करता था। उसके पिता गाँव के कुछ गिने-चुने सम्पन्न लोगों में से एक थे। माता-पिता का कलौतापुत्र होने के कारण उसे सभी सुख-सुविधाएँ हासिल थी, लेकिन वह फिर भी दु:खी रहा करता था। कारण कि उसे पढ़नेका बहुत शौक था, किन्तु गाँव में कोई बड़ा स्कूल न होने की वजह से वह अपनी इच्छानुसार आगे नहीं पढ़ पा रहा था। उसने कई बार अपना यह दु:ख अपने माता-पिता से व्यक्त किया और उनसे शहर जाकर आगे पढ़नेकी अपनी इच्छा बताई, परन्तु उसके माँ-बाप इस भय से कि कहीं वह शहर की चकाचौंध से प्रभावित होकर अपना गाँव ही न भूल जाए, उस की यह इच्छा पूरी करने को बिल्कुल भी तैयार नहीं थे।
माता-पिता के इस इंकार से वह इतना दु:खी रहने लगा कि धीरे-धीरे उसका खाना-पीना, हँसना-बोलना सब कम हो गया था। उसे इतना निराश और परेशान देख कर आखिरकार उन्होंने अपने दिल पर पत्थर रखकर अपना फैसला बदल ही दिया। एक दिन सुबह गोपाल को पास के शहर ले जाकर उसके पिता ने एक अच्छे स्कूल में उसे दाखिला दिलाया और फिर उसे वहीं हॉस्टल में डाल वे वापस आ कर अपनी खेती-बाड़ी में जुट गए।
 इधर गाँव वालों ने कई दिन तक उसे न देख कर जब उनसे पूछा तो उन्होंने बड़े दु:खी होकर उन सब को सारी बात बताई। गोपाल की उच्च-शिक्षा पाने की इच्छा सुन कर खुश होना तो दूर की बात, उल्टे गाँव वाले दु:खी होकर एक-दूसरे से कहने लगे, बेचारा गोलू! उसके भाग्य में शहर की धूल ही लिखी थी। पता नहीं क्यों वह गाँव का सुख छोड़ कर आँख फोडऩे शहर चला गया...।
 उस एक दिन में गोपाल का नाम बदलकर बेचारा गोलूहो गया। गोपाल ने छुट्टी में गाँव आने पर सब किस्सा सुना तो हँसते-हँसते दोहरा हो गया, पर उसने किसी से कुछ कहा नहीं। पर दो-चार दिनों की छुट्टी भी गाँव में बिताना उसके लिए भारी हो गया। वह जहाँ से भी निकलता, सभी उसे दयनीय नजऱ से देख कर कहते, बेचारा गोलू! शहर में रह कर कैसा कमज़ोर हो गया है।
 अरे, इसकी तो मति मारी गई है...।
 जितने मुँह, उतनी बातें। हर बार का यही हाल होता। इन बातों से परेशान होकर धीरे-धीरे उसने गाँव आना कम कर दिया। उसने सोचा कि जब वह खूब पढ़-लिख कर एक क़ाबिल आदमी बन जाएगा और अपने गाँव के लोगों की सेवा करेगा, तब यह लोग पढ़ाई का महत्त्व समझेंगे और उसकी प्रशंसा करेंगे। तब वह भी आसानी से उन्हें शिक्षा का महत्त्व बताएगा, ताकि ये लोग भी अपने बच्चों को आगे पढ़ाएँ।
गोपाल पढऩे में कुछ इस कदर व्यस्त हुआ कि समय कब फुर्र से आगे निकल गया, वह जान ही नहीं पाया और जब जाना तो पाया कि छात्रवृत्ति पाते हुए उसने बी.ए फर्स्टक्लास में पास कर लिया है।
 इस बार गोपाल की बड़ी इच्छा हुई गाँव में सबके साथ अपनी सफलता बाँटने की। अत: छुट्टी होने पर वह खुशी-खुशी गाँव पहुँचा। सूटेड-बूटेड गोपाल यह सोच रहा था कि घर वालों के साथ-साथ गाँव वाले भी उसे देख कर फूले नहीं समाएँगे, पर यह क्या? जब वह गाँव पहुँचा ,तो उसे वहाँ बड़ी अजनबीयत महसूस हुई। सब उसे बड़े ही आश्चर्य से देख रहे थे। गोपाल को उनका व्यवहार अजीब तो लगा, पर फिर भी उसने उन्हें अपने व्यक्तित्व से प्रभावित कर शिक्षा का महत्त्व समझाने की कोशिश की। उसने बड़े गर्व से उन्हें गिन-गिनकर बताया कि वह फर्स्टक्लास में बी.ए पास करने के बाद अब एम.ए करने जा रहा है।
 गोपाल की बात सुन कर उसके मुँह पर तो किसी ने कुछ नहीं कहा, परन्तु जैसे ही वह आगे बढ़ा, खुसर-पुसर शुरू हो गई, बेचारा गोलू, इत्ते बरस शहर की खाक छानी, पर बेचारे की किस्मत तो देखो, अभी तक बी.ए-एम.ए के ही फेर में ही है...मैट्रिक भी नहीं कर पाया।
 गोपाल ने सुना तो गाँव वालों की अज्ञानता से दु:खी होकर सोचने लगा, ये लोग किसी भी तरह मेरी बात समझने की कोशिश ही नहीं करते और मुझे बेचारा कहते हैं...। जब कि इन्हें नहीं मालूम कि असली बेचारे तो ये हैं ,जो जानबूझकर विद्या से दूर रहकर एक अबूझी-सी सज़ा भुगत रहे हैं...अपनी गऱीबी और पिछड़ेपन के रूप में। काश! ये जान पाते कि इस विद्या-विहीन गाँव में असली बेचारा कौन है।
 गाँव वालों की इस अशिक्षा और अज्ञानता को दूर करने के लिए गोपाल ने उसी क्षण वापस शहर जाने का विचार त्याग दिया और गाँव में ही रह कर गाँव वालों को शिक्षित करने की कसम खाई।
सम्पर्क:एम.आई.जी- 292, कैलास विहार, आवास विकास योजना संख्या-एक,  कल्याणपुर, कानपुर- 208017  

बच्चों का कोना

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             चम्बल नदी 
                               - डॉ. अर्पिता अग्रवाल
मध्यभारत में चंबल नदी यमुना की प्रमुख सहायिका नदी है। इसकी लम्बाई 960 किलोमीटर है। चंबल मालवा पठार की महत्त्वपूर्ण नदी है। विंध्याचल की श्रेणियों में मध्यप्रदेश के  इंदौर जिले के महू के दक्षिण में 854 मीटर ( लगभग 2800 फ़ीट ) की ऊँचाई से चंबल का उद्गम होता है। अपने उद्गम से उत्तर की ओर आगे बढ़ते  हुए यह मध्यप्रदेश के प्रसिद्ध जिलों धार, उज्जैन, रतलाम, मंदसौर से गुजरते हुए राजस्थान में प्रवेश करती है। कोटा शहर से आगे यह उत्तर- पूर्व की ओर मुड़ जाती है। चम्बल करीब 320 किलोमीटर तक मघ्यप्रदेश और राजस्थान की सीमा बनाती है। उत्तर-पूर्व दिशा में बहती हुई चंबल मालवा के पठार से निकली काली- सिंध व अन्य सहायिकाओं का जल समेटती हुई मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश की सीमा बनाती है। उत्तरप्रदेश में प्रवेश कर चंबल नदी पूर्व को मुड़ कर यमुना के समानांतर बहती है। इटावा के पास चंबल यमुना में मिल जाती है। चंबल नदी को अरावली श्रेणी से निकलने वाली बनास नदी अरावली के जल से समृद्ध करती है। चंबल कई प्रसिद्ध जिलों जैसे बूंदी, सवाई माधोपुर, और धौलपुर से भी गुजरती है।
चंबल का असली नाम 'चर्मण्वतीहै। यह वैदिक काल की नदी है। चर्मण्वती पारियात्र पर्वत से निकली भारतवर्ष की एक नदी है, जो पितरों को प्रिय है। प्रसिद्ध राजा रन्तिदेव इसी के किनारे राज करते थे। वे बड़े धर्मात्मा और दानी थे। महाभारत और पुराण उनके यश के गीतों से भरे पड़े हैं। उन्होंने अनेक यज्ञ किए थे। यज्ञ में पशुओं की बलि दी जाती थी। कहा जाता है कि पशुओं के चमड़े सुखाने के लिए नदी के किनारे डाले जाते थे ; इसलिए इसका नाम चर्मण्वती हुआ।
 चम्बल नदी अपनी विस्तृत बीहड़ भूमि और खड्डों के लिए प्रसिद्ध है, जो निचली चम्बल घाटी में नदी द्वारा निर्मित होते हैं। यह बीहड़ डकैतों से ग्रस्त व आशंकित रहते थे। यह डकैतों के पनाहगार थे। चम्बल के डाकू प्रसिद्ध हैं। अब इस क्षेत्र को कृषि, चारागाह तथा सामाजिक- वानिकी के उपयोग के लिए तैयार किया जा रहा है।
चम्बल नदी पर कई बाँध तथा बराज बनाकर सिंचाई और जल विद्युत योजनाओं का विकास किया गया है, जिनमें गाँधी सागर, राणा प्रताप सागर, जवाहर सागर, तथा कोटा बराज सुप्रसिद्ध हैं। चम्बल के किनारे धौलपुर में राष्ट्रीय चम्बल अभ्यारण्य है। यहाँ कई तरह के जीव-जन्तु पाए जाते हैं। यहाँ डॅाल्फि न भी पायी जाती है, इसे गांगेय डॅाल्फ़िन कहते हैं। गंगा नदी में पायी जाने वाली यह डॅाल्फ़िन पानी की गुणवत्ता की सूचक है। प्रदूषित पानी में यह जीवित नहीं रह पाती। यह अभ्यारण्य घड़ियालों की भी शरणस्थली है और पक्षियों की दुर्लभ प्रजातियों की दृश्यस्थली है।
मध्यप्रदेश में मंदसौर जिले में चम्बल नदी पर बनाया गया गाँधी सागर बाँमहात्मा गाँधी जी की स्मृति में बनाया गया था। चम्बल नदी का अपार जल इस बाँध के निर्माण से पहले बिना किसी उपयोग के ही बह जाता था। इसे चम्बल परियोजना के प्रथम बाँध होने का गौरव प्राप्त है। इस बाँध का लाभ मध्यप्रदेश और राजस्थान को मिला है । राजस्थान में स्थित केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान में चम्बल नदी सिंचाई परियोजना द्वारा पानी पहुँचाया जाता है। गाँधी सागर बाँध मछली पालन, मनोरंजन तथा पर्यटन के लिए भी महत्त्वपूर्ण स्थल है।
चम्बल नदी को प्रदूषण मुक्त माना जाता था;लेकिन कुछ स्थानों पर चम्बल नदी के अंदर व किनारों पर लगे ईंट- भट्टों तथा नदी के किनारों पर मिट्टी के अवैध उत्खनन से चम्बल नदी प्रदूषित हो रही है। चम्बल राजस्थान के कोटा शहर से गुजऱती है जहाँ इसमें औद्योगिक अपशिष्ट, बिजली घरों से निकली राख, और कूड़ा -कचरा आदि विभिन्न नालों के माध्यम से गिरा दिया जाता है। कोटा शहर औद्योगिक और शैक्षणिक संस्थाओं का केन्द्रहै; जहाँ चम्बल नदी उस शहर को पीने के लिए, घरेलू इस्तेमाल व उद्योगों के और सिंचाई के लिए जल उपलब्ध कराती है, वहीं शहर का निरंतर बढ़ता हुआ कचरा इसमें ही डाल दिया जाता है। इस कारण नदी में जीव-जन्तुओं के मरने की घटनाएं भी होती रहती हैं और नदी में प्रदूषण की मात्रा भी निरंतर बढ़ती जा रही है।
प्रकृति ने हमें शस्य -श्यामला धरती दी,नदियाँ दीं, शुद्ध वायु दी हमने उसके लिए कुछ भी तो खर्च नहीं किया। हमने बदले में प्रकृति को बहुत दु:ख पहुँचाया, उसे नष्ट किया फिर भी प्रकृति हमें दे रही है लेकिन कब तक प्रकृति हमें यूँ ही देती रहेगी? आज हमने जल, थल, वायु सभी को प्रदूषित कर दिया है और अब भी हम नहीं सुधरे तो प्रकृति का दंड भोगने को तैयार रहना होगा।सम्पर्क: 120 बी/2, साकेत , मेरठ 250003

सिंधी कहानी

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कहानी और  
किरदार  
मूलः डॉ. कमला गोकलानी, 
अनुवाद - देवी नागरानी

गौरव बिस्तर पर करवट बदलता रहा। कोशिश के बावजूद भी उसे नींद नहीं आई। साथ में लेटी सीमा ने फिर से जानने की नाकामियाब कोशिश की।
आखिर क्या हुआ है ? इतने परेशान क्यों हो?’ पर गौरव ने बिना जवाब दिए दूसरी तरफ पलटते हुए परमात्मा को प्रार्थना कीकि मानसी ने उसके मुत्तल्लक फैसला लेते समय अपने पुराने स्वभाव से काम लिया हो।
उसके सामने क्लास रूम का मंज़र उभर आया। बीस बरसों की नौकरी में उसने ख़ुद को इतना बौना महसूस कभी नहीं किया । बोर्ड ऑफ एज्यूकेशन की ओर से सेन्सर क्लासेज़ की परीक्षा ज़रूरी है। आज उसकी ड्यूटी रूम नं. 4में रही। उस कमरे में ड्यूटी करने से हर एक इंचार्ज कतराता है। आजकल आम तौर पर शागिर्द अडिय़ल और गैर जिम्मेदार ही हैं, पर रूम नं. 4का राकेश, कहकर तौबा कर लो!  उसे नकल करने से रोकने वाले का, वह घर-बार डाँवाडोलकर देता है ; इसलिराकेश के मामले में देखा अनदेखा करना पड़ता हैगौरव ईमानदारी और इन्तज़ाम का निबाह करने वाला है ; इसलिघर से निकलते वक्त भी सीमा ताक़ीकरती रही कि जानबूझकर विवेक के गुलाम बनकर अनचाही परेशानी न मोल लेना।
जैसे कि आज बोर्ड से चेकिंग के लिखास पार्टी आ रही है, इसलिप्रिन्सिपल ने जान-बूझकर उसकी ड्यूटी रूम नं. 4में लगाई।
राकेश बेल बजने के 10मिनट पश्चात् ही क्लास में आता है। आज भी ऐसा ही हुआ, इसलिगौरव ने यह सोचकर कि और शागिर्द को लिखने में बाधा न हो, उसे बिना तलाशी के परीक्षा लिखने दी और उसने सोचा कि चोर को सुराके साथ पकडऩे का मौका भी मिलेगा।
अभी पाँमिनट भी नहीं बीते कि चेकिंग पार्टी आ गई। उसके कमरे में पार्टी की कन्ट्रोलर मिस मानसी पहुँची, जो अपने सख्त मिज़ाज़ के लिमशहूर है। वह अक्सर अख़बार और मैग़ज़ीन्स में मानसी के बारे में पढ़ता था कि वह अपनी मेहनत और मज़बूती के बलबूते पर एक आम टीचर से इस अहम ओहदे पर पहुँची है। पर यह जानकारी फ़क़त गौरव को है, कि मानसी के सख्त दिल होने का ज़िम्मेदार वह ख़ुद है। वह तो हँसती, खिलखिलाती मस्त रहने वाली ईज़िगोइंग लड़की थी।
'टेक इट ईज़िउसका तकिया क़लाम रहा। इस क़दर कि ज़िन्दगी के अहम संजीदा मोड़ पर भी उसने किसी फ़ैसले को इतनी संजीदगी से नहीं लिया ।
जैसे बाज़ की तेज़ नज़र शिकार पर होती है, वैसे मानसी भी सीधे राकेश के टेबल के पास आ खड़ी हुई। राकेश बेफ़िक्र होकर कागज़ पर से सवालों का जवाब ढूँढ़ रहा था। मानसी ने गुस्से से गौरव से कहा- मास्टर साहब! इतनी गैर जिम्मेवारी से ड्यूटी दे रहे हो ? आपने इस लड़के की तलाशी ली थी ? तुरन्त इसकी तलाशी ली जाए।और फिर राकेश से मुखातिब होकर सख्ती से पूछा – तुम्हारा नाम क्या है ?’
राकेश ने शरारती मुस्कान के साथ कहा – ‘533495’
मानसी ने कहा- अपना डमिशन कार्ड दिखाओ।
            राकेश ने जैसे ही जेब से अपना कार्ड निकाला, तो साथ में एक काग़ज़ ज़मीन पर गिर पड़ा। जाँच करने पर उस कागज़ पर नकल करने वाले मैटर की अनुक्रम सूची थी कि कौन-सा मैटर कहाँ है। इस बीच गौरव ने राकेश की जेब से जवाबों के कुछ काग़ज़निकाले, पर राकेश पर किसी बात का असर ही नहीं हुआ। इत्मीनान से जेब से कंघी निकाली और मानसी की आँखों में देखते हुए बालों को सँवारने लगा। उसे देखकर गौरव कुछ झेंप गए। मानसी को बीस साल पुराने मंज़र याद आए जब गौरव भी ऐसे ही उसकी आँखों में देखकर बाल सँवारते हुए कहता था- मानू बस ऐसे ही उम्र भर तेरे नयनों में निहारता रहूँ...और मानसी गर्दन झुकाकर शर्माती थी। कुछ पलों में मानसी माज़ी की यादों से बाहर आई, जब गौरव चिल्लाया- अरे इसके जुराबों में रामपुरी चाकू!
राकेश के खिलाफ़ कानूनी कार्रवाई का केस तैयार करने का फैसला प्रिन्सिपल और तमाम टीम ने लिया, शायद यह ज़रूरी था, पर जैसे ही इस गैर जिम्मेवार कार्य के लिए  गौरव को दोषी ठहराते हुए उसके खिलाफ़ रिपोर्ट लिखने की शुरुत मानसी ने की तो प्रिन्सिपल ने हाथ जोड़कर बिनती की- मैडम ! ये ना इन्साफ़ी मत करना। गौरव इस स्कूल का निहायत ही ईमानदार और मेहनती शिक्षक है। मैंने इस साल उसका नाम शिक्षक पुरस्कार के लिए  प्रपोज़ किया है। आपकी रिपोर्ट, उसकी की गई सालों की सेवा को दाग़दार बना देगी। दरअसल राकेश बदला लेने के लिए  किसी भी हद तक गिर सकता है।
            ‘हूँमानसी ने सख़्त लहज़े में कहा- वो लड़का तो मेरे खिलाफ़ भी कदम उठा सकता है, इसका मतलब यह तो नहीं कि गुनहगार को गुनाह करने की छूट दे दी जाए, उसके खिला कोई कार्रवाई ही न की जाए ?’
            इतने में पार्ट एपेपर के खत्म होने पर घण्टीबजी और गौरव भी फ़ारिग होकर ऑफिस पहुँचा और अत्यन्त विनम्रता से कहा- मैडम, आइ एम सॉरी।  दरअसल राकेश के क्लास में देर से आने के कारण मेरे मन में ड्यूटी और परिवार के फर्ज़ के बीच में जंग रही और आप आ गई। सीमा ने चलते-चलते भी कहा था- बच्चों की क़सम, जानबूझकर कोई परेशानी मोल न लेना।
हालात देखते हुए मानसी ने फिलहाल काग़ज़फाइल में रखे। वह एक बार फिर अतीत की ओर लौट गई। इस सीमा ने ही उसे गौरव से जुदा किया था। कुछ दिन तो वह बेहद मायूस रही, पर जल्द ही ख़ुद को सँभालकर सारा ध्यान कैरियर पर लगा दिया। सोचती रही- आज सीमा के एवज़ वही गौरव के बच्चों की माँ होती तो और क्या चाहती?’
उसे याद आया कि वह और गौरव एक ही स्कूल में शिक्षक थे। हमखय़ाल होने के नाते दोनों का उठना-बैठना साथ होता था। रिसेस के वक़्त, फ्री पीरियड  में भी, जब दूसरे शिक्षक गैर ज़रूरी बातों में वक्त जाया करते थे तब ये दोनों चाय पीते-पीते कभी अदब और कला के बारे में बातें, या बहस करते। किसी नई कहानी या नॉवल पढऩे के पश्चात् उसका पोस्ट मार्टम करते, उसके किरदारों की कमजोरियों और खूबियों पर राय पेश करते। गौरव हमेशा उन नाटकों पर अफ़सोस ज़ाहिर करता ,जिसमें नायक अपनी नायिका को अज़ाबों की गर्दिश में छोड़कर, बुज़दिली से मैदान छोड़कर भाग जाते। बहस करते मानसी उसे समझाने की कोशिश करती कि सच्चा प्यार करने वाले नायक के लिए , ज़रूर कोई ऐसी मजबूरी रही होगी और वह बेहद लाचारी की हालत में प्यार को क़ुर्बाकरते हुए उस राह से मुड़ जाता होगा । सच्चा प्यार तो अमर है, कभी ख़त्म होने वाला नहीं। बड़ी बात तो यह है कि शादी और प्यार का इतना गहरा सम्बन्धनहीं कि बिना उसके दीवानापन छा जाए। विपरीत इसके शादी के बाद फ़र्ज़ और हक़ों की जंग में ग्रहस्ती की ओढ़ी हुई जिम्मेवारियों की वजह से प्यार का नफ़ीस जज़्बा क़ुर्बाहो जाता है।
पागल है वो नायक जो रात-दिन प्यार-प्यार तो करते हैं, पर वक़्त आने पर पीठ दिखाकर नायिका को सारी ज़िन्दगी रोने के लिए  छोड़ जाते हैं...गौरव बेहद संजीदगी से कहता और मानसी खिलखिलाकर जवाब देती – गौरव! टेक इट  ईज़ि, क्यों सब कुछ सीरियसली लेते हो। कहानी के क़िरदार और हकीकी ज़िन्दगी में बहुत फ़र्क है। लेखक कहानी लिखने के पहले अपने किरदार का अंत तय कर लेता है, जो कभी सुखांत तो कभी दुखांत होता है। पर असली जि़न्दगी में इन्सान हालात के बस होकर सुलह करते हुए फ़ैसला करता है। ऐसे फ़ैसले अज़ादेने वाले और दु;खदायीभी होते हैं, और न चाहते हुए भी ग़लतफ़हमियाँ पैदा करने वाले भी, और फिर दोनों के बीच में लम्बी खामोशीछा जाती थी ।
उनकी गुफ़्तगू अब स्टाफ रूम तक सीमित न रही थी । सुनसान वादियाँ, पहाड़ी-झरने, बहती नदियाँपेड़-पौधे उनकी मुलाक़ात के साक्षीरहे । ऐतिहासिक इमारतों की सैर करते वो दोनों भी ख़ुद को किसी राजा रानी से कम नहीं समझते। कभी-कभी मानसी गौरव से कहती- अगर तुम्हारे माँ-बाप हमारे मेल-मिलाप को बर्दाश्त न कर पाए तो ?’ गौरव बिना किसी सोच के बुलंद आवाज़ में मर्दानगी दिखाते कहता- मानू दुनिया की कोई भी ताक़त तुझको मुझसे छीन नहीं सकती। मैं जल्द ही पिताजी को मनाकर इस रिश्ते को सामाजिक मान्यता दिलाऊँगा।
पर, जब गौरव ने मानसी का जिक्र घर में किया तो गोया तूफ़ान उठ खड़ा हो गया। गौरव को यह पता नहीं था कि घर में उसे एक धड़कते दिल वाला इन्सान न मानकर, एक चीज़समझकर उसके पिता ने उसका सौदा एक साहूकार की बेटी से कर दिया था और उनसे दहेज की बातचीत के आधार पर अपनी दो बेटियों के रिश्ते भी तय कर दिथे। गौरव बहुत ही तड़पा, पर उसके पिता ने उसे लिखे हुए परचे दिखाते हुए कहा कि अगर वह इन्कार करेगा तो उसके माँ-बाप दोनों आत्महत्या कर लेंगे । पागलपन की हदों से गुज़रता हुआ गौरव स्कूल से छुट्टी लेकर घर बैठ गया, शायद मानसी से नज़र मिलाने की उसमें क्षमता न थीं।
आखिर मानसी खुद उसके पास आई और गौरव ने आज जैसी ही लाचारगी से कहा था- मानू, मेरे मन में प्यार और फर्ज़ के बीच...।
मानसी ने शांत मन से कहा – टेक इट ईज़िप्लीज। हम कोई कहानी के क़िरदार नहीं हैं। मेरी चिंता मत करो, मुझमें यह सदमा बर्दाश्त कर पाने का आत्मबल है।
आज सीमा का नाम सुनते मानसी थोड़ी देर के लिए  डाँवाडोल हुई पर फिर सोचा बेचारी सीमा का क्या दोष? यही कि वह एक धनवान की बेटी है और मानसी की गरीब विधवा माँ में दहेज दे पाने की क्षमतानहीं थी। ये नहीं तो कोई और सीमा गौरव की जीवन संगिनी बन जाती थी । कोई भी औरत किसी और का हक़ छीनकर कहाँ चैन पा सकेगी?
मानसी ने उस स्कूल से अपना तबादला करा लिया था । पर सीमा के बारे में स्टाफ से जानकारी मिली थी कि वह निहायत कोमल हृदय वाली नारी थी। उसे अगर पता होता तो वह ख़ुद ही मानसी के रास्ते से हट जाती। ख़ैर, ज़िन्दगी एक हक़ीकत है कोई कहानी नहीं। यह सोचकर मानसी ने गौरव के ख़िलाफ़ लिखी हुई रिपोर्ट फाड़ दी।

 सम्पर्क:  9-डी, कार्नर व्यू सोसाइटी, 15/33रोड, बांद्रा,मुम्बई 400050,  फोन: 9987928358, dnangrani@gmail.com

प्रेरक प्रसंग

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 बोझ 
- शशि पाधा
मेरे98वर्षीय श्वसुर को अपने बीते कल की बातें सुनाने में जो आनन्द आता है उतना ही हमें सुनने में आता है। मुझे याद है कि जब भी मैं उनसे पूछती- पिता जी, आपको क्या चाहिएउत्तर में वो हँसते हुए कहते- आपका थोड़ा समय बेटा। हम सब यह प्रयत्न करते हैं कि उनके पास बैठ कर उनसे उनकी बातें सुने।
भूतपूर्व सैनिक होने के कारण द्वीतीय विश्व युद्ध के दौरान भारत के पूर्व में स्थित बर्मा देश में घटित ब्रिटिश सेना और जापानी सेना के बीच हुए युद्ध से सम्बंन्धित उनके पास अनेकों संस्मरण थे। कभी कभी अपने बहादुर सैनिक मित्रों के बलिदान की गाथाएँ सुनाते हुए वे अत्यंत भावुक हो जाते और उनकी आँखें नम हो जातीं।
एक दिन संध्या समय घर के लॉन में बैठे वे मुझे अपने विद्यार्थी जीवन में घटी रोचक घटनाओं के विषय में बता रहे थे।  उस दिन उन्होंने जो घटना सुनाई ,उसे मैं आपने पाठकों के समक्ष उनके ही शब्दों में प्रस्तुत कर रही हूँ -
जब मैं पाँचवीं कक्षा में पढ़ता था तो अपने गाँव डगोड़के पास बसे दूसरे गाँव गुड़ा सलाथियाके स्कूल में पढ़ने के लिए जाया करता था। एक बार हमारे स्कूल में गर्मियों की छुट्टियाँ हो रहीं थीं। हम सब लड़कों ने छुट्टी के पहले दिन  शाम को  गाँव के पास बहती देवकनदी के किनारे शीतल रेत पर फ़ुटबाल खेलने की योजना बनाई। हम सब मित्र इस खेल के लिए बहुत उत्साहित थे।
 उस दिन जैसे ही मैं छुट्टी के बाद अपने घर आया, मेरी दादी ने मुझे देखते ही कहा, ‘कृष्णा, आटा समाप्त हो गया है। लो यह गेहूँ की बोरी उठाओ और साम्बा’ (एक गाँव) के घर्राट पर जा कर आटा पिसा लाओ।
 गेहूँ की बोरी देख कर मैं घबरा गया;क्योंकि उसका आकार मेरे शरीर से थोड़ा ज़्यादा ही था। साथ ही फुटबाल के खेल की योजना पूरी ना होने का भी अफसोस था। किन्तु करता तो क्या करता। दादी को नाकहना अपने कुल मर्यादा के नियमों में नहीं था। मैंने चुपचाप बोरी लादी और घर्राट की ओर चल पड़ा। दादी ने साथ में पोटली में रोटी, आम का आचार और कुछ सब्जी आदि भी बाँध दी और नसीहत देते हुए कहा, ‘अकेले मत खाना। घर्राट वालों के साथ मिल बैठ के खाना।
अपने गाँव से कुछ मील दूर गुढ़ा सलाथियाके कच्चे रास्ते से मैं गुजऱ रहा था तब तक शाम हो गयी थी।  तभी किसी ने मेरा नाम लेकर पुकारा।  मैंने देखा कि मेरे स्कूल के हैड मास्टर भी स्कूल का काम काज निपटाकर पैदल अपने गाँव की ओर जा रहे थे।
 उनहोंने पूछा, ‘तुम कहाँ जा रहे हो?’
मैंने नमस्कार करते हुए कहा, ‘आटा पिसानेके लिए  साम्बा गाँव के घर्राट की ओर जा रहा हूँ।
वो कुछ देर मेरे साथ चलते रहे। कुछ ही दूरी पर अचानक उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझसे रुकने को कहा। जैसे ही में रुका, उन्होंने मेरी पीठ पर से गेहूँ की बोरी उतारी और अपनी पीठ पर लाद ली। और कहा,चलो, मैं भी उधर ही जा रहा हूँ।
मैं बच्चा था; इसलिए, या वो हैडमास्टर थे शायद इसलिए, मैं उनकी बात टाल नहीं सका और ना ही उन्हें रोक सका। हम दोनों साथ- साथ चलते रहे। वो रास्ते में मुझसे स्कूल, घर, गाँव और दोस्तों की बातें करते रहे।स्कूल में तो उनका इतना सम्मान और दबदबा था कि उन्हें देख कर ही हम दुबक जाते थे। किन्तु आज उन्हें अपने साथ चलते देख कर मुझे कुछ अजीब सा लग रहा था। लग रहा था जैसे अचानक  मैं भी बड़ा हो गया हूँ।
चलते -चलते शाम हो गई अब घर्राट कोई एक चौथाई मील ही दूर रह गया था। वो चलते- चलते रुक गए। उन्होंने अपनी पीठ पर से बोरी उतारी और मेरी पीठ पर बड़े ध्यान से लाद दी। मेरे कंधे पर हाथ रख कर उन्होंने कहा, ‘घर्राट अब पास ही है, ध्यान से जाना।कुछ कदम चल कर फिर से कहा,'और सुनो, इस बात का किसी के साथ जि़क्र मत करना।’और वो दूसरी दिशा की ओर मुड़ कर चले गए। उनका गाँव कहाँ था, मैं नहीं जानता था।
पिता जी ने तो यह बात बहुत सहज ढंग से सुनाईकिन्तु बात के अंत तक मेरा मन उन हैडमास्टर जी के प्रति श्रद्धा और सम्मान से भर गया। एक तो अपने शिष्य का बोझ हल्का किया और यह भी चाहा कि लोग इस बात को न जाने। उस शाम बहुत देर तक मैं सोचती रही -
'अपने शिष्यों के प्रति निस्वार्थ प्रेम एवं दया की भावना रखने वाले शिक्षक क्या आज के युग में भी हैं ? अगर हैं तो उन्हें मेरा कोटि-कोटि प्रणाम!’
सम्पर्क: 174/3, त्रिकुटा नगर, जम्मू, सम्प्रति-वर्जिनिया, यू एस, shashipadha@gmail.com

हाइकु

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 पावस अलबेली 
- डॉ. सुधा गुप्ता
1
खड़ी है सजी
पावस अलबेली
भू की सहेली। 
2
नभ उमड़ी
भरपूर फ़सल
नीले मेघों की।
 3
चुरा ले गई
कोई नीली ओढऩी
नभ की बिन्दी।
 4
रात उदास -
मेघ-मेले की भीड़
खोई बिन्दिया।
5
आए सावन
तने हैं शामियाने
नीले कासनी।
6
मोती की झार
धरा-वधू ने पाई
मुँह दिखाई
7
उमड़ रहा
नव-वधू धरा का
रूप का ज्वार ।
8
हरी चुँदड़ी
चाँदी -सोने के तार
बूँटे-कढ़ी है ।
9
नभ से  झरे
मेघ-प्रेमोपहार-
आग के फूल।
10
मेघों की पीर -
दिखाए दिल चीर
आग -लकीर ।
11
पहली वर्षा -
रूखी-सूखी थी धरा
खूब नहाई।
12
अल्हड़ निशा
बारिश की धुन पे
नाचती रही।
13
बरसे पिया
तन-मन से तृप्त
बुझी भू -तृषा।
14
लाए सावन
कुठला भर धान
होठों की हँसी।
15
मेघ जो झरे
सोखे धरा-कोख ने
खिले गुलाब।
16
लौटा के लाया
सावन का पाहुना
खोई मुस्कान।
17
आए हैं इन्द्र
प्रिया वृष्टिके साथ
करो सत्कार!
18
घिरे पड़े हैं
अमराई के झूले
मेघ-मल्हार।
19
अब जो आए
जाना नहीं बिदेस’-
कहे धरती।
20
मैं तो उर्वरा
छोड़ऩा न परती
मैं फलवती।

सम्पर्क: 120 बी/2, साकेत, मेरठ- 250003, 
फोन- 94-10029500

संस्मरण

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       यमुना कोठी की जेन्नी
                           - जेन्नी शबनम
यादोंके बक्से में रेत-से सपने हैं जो उड़-उड़ कर अदृश्य हो जाते हैं और फिर भस्म होता है मेरा मैं, जो भाप की तरह शनै:-शनै: मुझे पिघलाता रहा है। न जाने खोने पाने का यह कैसा सिलसिला है जो साँसों की तरह अनवरत मेरे साथ चलता है। टुकड़ों में मिला प्रेम और खुद के खिलाफ़  मेरी अपनी शिकायतों की गठरी मेरे पास रहती है जो मुझे सम्बल देती रही है। रिश्तों की एक लम्बी फेहरिस्त है मेरे पास जिसमें अपने पराये का भेद मेरे समझ से परे है। ज़ेहन में अनकहे किस्सों का एक पिटारा है जो किसी के सुने जाने की प्रतीक्षा में रह-रह कर मन के दरवाजे पर आ खड़ा होता है।
सोचती हूँ कैसे तय किया मैंने ज़िन्दगी का इतना लंबा सफ़र, एक-एक पल गिनते-गिनते जीते-जीते पूरे पचास साल। कभी-कभी यूँ महसूस होता मानो 50 वर्ष नहीं 50 युग जी आई हूँ। जब कभी अतीत की ओर देखती हूँ, तो लगता है -जैसे मैंने जिस बचपन को जिया वो कोई सच्चाई नहीं ; बल्कि एक फ़िल्म की कहानी है ; जिसमें मैंने अभिनय किया था।
जन्म के बाद 2-3 साल तक की ज़िन्दगी ऐसी होती है ,जिसके किस्से खूब मनोयोग से दूसरों से सुनते हैं। इसके बाद शुरू होता है -एक-एक दिन का अलग-अलग किस्सा जो मस्तिष्क के किसी हिस्से में दबा छुपा रहता है। अब जब फ़ुर्सत के पल आए हैं तो बात-बात पर अतीत अपने पन्नों को खोल कर मैं उस दुनिया में पहुँचना चाहती हूँ जहाँ से ज़िन्दगी की शुरुआत हुई थी।
उम्र के बारह साल ज़िन्दगी से कब निकल गए, पता ही न चला। पढ़ना,खेलना, खाना, गाना सुनना, घूमना इत्यादि आम बच्चों- सा ही था। पर थोड़े अलग तरह से हम लोगों की परवरिश हुई। चूँकि मेरे पिता गाँधीवादी और नास्तिक थे ,तो घर का माहौल भी वैसा ही रहा। ऐसे में इन विचारों को मैं भी आत्मसात् करती चली गई। हम लोग भागलपुर में नया बाज़ार में यमुना कोठी में रहते थे। उन दिनों इस कोठी का अहाता बहुत बड़ा था। हमारे अलावा कई सारे किरायेदार यहाँ रहते थे। मोहल्ले के ढेरों बच्चे एकत्र होकर इसी अहाते में खेलते आते थे। सबसे ज्यादा पसंद का खेल था जिसमें हम दीवार पर पेंसिल से लकीर बना कर खेलते थे। एक्खट दुक्खट, पिट्टो, नुक्का चोरी, कोना कोनी कौन कोना, ओक्का बोक्का, घुघुआ रानी कितना पानी, आलकी पालकी जय कन्हैया लाल की आदि खेलते थे। टेनी क्वेट, ब्लॉक, आदि से भी खेलते थे।
बचपन में भैया और मेरे बीच में मम्मी सोती थी और हम दोनों मम्मी से कहते थे कि वो मेरी तरफ देखे। ऐसे में मम्मी क्या करती, बिलकुल सीधे सोती थी ताकि किसी एक की तरफ न देखे। मैं हर वक्त मम्मी से चिपकी रहती थी। स्कूल जाने में बहुत रोती थी और हर रोज़ मम्मी को साथ जाना होता था। मम्मी के साथ खाना, मम्मी के साथ सोना, मम्मी के बिना फोटो तक नहीं खिंचवाती थी। हम दोनों भाई बहन हाथ पकड़कर स्कूल जाते और लौटने में भी हाथ पकड़ कर ही आते थे। भाई एक साल बड़ा था और खूब चंचल था ; पर मैं बहुत शांत थी। स्थिर से चलना, धीरे से बोलना, गंभीरता से रहना। खेल में भी झगड़ा पसंद नहीं था। अगर कोई बात पसंद नहीं ,तो बोलना बंद कर देती थी।
अहाते में एक झा परिवार था। उनके तीन बेटे अरविन्द रविन्द और गोविन्द थे तथा एक बेटी विभा थी, जो शायद मेरी पहली दोस्त रही होगी। एक बार खेलने में मैंने एक ईंट फेंकी जो जाकर उसके सर पर लग गई। मैं बहुत डर गई, लेकिन मुझे किसी ने नहीं डाँटा। हम दोनों ने साथ ही झाडू की लकड़ी पर स्वेटर बुनना सीखा। बाद में उसके पिता की बदली हो गई और वे लोग चले गए। फिर आज तक नहीं पता कि वे कहाँ है, उसे कुछ याद भी है या नहीं। अहाते में एक अग्रवाल परिवार था। जिनके यहाँ ब्याह कर नई बहू आई थी; जिन्हें मैं बिन्दु चाचीजी कहती थी। वो मुझे बहुत अच्छी लगती थी। उनके साथ हम कुछ बच्चे छोटे चूल्हे पर छोटे-छोटे बर्तन में खाना बनाते थे, गुड्डा गुडिय़ा बनाते और खेलते थे।
मेरी एक मौसी भागलपुर में रहती थी। उनके तीन बच्चे थे। अक्सर उनके घर हमलोग जाते और खूब खेलते थे। मौसा उच्च सरकारी पद पर थे ,तो सिनेमा हॉल में पास मिलता था। उन दिनों पिक्चर पैलेस एक हॉल था ,जिसके बॉक्स में कुछ कुर्सी और बिस्तर लगा हुआ था। कुछ सिनेमा जिसमें हमें भी ले जाया जाता था, हम बच्चे बिस्तर पर बैठ कर सिनेमा देखते थे।
मेरे पिता के एक मित्र थे प्रोफ़ेसर करुणाकर झा। उनको दो बेटे और चार बेटियाँ थे। तीसरे नंबर वाली नीलू थी ,जो मेरी दोस्त थी। वे लोग उन दिनों बुढ़ानाथ में रहते थे। हमलोग अक्सर एक दूसरे के घर जाते थे। छोटा रास्ता जो गंगा के किनारे होकर जाता था, उससे ही हमलोग जाते रहे। घाट किनारे लोहे की रेलिंग बनी थी, जिसपर हम लोग अवश्य झुला झूलते फिर आगे जाते।
आदमपुर में छोटी -सी एम एस स्कूल से भैया और मैंने पढ़ाई किया। फिर मैं 6 महिना मोक्षदा स्कूल में पढ़ी। छुट्टियों में हम गाँव गए ,तो बाढ़ में फँस गए। फिर पापा ने हमलोग को गाँव में ही छोड़ दिया। मेरे घर के सामने कभी पापा द्वारा ही खुलवाया हुआ प्राइमरी स्कूल था, उसमें हम पढऩे जाने लगे। वहाँ सभी बच्चे बोरा बिछाकर बैठ कर पढ़ते थे और बेंच पर शिक्षक बैठते थे। मुझे खास सुविधा दी गई, और मास्टर साहब ने मुझे बेंच के दूसरी तरफ बैठाने का बंदोबस्त किया। वहाँ सिर्फ दो हो शिक्षक थे, नाम तो मुझे याद नहीं ; लेकिन एक शिक्षक को सभी बकुलवा मास्टर कहते थे, क्योंकि उनकी गर्दन लम्बी थी। यहाँ कुछ ही दिन पढ़ाई की उसके बाद मेरे पिता के बड़े भाई  पास के गाँव सुन्दरपुर में प्राइमरी स्कूल में शिक्षक थे। उन्हें हम बड़का बाबूजी कहते थे ।उनके साथ उनके स्कूल जाने लगी। वहाँ से परीक्षा पास कर 7 वीं में शिवहर मिडिल स्कूल में पढऩे गई। मेरी क्लास में मुझ सहित सिर्फ तीन लड़की थी। कालिंदी और मैं। छठी कक्षा में सिर्फ दो लड़कियाँ पढ़ती थीं। दोनों क्लास में किसी का भी गेम पीरियड होता ,तो दोनों को छुट्टी मिल जाती थी;  ताकि हम सभी एक साथ खेल सकें। हमलोग सबसे ज्यादा कैरम खेलते थे। मेरी क्लास में एक लड़का था, उमेश मंडल; जो यह गाना बहुत अच्छा गाता था– कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों। मेरा भाई महुवरिया हाई स्कूल में पढ़ता था, 7वीं की परीक्षा का सेंटर वही पड़ा था मेरा। इसके बाद पापा मुझे भागलपुर ले आए; लेकिन भाई को गाँव में ही पढऩे को छोड़ आए। 
गाँव का जीवन बड़ा ही सरल था। न भय न फिक्र। गुल्ली डंडा, पिट्टो, बैडमिन्टन, कबड्डी, लूडो, साँप-सीढ़ी आदि खूब खेलते थे। यहाँ लड़के- लड़की का कोई भेद नहीं था। बड़का बाबूजी के दोनों बेटे अवधेश भैया और मिथिलेश, हम करीब-करीब साथ ही रहते थे, यूँ हमारा घर अलग अलग था। मेरी सबसे बड़ी फुआ का एक बेटा कृष्ण बिहारी भैया जिसे मैंने नाम दिया था, अमिया भैया, हमारे साथ ही रहता था। मेरी सबसे छोटी बुआ अक्सर गाँव आती तो महीनों रहती थी। उनके तीन बेटी और दो बेटे थे। उनकी बीच वाली बेटी बेबी दीदी से हम सबसे ज्यादा नज़दीक थे, दोस्त की तरह। भैया के हमउम्र दोस्त भी हमारे घर ही पढ़ने के लिए आ जाते थे; क्योंकि हमारे घर में बिजली थी। हम सभी मिलकर साथ पढ़ते और खेलते थे।
जो हमारे खेती का काम करते थे ,उसमें एक का नाम था छकौड़ी महरा। उसकी पत्नी कहती कि पति का नाम नहीं लेते हैं। तो हमलोग जिद करते कि नाम बोलो, तो वो कहती कि छौ गो कौड़ी, और हम लोग ठहाके लगाते। एक और था लक्षण महतो। वह कभी कभी किसी किसी शब्द को बोलने में हकलाता था। एक दिन मेरी दादी से बोला- स स स सतुआ बा। (सत्तू है) तब से हमलोग उसे बार बार कहने के लिए कहते थे। हमारे एक पड़ोसी थी सियाराम महतो, जिनको हमलोग सियाराम चा कहते थे। वे थोड़ा पढ़े लिखे थे। इंग्लिश और ग्रामर की समझ थी। वे कुछ शब्द बोलते और उसका स्पेलिंग पूछते। एक शब्द था लेफ्टिनेंट। जिसका स्पेलिंग अलग होता और हिज्जा अलग। अक्सर सभी से ये शब्द ज़रूर पूछते। गाँव में एक थे परीक्षण गिरी। हम लोग उन्हें महन जी (महंत जी) कहते थे। जब भी दिखते हम लोग कहते गोड लागी ले महन जी’, वे कहते खूब खुस रह बऊआ। एक थे बनारस पांड़े, जो हमारे यहाँ अक्सर आते और मेरी दादी उनसे पूजा पाठ करवाती और दान दक्षिणा देती थी। यूँ मेरे पापा पूजा के खिलाफ थे ; लेकिन उन्हें कुछ देने से नहीं रोकते थे। गाँव में एक वृद्ध स्त्री थी, जिसका पति- पुत्र कोई नहीं था, नितांत अकेली थी। मेरे घर का काम करती थी। वो साइकिल को बाईस्किल कहती थी। हम कहते कि साइकिल बोलो तो कहती कि बाईस्किलहमलोग खूब हँसते। गाँव में मैंने सिलबट्टे पर हल्दी पीसना सीखा। गाँव में एक खूब तेज़ और होशियार स्त्री थी जिसे उसके बेटे के कारण हमलोग बिसनथवा मतारीबुलाते थे। वो रोज़ मेरे घर आती और किस्सा सुनाती थी, कभी गाना सुनाती। कई ऐसे लोग हैं जो ज़ेहन में आज भी जैसे के तैसे हैं, भले किसी से मिलना नहीं होता।       
गाँव में जब तक रहे या फिर जब भी गाँव जाते पापा के साथ दिन भर मजदूरों के साथ ही रहते। उनके पनपियाई (खाना) के लिए मेरे यहाँ से जो भी खाना आता हम भी वही खाते। पेड़ से अमरुद तोडऩा, खेत से साग तोडऩा, सब्जी तोडऩा, फल तोडऩा, आदि दादी के साथ करते थे। मुझे महुआ की रोटी बहुत पसंद थी, अक्सर सियाराम चाची मेरे लिए बनाकर ले आती थी। हमारे घर से काफी दूर गाँव के अंत में मेरे छोटे चाचा रहते थे। वहीं हमारा पुराना घरारी था। यहीं मेरे पापा के अन्य चचेरे भाई रहते थे। सभी के घर हमलोग अक्सर आना जाना करते थे।
1977 में मैं पुन: भागलपुर आ गई। मेरे लिए दुनिया काफी बदली हुई थी। फिर से नए स्कूल में जाना। मेरा नामांकन घंटाघर स्थित मिशन स्कूल (क्राइस्ट चर्च गर्ल्स हाई स्कूल) में हुआ। इस साल से नई शिक्षा नीति लागू हुआ था। इस कारण मुझे पुन: 7 वीं में नामांकन लेना पड़ा ,जिसे उस समय सेवेन्थ न्यू कहा जाता था। मेरे स्कूल की प्राचार्या मिस सरकार थी। इनसे हम छात्र क्या शिक्षकगण भी ससम्मान डरते थे। 7 वीं में मेरी क्लास टीचर थी -शीला किस्कु रपाज जो मुझे बहुत अच्छी लगती थी। गाँव से लौटने के बाद मैं पहले से और ज्यादा शांत हो गई थी। उन दिनों ही मेरे पिता की बीमारी की शुरुआत हो रही थी।
प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा इलाज के लिए हाजीपुर में कम्युनिष्ट पार्टी के श्री किशोरी प्रसन्न सिन्हा के घर हमलोग एक महीना रहे। वे काफी वृद्ध और सम्मानीय सदस्य थे। फिर पापा ने आयुर्वेद के द्वारा अपनी बीमारी का इलाज करवाया। लेकिन बीमारी बढ़ रही थी। सभी के बहुत मना करने पर भी विश्व विद्यालय जाना नहीं छोड़ रहे थे। और अंतत: 1978 में मृत्यु हो गई। मृत्यु क्या है मुझे तब तक नहीं पता था। पापा के श्राद्ध में यूँ लग रहा था कि कोई पार्टी चल रही है। पूजा पाठ, भोज, और लोगों की बातें। यह सब जब खत्म हुआ, तब लगा कि अरे पापा तो नहीं हैं, अब क्या होगा। पर हम सभी धीरे-धीरे उनके बिना जीने के आदी हो गए।
यमुना कोठी के जिस हिस्से में हमलोग रहते थे उसका आधा हिस्सा अब बिक चुका है। चूँकि इसके मकान मालिक रतन सहाय हमारे दूर के रिश्तेदार हैं, अत: इनके परिवार से सारे सम्पर्क यथावत् हैं। अपनी यादों को दोहराने के लिए हम अक्सर वहाँ जाते रहते हैं। मकान के अन्दर आने के लिए लोहे का एक बड़ा-सा गेट था, जिसपर अक्सर हमलोग झुला झूलते थे। मकान का कुछ और हिस्सा बिक जाने से वह गेट भी अब न रहा। मकान में बाहर की तरफ एक बरामदा था, जिसपर शतरंज के डिजाइन का फ्लोर बना था। इस पर ही हमलोग ‘कोना कोनी कौन कोना’ का खेल खेलते थे।   
नया बाज़ार के ठीक चौराहे पर बंगाली बाबू की दूकान होती थी, जहाँ से हम कॉपी पेंसिल और टॉफ़ी खरीदते थे, विशेषकर पॉपिंस मुझे बहुत पसंद था। नया बाज़ार चौक पर नाई की वह दूकान बंद हो चुकी है, जहाँ मेरे पापा और भाई के बाल कटते थे। चौराहे पर मिठाई की एक दूकान थी, जहाँ से खूब छाली वाली दही और पेड़ा खरीदते थे, अब उसकी जगह बदल गई है। यहीं पर एक मिल था, जहाँ हम आटा पिसवाने आते थे। यहीं पर पंसारी की दूकान थी, जहाँ से सामान खरीदते थे। चौक पर ही निजाम टेलर है, जिसके यहाँ अब भी मैं कपड़ा सिलवाती हूँ। निजाम टेलर मास्टर तो अब नहीं रहे ,उनके बेटे अब सिलाई का काम करते हैं। चौक पर का मस्जिद अब भी है जहाँ सुबह शाम अजान हुआ करती थी। शारदा टाकिज़ एक बहुत भव्य सिनेमा हॉल खुला था, जो अब बंद हो चुका है। इसके मालिक महादेव सिंह जो नि:संतान थे। उनकी मृत्यु के बाद यह विवाद में चला गया था। यहाँ हम खूब सिनेमा देखते थे। पिक्चर पैलेस भी बंद हो चुका है। एक अजन्ता टाकिज और दीप प्रभा है जहाँ हाल फिलहाल भी सिनेमा देखा मैंने।
वेराइटी चौक पर बीच में एक मंदिर है, जिससे वहाँ चौराहा बनता है। यहीं पर आदर्श जलपान है, जहाँ गुलाब जामुन खाने हम अक्सर आते थे। नज़दीक ही आनंद जलपान था, जहाँ का डोसा बहुत पसंद था मुझे, पर अब वह बंद हो चुका है। वेराइटी चौक पर लस्सी वाला और कुल्फी वाला है, जब भी बाज़ार जाते तो लस्सी या कुल्फी खाते थे। ख़लीफाबाग चौक पर चित्रशाला स्टूडियो है, जो अब आधुनिक हो गया है। जो भी फोटो हम लोग खींचते थे ,यहीं साफ़ करवाते थे। यहीं भारती भवन, किशोर पुस्तक भण्डार आदि है ;जहाँ से किताबें खरीदते थे। यहाँ पर झालमुढ़ी, भूँजा, मूँगफली, गुपचुप (गोलगप्पे) आदि ठेले वाले से खरीद कर खाते थे, अब भी अक्सर यहाँ खाती हूँ।   
नया बाज़ार चौक पर हमारे पारिवारिक मित्र डॉ. पवन कुमार अग्रवाल का क्लिनिक -गरीब नवाज़- है जो अब छोटा- सा अस्पताल का रूप ले ले चुका है। डॉ. अग्रवाल शुरू से मुझे बेटी की तरह मानते थे। 1986 में मेरे अपेंडिक्स का ऑपरेशन उन्होंने किया था। ऑपरेशन से पहले मेरी बहुत सारी ज़िद थी, जिसे उन्होंने पूरा किया फिर मैं ऑपरेशन के लिए राज़ी हुई थी। वे जब तक रहे, अपनी सभी समस्याएँ मैं उनसे साझा करती थी। 2008 में जब उनका देहांत हो गया। यूँ अब उनके दोनों पुत्र डॉक्टर है और बहुत अच्छी तरह क्लिनिक सँभालता है। मेरी माँ के सहकर्मी हैं मुस्तफा अय्यूब ,जो रामसर में रहते हैं। इनकी पत्नी राशिदा आंटी शुरू से मुझे बहुत मानती रही। हर सुख दु:ख में इन लोगों का बहुत साथ मिला।
स्कूल के बाद सुन्दरवती कॉलेज से ऑनर्स तक की पढ़ाई हुई। रोज़ जोगसर, शंकर टाकीज चौक, मानिक सरकार चौक, आदमपुर आदि से होते हुए खंजरपुर स्थित सुन्दरवती कॉलेज जाती थी। कॉलेज के बाद एम ए के लिए सराय होते हुए यूनिवर्सिटी जाती थी। स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी अक्सर पैदल ही जाती थी। तब न गर्मी लगती थी ज्यादा न जाड़ा । बी ए तक मैं बहुत अंतर्मुखी थी। बस काम से काम, न गप्पे लड़ाना पसंद न बेवज़ह घूमना। स्कूल की सहपाठियों में नीलिमा, मृदुला, बिन्दु आदि से मिलना हुआ। कॉलेज की दोस्तों में पूनम और रेणुका से मिलती रही हूँ। यूनिवर्सिटी की किसी भी दोस्त से सम्पर्क नहीं रहा।         
ढेरों यादें और किस्से हैं, जिन्हें कभी भूलता नहीं मन। इतना ज़रूर है कि भागलपुर कभी छूटा नहीं। स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी जाने का रास्ता जैसे अब भी अपना -सा लगता है। यह सब छूट कर भी नहीं छूटता मुझसे। शहर जाना भले न होता हो पर ज़िन्दगी जहाँ से शुरू हुई वहीं पर अटक गई है। मेरा बचपन मुझे बार बार मुझ तक ले आता है ,जिसे मैं खुद हार चुकी हूँ।

सम्पर्क:द्वारा- राजेश कुमार श्रीवास्तव, द्वितीय तल ५/७सर्वप्रिय विहार नई दिल्ली, 110016, http://lamhon-ka-safar.blogspot.com,  jenny.shabnam@gmail.com

जीवन शैली/ ग़ज़ल/ कविता

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                ऐसी होती है माँ 
                                 - अनिता ललित
माँ- नारी का सबसे ख़ूबसूरत व वंदनीय रूप! माँ शब्द में ही ऊँचाई और गहराई दोनों का आभास एक साथ होता है। उसका हर बोल मंत्रोच्चारण होता है और उसकी हर बात में जीवन-सार छिपा होता है! उसकी बोली से शहद टपकता है व आँखों से ममता का सागर छलकता रहता है। माँ केवल देना जानती है। वह किसी काम के लिए नानहीं कहतीवह कभी थकती नहीं। सवेरे सबसे पहले उठती है और रात में सबके बाद सोती है। उसके चेहरे पर कभी थकान नहीं दिखती। सबको अपनी चीज़ सही ठिकाने पर मिलती मगर माँ कभी एक जगह पर बैठी नहीं दिखती। कोमलतम भावनाओं से लिपटी माँ के सामने कड़ी से कड़ी, बड़ी से बड़ी, कठिन से कठिन समस्या भी अपना अस्तित्व खो देती है-माँ के पास हर मुश्किल की चाभी होती है। कपड़ों की सीवन में वह चुपचाप अपने ज़ख्मों को भी सी देती है, अपने आँसुओं के लेप से दिलों में पड़ी दरारों को भर देती है।
 बच्चे के कोख़ में आने के साथ ही माँ उसकी सुरक्षा में जुट जाती है। बच्चों की देखभाल करना माँ का काम नहीं वरन् उसका स्वभाव होता है। बच्चों को क्या चाहिए यह बच्चों से पहले उसको पता चल जाता है। बच्चे अगर कष्ट में हों या बीमार हों, तो माँ को चैन नहीं आता, रातों को जाग-जागकर वह उनकी देखभाल करती है। भयंकर तूफ़ान हो या कड़ी धूप, माँ का आँचल बच्चों को अपने साये में सुरक्षित रखता है, उन्हें सुक़ून देता है। सबके ताने सुनती है, मगर बच्चों के लालन-पालन में कोई कोताही नहीं बरतती, कोई समझौता नहीं करती।
सालों-साल गुजऱ जाते हैं, माँ सोती नहीं! बच्चों को पालने-पोसने में वह ख़ुद को भूल जाती है। फिर अचानक एक दिन उसे महसूस होता है कि उसकी चाल धीमी हो गयी है, घुटने दुखने लगे हैं, वह अक्सर चीज़ें रखकर भूलने लगी है, जल्दी थकने भी लगी है,और उसे महसूस होता है कि नींद उसकी आँखों का पता ही भूल चुकी है। बुनाई-कढ़ाई करते समय अब वह सुई में धागे से और गिरे हुए फंदे से काफी देर तक जूझती रहती है। वह आवाा से कम और हाव-भाव से बातें समझने की कोशिश करने लगी है और उसकी प्रतिक्रिया भी धीमी पड़ने लगी है। तब वह देखती है कि उसके चेहरे पर उभरी लकीरों के नीचे दबे हुए पिछले कई वर्ष अपनी कहानी कहने लगे हैं, और पाती है, कि उसके बच्चों का कद अब उसके आँचल से बड़ा होने लगा है। उसके बच्चे अब उसके पास ज़्यादा देर तक नहीं रुकना चाहते, ज़िन्दगी की रेस में दौड़ते हुए उनके क़दमों के पास इतना वक़्त नहीं है कि वे उसके पास कुछ देर को ठहर सकें, उसकी बातों को सुन सकें, समझ सकें, उसकी छोटी-छोटी, सिमटी हुई ख्वाहिशों को पूरा कर सकें। अपने कोमल कन्धों और एक पैर से फिरकी की तरह नाचते हुए, पूरे परिवार की इच्छाओं को पूरा करने वाली माँ अब आत्मग्लानि से भर उठती है ! बच्चों के आँसू पोछने वाली, उनका मनोबल बढ़ाने वाली माँ अब बात-बात पर बच्चों के सामने अपनी बेबसी पर रो पड़ती है। फिर भी वह ढलती उम्र से उपजी अपनी अस्वथता को अपनी कमी समझकर उसी को कोसती है अपने बच्चों की स्वार्थपरता को नहीं! माँ ऐसी ही होती है !

          माँ तो हल्दी चंदन
             
बातें उसकी फूलों जैसीदिल ममता का आँगन है।
हर दर्द की दवा वो मीठीमाँ तो हल्दी-चंदन है।
स्वर्ग ज़मीं पर उतराऐसा माँ का रूप सलोना है
सजदे में झुक जाए ख़ुदा भीमाँ की बोली वंदन है।
माँ की बातें सीधी-सादीचाहत उसकी भोली है
घर-बच्चों की हर ख़्वाहिश परकरती कुर्बां जीवन है।
अपने आँचल को फैलाकरजीवन को महकाती है
शोलों पर वो चलती रहतीआँखों में भर सावन है।
उसके सपनों की लाली सेखिला सुबह का सूरज है
साँझ ढले क्यों भूली हँसनाक्यों खोया-खोया मन है ?
ढलती उम्र सुनाती क़िस्सेमाँ की पेशानी पर है
पपड़ी से झरते रिश्तेबचती यादों की सीलन है।
कि़स्मत वाला वो दर होगा, जिस घर माँ खुश रहती है
नूर ख़ुदा का उस पर बरसेवो पावन वृन्दावन है।


नारी एक नदी सी 
शांतनिर्मल
कभी चंचल-शोख मचलती,
अपनी दुनिया में मगन
किनारों संग वो बहती जाती!
जो भी उसके अंदर झाँके
झलक उसी की अपना लेती!
इसी तरह सेसब को अपने
दिल में वो बसाए रहती!
कोई कंकर फेंके उसमें,
कोई फेंके अपना मैल,
देवीदेवता सबको ही वो
अपने अंतर में समाती!
सूरज की भीषण गर्मी सहती
उसमें खुद को वो जलाती!
डर कर जब ये सूरज छिपता-
बादल का तांडव भी सहती!
दुनिया वाले जब जी चाहे
उसका रस्ता काटा करते।
तब भी वो खामोश रह कर
उनकी मनमर्ज़ी निभाती!
अपने खूँ से सींचे जाती
जीवन को जीवन’ वो देती,
लेकिन बदले में वो इसके
क़तरा-क़तरा तरसा करती!
दिल के अंदर लहरें उठतीं,
बहलाए वो भी ना बहलतीं !
चाँद गगन में जब मुस्काता
वो भीतर ही भीतर रोती!
आख़िर कब तक गुमसुम हो कर,
अपनी चुप्पी में वो खोती
दे-देकर इम्तेहाँ सब्र का
भरती जातीभरती जाती !
इक पल फिरऐसा भी आता,
अपना रौद्र रूप दिखाती!
बूँद- बूँद जो सहा था उसने,
दर्द का लावा छलका जाती!
नहीं देखती तब वो कुछ भी,
अपना या पराया कौन,
जो भी उसके आड़े आता,
तहस-नहस वो करती जाती!
दिल में उठती लहरों में वो,
अपना शक्ति-रूप धारती ,
तोड़के सारे बाँध वो बहती,
अपनी मंज़िल खुद तय करती!
नियति नदी कीसागर से मिलना,
उसको कोई रोक ना पाए
अपनी सारी कड़वाहट ले
उसमें खुद को जा मिटाती!
सागर का तो दंभ अनोखा,
खुद को समझे भाग्य-विधाता,
बिन नदी जीवन अधूरा,
उसका तो अस्तित्व ही झूठा!
रौद्र-रूप में छिपे दर्द से
सागर भी ना बच पाता,
मिटती नदीपर शाप से अपने
सागर को खारा जाती।

सम्पर्क·: 1/16 विवे· खंड, गोमतीनगर, लखनऊ- 226010, anita.atgrace@gmail.com

अनकही

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महिला लेखन की चुनौतियाँ....
- डॉ. रत्ना वर्मा
आज हम हमारी आधी दुनिया यानी महिलाओं के लेखन के क्षेत्र में बढ़ते कदमों के बारे में बात करेंगे। एक वह समय भी था ,जब महिला लेखन के बारे में बहुत कम चर्चा की जाती थी। गिनी चुनी लेखिकाएँ जो छपती थींउन्हें इसलिए भी गंभीरता से नहीं लिया जाता था कि महिलाएँ आखिर क्या लिखेंगी? उनकी तो दुनिया घर तक ही है।  जबकि इतिहास गवाह है कि महिलाओं ने घर के दायरे से निकल कर ऐसे विषयों पर भी अपनी कलम चलाई, जिससेसमाज ही नहीं देश के विराट फलक पर अपना प्रभाव छोड़नेमें कामयाब हुईं हैं। बहुत पीछे न जाकर आजादी के दौर की बात करें ,तो सुभद्राकुमारी चौहानसरोजिनी नायडू, महादेवी वर्मा, उषादेवी मित्र और सुमित्रा सिन्हा जैसी अनेक लेखिकाओं का साहित्य राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ा था। इन लेखिकाओं की लेखनी के दम पर ही आजादी के आंदोलन में हजारों महिलाएँ घर से बाहर निकल आईं थीं।
आज तो महिला लेखन की दुनिया ही बदल गई है। विशेषकर तब जब उसने इंटरनेट की वैश्विक दुनिया में कदम रखा है। पिछले कुछ दशकों में नारी की जीवनचर्या, उसके सोचने- समझने की क्षमता और अपने होने के अहसास के बारे में काफी बदलाव आया है। स्त्री जहाँ एक ओर उच्च शिक्षा प्राप्त कर हर क्षेत्र में अपनी काबिलिका लोहा मनवा रही है ; वहीं उसने स्त्री के प्रति समाज का नरिया बदलने में भी कामयाबी हासिल की है। अपने साथ हो रहे अत्याचार, शोषण और एक वस्तु की तरह इस्तेमाल किए जाने का विरोध करते हुए भारतीय नारी ने अपने दुर्गा रूको यथार्थ में बदलकर दुनिया को यह जतला दिया है कि वहअपना  एक स्वतंत्र अस्तित्व रखती है, और उसका भी अपना स्वाभिमान है।
 इन्हीं सबके चलते महिलाओं के अपने लेखन का दायरा भी बढ़ा है। इस दायरे को बढ़ाने में इंटरनेट की दुनिया ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेखन उस दौर में भी चलता था और खूब चलता था ,जब लेखकों को पाठकों तक पहुँचने के लिए समाचार पत्र या पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाएँ भेजनी पड़ती थीं, या फिर उनकी खुद की पुस्तक प्रकाशित होती थी; पर इसका दायरा सीमित था और महिलाओं के लिए तो और भी। एक तो वह अपने लिखे को संकोचवश कहीं छपने के लिए भेजने में हिचकिचाती थीं और दूसरे बड़ी- पत्र-पत्रिकाओं की अपनी सीमाएँ या एक सिमटा हुआ दायरा हुआ करता था ; जहाँ नए रचनाकारों का प्रवेश आसान नहीं होता था। लेकिन इसके बावज़ूद यह भी सही हैकिबहुत सी महिला रचनाकारों ने पुरुप्रभुत्व के इस क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई। पर तब भी मुकाबले में वे थीं तो दूसरे नम्बर पर ही। 
लेकिन अब समय बदल गया है, मुकाबले में बराबरी करने वे दम-खम के साथ आ खड़ी हुईं हैं, और नि:संकोच अपनी बात सबके सामने रख रही हैं। वे लिख भी खूब रही हैं और छप भी रही हैं, उन्हें हर जगह सराहा भी जा रहा है तथा उनके लिखे पर वृहद्चर्चा भी होती है। यही नहीं,वे अपनी पहचान वैश्विक स्तर पर भी बनाने में कामयाब हो रही हैं;क्योंकि इंटरनेट के जरिए उनका लिखा दुनिया भर में पढ़ा जा रहा है। अपने स्वयं के ब्लॉग बनाकर तो वे लिख ही रही हैं, विभिन्न वेब पत्रिकाओं में उनकी  बढ़ती उपस्थिति इस बात का प्रमाण हैं कि घर परिवार, रसोई और बच्चों को बखूबी सम्भालने के साथ साथ उनकी लेखनी और अधिक धारदार होती जा रही है।
सबसे बड़ी बात है कि उनके लेखन का दायरा किसी एक क्षेत्र में सिमटा हुआ नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में तो उन्होंने अपने आप को साबित कर दिखाया ही है, अन्य विधाओं में भी उनकी लेखनी बखूबी सराही जा रही है। उनका लेखन जिसे कभी स्वान्त: सुखाय कहकर नकार दिया जाता था, आज उनको रेखांकित किया जाता है। पिछले दिनों एक बहस सी छिड़ गई थी कि महिलाएँ जो लिख रही हैं उससे भारतीय समाज को हमारी संस्कृति को कोई लाभ नहीं पहुँरहा है। ऐसा कहने वाले कहीं न कहीं कुंठा से ग्रसित या भयभीत नजर आते हैं, जबकि सत्य बात यह है कि अपने लेखन के माध्यम से स्त्री जड़ हो चुकी परम्पराओं, रूढ़-मान्यताओं के दायरे से बाहर निकलकर नए जागरूक दौर में शामिल होकर कदम से कदम मिला कर चल रही हैं और सामाजिक बदलाव में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।
लेखन को पुरुऔर महिला के दायरे में बाँटकर देखना सही नहीं है ,पर जब एक महिला कुछ हटकर रचती है ; तो ध्यान आकर्षित करती है, शायद इसलिए कि अरे एक महिला ने ऐसा, इस विषय पर लिखा!लेकिन यह भी सही है कि ऐसा हर दौर में होता रहा है और होता रहेगा। हमें इन्हीं चुनौतियों का सामना करते हुए ही तो आगे बढ़नाहै, सशक्त बनना है।

उदंती में समय-समय पर किसी एक विषय को केन्द्र में रख अंक प्रकाशित किया जाता है। इसी क्रम में इस बार यह अंक महिला रचनाकारों पर केन्द्रित है। विश्वास है पाठकों को यह अंक भी पसंद आगा। 

इस अंक में

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खड़ी हूँ मैं युगों से द्वार,                         ले दीपक दुआओं के
हथेली लाल हैं लेकिन,                              बदलती रुख़ हवाओं के
ज़रा सी आँच से पिघले,                             मुझे वो शय नहीं समझो
समेटो शामियाने अब,                           अँधेरे की रिदाओं के।।
[रिदा= चादर]
 -डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

उदंती.com      जुलाई 2016
महिला रचनाकारों पर विशेष

-कविता: रजनी एक पहेली, मिलने की आस - मंजुल भटनागर
आवरण- संदीप राशिनकर, इन्दौर (म. प्र.)

महादेवी और निराला

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स्नेह का बंधन
हिन्दी कवयित्रीमहादेवी वर्मा व निराला का भाई-बहन का स्नेह भी सर्वविदित है। निराला महादेवी के मुँहबोले भाई थे व रक्षाबंधन कभी न भूलते थे।


महादेवीवर्मा को जब ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, तो एक साक्षात्कार के दौरान उनसे पूछा गया था, ‘आप इस एक लाख रुपये का क्या करेंगी?’
कहने लगी, ‘न तो मैं अब कोई क़ीमती साडिय़ाँ पहनती हूँन कोई सिंगार-पटार कर सकती हूँ, ये लाख रुपये पहले मिल गए होते तो भाई को चिकित्सा और दवा के अभाव में यूँ न जाने देतीकहते-कहते उनका दिल भर आया। कौन था उनका वो भाई’?  हिंदी के युग-प्रवर्तक औघड़-फक्कड़-महाकवि पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला’, महादेवी के मुंहबोले भाई थे।
एक बार वे रक्षा-बंधन के दिन सुबह-सुबह जा पहुँचे अपनी लाडली बहन के घर और रिक्शा रुकवाकर चिल्लाकर द्वार से बोले,  ‘दीदी, जरा बारह रुपये तो लेकर आना।’  महादेवी रुपये तो तत्काल ले आई, पर पूछा, ‘यह तो बताओ भैय्या, यह सुबह-सुबह आज बारह रुपये की क्या जरूरत आन पड़ी’?
हालाँकि, ‘दीदीजानती थी कि उनका यह दानवीर भाई रोजाना ही किसी न किसी को अपना सर्वस्व दान कर आ जाता है, पर आज तो रक्षा-बंधन है, आज क्यों?
निरालाजी सरलता से बोले, ‘ये दुई रुपया तो इस रिक्शा वाले के लिए और दस रुपये तुम्हें देना है। आज राखी है ना!  तुम्हें भी तो राखी बँधवाई के पैसे देने होंगे। ऐसे थे फक्कड़ निराला और ऐसी थी उनकी वह स्नेहमयी दीदी

कविता

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क्या हम सचमुच आज़ाद हैं?
- सुनीता पाहूजा

कुछ ज़ंज़ीरें हैं....
कुछ ज़ंज़ीरें हैं
... जो दिखाई नहीं देतीं ज़ंज़ीरों सी
पर रोकती हैं..

ये रोकती हैं -
कदमों को बढ़ने से,
हाथों को लिखने से,

ये रोकती हैं
निगाहों को उठने से,
ज़ुबाँ को बोलने से,
 ज़िंदगी को जीने नहीं देतीं ...
 कुछ ज़ंज़ीरें।

ये बाँधतीं हैं - साँसों को
दबाती हैं - हँसी को
ज़िंदगी को खिलखिलाने नहीं देतीं।

कुछ ज़ंज़ीरें
खनकती हैं....
पाजेब के घुँघरुओं सी
चूड़ियों की खन-खन सी
बजती हैं,
खटकती हैं,
अटकती हैं
पर....दिखाई नहीं देतीं।

ये ज़ंज़ीरें सोचने पर मजबूर करती हैं
कि क्या हम सचमुच आज़ाद हैं ?
मानो न मानो ! ....कुछ ज़ंज़ीरें अब भी हैं।

सहायक निदेशक
केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो
Assistant Director CTB, MHA

बाल कहानी

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सुन्दर ने एक तोता पाला।
तोता पिंजरे में बन्द था।
सुन्दर उसे दूधभात खिलाता, हरी मिर्च खिलाता। तरहतरह के फल खिलाता। रोजाना उसे रामराम, सीताराम पढ़ाता।
तोते के बिना उसे एक पल को चैन नहीं था। जहाँ भी जाता, तोते का पिंजरा साथ ले जाता।तोता भी उसे बहुत चाहता था।
उसे देखकर खूब उछलताकूदता था। खूब बोलता था।
वह चाहता था कि सुन्दर पिंजरा खोल दे। मैं उसके हाथ पर, सिर पर बैठकर नाचूँ।
पर सुन्दर समझ नहीं पाता था। वह समझता था कि तोता बहुत खुश है, इसलिए उछलकूद कर रहा है।
सुन्दर तोते का पिंजरा बाहर पेड़ पर टाँग देता।
पेड़ पर बैठी चि ड़ियों की बोली तोता सुनता। तब वह बाहर आने के लिए खूब फड़फड़ाता। सुन्दर तब भी यही समझता कि तोता खुश होकर नाच रहा है।
सुन्दर का एक मित्र था, उसका नाम था बहादुर ।
बहादुर बहुत लालची था। वह रुपये पैसे के चक्कर में बराबर रहता था। उसकी आदतें खराब होती जा रही थीं।
एक दिन एक आदमी ने बहादुर को एक पैकेट लाकर दिया और कहा कि इसे ले जाकर तुम नुक्कड़ की पान वाले की दुकान पर दे देना। मैं तुम्हें एक सौ रुपया दूँगा।
बहादुर खुश हो गया। यह तो बहुत आसान काम है। इस तरह वह रोज अलगअलग दूकानों पर सामान पहुँचाने लगा।
पैकेट वाले आदमी ने कहा था, कोई पूछे कि यह पैकेट कौन देता है, तो बताना नहीं। कहाँ ले जाते हो, यह भी मत बताना। किसी को दिखाना भी नहीं। अगर कभी लगे कि अभी पकड़े जाओगे ,तो किसी के पास पैकेट फेंक कर भाग जाना।
अब बहादुर को लगा कि यह गलत काम है।
उसने डरते हुए कहामैं यह काम नहीं करूँगा।
आदमी ने उसे डाँटते हुए डराया। नहीं करोगे तो हम मारेंगें और तुम्हें पुलिस को पकड़ा देंगें।   
बहादुर डर कर काँपने लगा।
अब वह डरतेडरते उसका काम करने लगा। धीरेधीरे उसे यह गलत काम करने में भय नहीं रहा।
एक दिन वह पैकेट लेकर जा रहा था। उसने देखा पुलिस के सिपाही टहल रहे हैं।  सुन्दर अपने तोते को लेकर बैठा था।
बहादुर ने देखा कि पुलिस वाले उसी की ओर इशारा करके उसकी तरफ आ रहे हैं। वह घबड़ाता हुआ आया और पैकेट सुन्दर के पास फेंककर भाग गया।
सुन्दर पैकेट खोलकर देखने लगा।
तब तक सिपाही आ गए। सुन्दर को सिपाहियों ने पकड़ लिया। और डाँटते हुए पूछातुम कहाँ ले जा रहे थे यह ? कितने दिन से यह काम कर रहे हो ? कहाँ से ले आते हो ?
पर सुन्दर केवल रो रहा था और कह रहा था कि मेरा एक दोस्त फेंक कर गया है।
मैं कुछ भी नहीं जानता।
सिपाही उसे पकड़कर ले चलेकहाँ है तुम्हारा दोस्त ? पर बहादुर तो भागकर कहीं छिप गया था।
सिपाही ने सुन्दर को जेल में बन्द कर दिया।
सुन्दर के तोते का पिंजड़ा उस जेल की कोठरी के सामने रख दिया गया था। तोता खूब फड़फड़ा रहा था। जोरजोर से बोल रहा था।
सुन्दर का मन बेचैन हो गया।
वह सोचने लगायह कोठरी का दरवाजा खुल जाता ,तो मैं बाहर जाता। अपने तोते को देखता। अपने मातापिता को देखता। अपने भाईबहन, दोस्तों से मिलता।
सुन्दर का मन हुआ जेल के सींखचे तोड़ दे। वह सींखचे हिलाने लगा।
उसने सामने देखा। उसका तोता भी पिंजरे के सींखचे तोड़ने की कोशिश कर रहा था। आज सुन्दर भी जेल के पिंजरे में बन्द था।
आज सुन्दर को लगा कि मेरा मिट्ठू भी इसी तरह पिंजरे में घूमता, चोंच मारता था। पर मैं समझता था कि वह खुशी से नाच रहा है।
    आज पता चला कि वह भी आजाद होने के लिए छटपटाता था। मेरी तरह अपने परिवार से, दोस्तों से मिलने के लिए उसका मन व्याकुल था। तभी तो पेड़ के नीचे चिड़ियों की आवाज सुनकर वह और फड़फड़ाता था।
सुन्दर दुखी हो रहा था।
तभी बहादुर को पकड़कर सिपाही ले आये। बहादुर ने मार खाने  पर बता दिया था कि मैंने ही सुन्दर के पास पैकेट फेंका था।
सुन्दर को छोड़ दिया गया।
बाहर आते ही सुन्दर ने पहला काम कियाअपने तोते का पिंजरा खोल दिया।
तोता फुर्र से उड़ गया।
फिर आकर सुन्दर के सिर पर बैठकर उछलने लगा। उसके हाथ पर बैठ गया।
सुन्दर की आँखों में आँसू आ गए।
उसे लगातोता भी अपना दर्द कहता था। आज भी अपनी प्रसन्नता प्रकट कर रहा है।
आजादी से बढ़कर कोई सुख नहीं है।
सुन्दर ने प्यार से तोते को सहलाया और उसे उड़ा दिया।
सम्पर्कः 45, गोखले मार्ग , लखनऊ

लघुकथा

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एक बड़ा सवाल 
- मनीषा सक्सेना
स्कूल में मध्यांतर हुआ ।सब बच्चे अपने अपने टिफिन बॉक्स लेकर मैदान में जमा थे।रीना बड़े चाव से दादी के हाथ के बने आलू के पराठे खा रही थी।उसकी सहेली कुहू टिफिन खोल कर चुपचाप बैठी थी ।
कुहू जल्दी से टिफिन ख़त्म करो, घंटी बजने वाली है।
रीना मुझे गणित का सवाल नहीं आया।देखना, मुझे शून्य अंक मिलेगा और घर पर मम्मी की डाँट पड़ेगी| “
हाँ कल मुझे भी नहीं आ रहा था । तुमने नेट पर सर्च किया था?”
किया था।अर्जुन अकादमी व मैथ्स ऑन लाइन दोनों पर उदाहरण देखे थे।मैं बार बार गलती कर जाती थी ।ठीक से समझ में नहीं आया ।
अरे ये तो मेरी मम्मी ने भी बताईं थीं ।उन्होंने कहा था इन दोनों साइट्स पर अच्छा समझाया है।”  
तुम्हें समझ में आया ?”
नहीं कुहू ,रात डिनर लगने तक सवाल किए, पर सारे सवाल सही नहीं लग पाते थे।खाने के समय मैंने दादाजी से पूछा कि 3मजदूर 4दिन में एक दीवार बनाते हैं तो 6मजदूर उस दीवार को कितने दिन में बनायेंगे ?दादाजी ने बताया कम लोग काम करेंगे  ,तो उन्हें ज्यादा समय लगेगा, अतः गुणा करेंगे। ज्यादा लोग मिलकर काम करेंगे ,तो जल्दी कर लेंगे, अतः भाग करना होगा। है न आसान ।
कुहू की आँखें भर आईं, घर में किससे पूछे अपने सवाल ?
सम्पर्कः जी 17बेलवेडियर प्रेस कम्पाउंड
मोतीलाल नेहरु रोड, इलाहाबाद, manisha.mail61@gmail.com

प्रेरक

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धरती माता के प्रति
चीफसियाटल (1786-1866) अमेरिका के मूल निवासियों के नेता थे। वाशिंगटन राज्य में सियाटल शहर का नामकरण उन्हीं के ऊपर किया गया है। अपनी जमीन से अधिकार छोडऩे के मुद्दे पर उन्होंने 11 मार्च, 1854 को सियाटल में अपने लोगों के सामने यह उल्लेखनीय भाषण दिया था-
'भाइयों, वाशिंगटन से राष्ट्रपति ने यह कहलवाया है कि वह हमारी जमीन खरीदना चाहते हैं। लेकिन कोई जमीन को या आकाश को कैसे खरीद सकता है? मुझे यह बात समझ नहीं आती।Ó
जब हवा की ताजगी पर और पानी के जोश पर तुम्हारा मालिकाना नहीं है तो तुम उसे कैसे खरीद और बेच सकते हो? इस धरती का हर एक टुकड़ा मेरे लोगों के लिए पवित्र है। चीड़ की हर चमकती पत्ती, हर रेतीला किनारा, घने जंगलों का कुहासा, हर मैदान, हर भुनभुनाता कीड़ा- ये सभी मेरे लोगों की स्मृति और अनुभवों में रचे-बसे हैं और पवित्र हैं।
इन पेड़ों के तनों में बहने वाले अर्क को हम उतना ही बेहतर जानते हैं जितना हम अपनी शिराओं में बहने वाले रक्त से परिचित हैं। हम इस धरती के अंश हैं और यह भी हमारा एक भाग है। महकते फूल हमारी बहनें हैं। भालू, हिरन, और गरुड़, ये सभी हमारे भाई हैं।
पथरीली चोटियाँ, चारागाहों की चमक, खच्चरों की गरमाहट, और हम सब, एक ही परिवार के सदस्य हैं। इन झरनों और नदियों में बहनेवाला चमकदार पानी सिर्फ पानी ही नहीं है बल्कि हमारे पूर्वजों का लहू है। यदि हम तुम्हें अपनी जमीन बेच दें तो तुम यह कभी नहीं भूलना कि यह हमारे लिए कितनी पावन है। इन झीलों के मंथर जल में झलकने वाली परछाइयां हमारे लोगों की जि़ंदगी के किस्से बयान करतीं हैं। बहते हुए पानी का कलरव मेरे पिता और उनके भी पिता का स्वर है।
नदियाँ हमारी बहनें हैं। उनके पानी से हम प्यास बुझाते हैं। वे हमारी नौकाओं को दूर तक ले जातीं हैं और हमारे बच्चों को मछलियाँ देतीं हैं। इसके बदले तुम्हें नदियों को उतनी ही इज्ज़त बख्शनी होगी जितनी तुम अपने बहनों का सम्मान करते हो।
यदि हम तुम्हें अपनी जमीन बेच दें तो यह न भूलना कि हमारे लिए इसकी हवा अनमोल है। इस हवा में यहाँ पनपने वाले हर जीव की आत्मा की सुगंध है। हमारे परदादाओं के जीवन की पहली और अंतिम सांस इसी हवा में कहीं घुली हुई है। हमारे बच्चे भी इसी हवा में सांस लेकर बढ़े हैं। इसलिए, अगर हम तुम्हें अपनी जमीन बेच दें तो इसे तुम अपने लिए भी उतना ही पवित्र जानना।
इस हवा में मैदानों में उगनेवाले फूलों की मिठास है। क्या तुम अपने बच्चों को यह नहीं सिखाओगे, जैसा हमने अपने बच्चों को सिखाया है कि यह धरती हम सबकी माता है!? इस धरती पर जो कुछ भी गुजऱता है वह हम सबको साथ में ही भोगना पड़ता है।
हम तो बस इतना ही जानते हैं कि हम इस धरती के मालिक नहीं हैं, यह हमें विरासत में मिली है। सब कुछ एक-दूसरे में उतना ही घुला-मिला है जैसे हमें आपस में जोडऩे वाला रक्त। यह जीव-जगत हमारा बनाया नहीं है, हम तो इस विराट थान के एक छोटे से तंतु हैं। यदि इस थान का बिगाड़ होगा तो हम भी नहीं बचेंगे।
और हम यह भी जानते हैं कि हमारा ईश्वर तुम्हारा भी ईश्वर है। यह धरती ईश्वर को परमप्रिय है और इसका तिरस्कार उसके क्रोध को भड़कायेगा।
तुम जिसे नियति कहते हो वह हमारी समझ से परे है। तब क्या होगा जब सारे चौपाये जिबह किये जा चुके होंगे? और जब साधने के लिए कोई जंगली घोड़े नहीं बचेंगे? और तब क्या होगा जब जंगलों के रहस्यमयी कोनों में असंख्य आदमियों की गंध फ़ैल जायेगी और उपजाऊ टीले तुम्हारे बोलनेवाले तारों से बिंध जायेंगे? तब झुरमुट कहाँ बचेंगे? गरुड़ कहाँ बसेंगे? सब ख़त्म हो जाएगा। चपल टट्टुओं पर बैठकर शिकार पर निकल चलने का क्या होगा? यह वह वक़्त होगा जब जीवन ख़त्म होने के कगार पर होगा और जि़ंदगी कायम रखने की जद्दोजहद शुरू हो जायेगी।
इस वीराने से आखिर लाल निवासियों के चले जाने के बाद जब प्रेयरी से गुजऱनेवाले बादलों की परछाईं ही उन्हें याद करेगी। क्या तब भी यह सागरतट और अरण्य बचे रहेंगे? क्या यहाँ से हमारे चले जाने के बाद भी हमारी आत्मा यहाँ बसी रहेगीं?
हम इस धरती से उतना ही प्यार करते हैं जितना एक नवजात अपने माता की छाती से करता है। तो, अगर हम तुम्हें अपनी जमीन बेच दें तो इसे उतना ही प्यार करना। हम इसकी बहुत परवाह करते हैं, तुम भी करना। इसे ग्रहण करते समय इस धरती की स्मृति को भी अपना लेना। इसे अपनी संततियों के लिए संरक्षित रखना, जैसे ईश्वर ने हमें हमेशा संभाला है। जिस तरह हम इस धरती के अंश हैं, तुम भी इसके अंश हो। यह हमारे लिए अनमोल है और तुम्हारे लिए भी। 'हम तो बस इतना ही जानते हैं कि हम सबका एक ही ईश्वर है। न तो कोई लाल आदमी है और न ही कोई गोरा, कोई भी किसी से अलग नहीं है। हम सब भाई हैं।’ (हिन्दी ज़ेन से)

दो गीत

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 1.  दर्द गुलामी का
- सुनीता काम्बोज

दर्द गुलामी का लिख दूँ याआजादी का हाल लिखूँ
कैसे- कैसे कब- कब बदलीवक्त ने अपनी चाल लिखूँ

कितनी बार हुई है घायल, धरती माँ मत पूछो तुम
दुश्मन ने हैं  कैसे -कैसेबुन डाले ये जाल लिखूँ

भ्रष्ट आचरण वाली बेलें, फैली हैं हर ओर यहाँ ।
किस कारण से अब बतलाओदेश हुआ खुशहाल लिखूँ

समझ न आता कलम चलाऊँकिस-किस और समस्या पर
भूख गरीबी लिख डालूँ यासूखा, बाढ़, अकाल लिखूँ

बेटी है लाचार व बेबस, माँ की आँखें शंकित हैं ।
बता दामिनी के जख़्मों  को, कैसे  मैं हर साल लिखूँ

पैसे वाले रखते है अब, मुट्ठी में कानून यहाँ
गद्दारो की कभी नहीं क्योंहोती है पड़ताल लिखूँ

कभी झोंपड़े गए उजाड़े, रो देती थी ये आँखें
मजदूरों के घर रोटी ने, करदी थी हड़ताल लिखूँ

जब -जब भी आवाज़ उठाईसदा दबाते आए है
      रातों-रात हुए है कैसेअब वो मालोमाल लिखूँ        

2.कर देगे आजाद माँ

कर देगें आजाद तुझको को कर देगे आजाद माँ
और भी तो वीर पैदा होगे अपने बाद माँ

हम चले हैं माँ ये अपनी जान तेरे नाम कर
चरणों तेरे सर झुका कर ऊँची तेरी शान कर
ये तमन्ना इस धरा पर जन्म फिर से ही मिले
अब नहीं अमृत की चाहत हम चले विषपान कर
हार मानेगी नही तेरी कभी औलाद माँ
कर देगे...
हम गुलामी की बँधी इन बेड़ियों को तोड़कर
एक कर देगे वतन को सब दिलों को जोड़कर
मिट्टी  में ही तेरी मिल जाएँगी हम  माँ भारती
और जाएँगे कहाँ हम तेरा आँचल छोड़कर
छोड़ जाएँगे दिलों पर अपनी गहरी याद माँ
कर देगे...
लौट जाएँगे ये तूफ़ाँ हमसे लड़कर देखना
छोड़ देगे रास्ता पर्वत भी डरकर देखना
करके देखो दोस्ती इस मौत से भी तुम कभी
तू अमर हो जाओगे ऐसे  भी मरकर देखना
गूँजने देखो लगा है ये विजय का नाद माँ

सम्पर्कः मकान नंबर -120 टाइप-3,जिला– संगरूर, स्लाईट लोंगोवाल पंजाब 148106, ईमेल- Sunitakamboj31@gmail.comस्थायी निवासी– यमुनानगर (हरियाणा )

माहिया

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तुम पार लगा देना 
-डॉ. सुधा गुप्ता
1
तुम हाथ बढ़ा देना
करुणाकर !सुन लो
तुम पार लगा देना 
2
मन को अब चैन नहीं
आँखें रीती हैं
होठों पर बैन नही।
3
अमरस अँगनाई में
कोयल कूक रही
अब तो अमराई में ।
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ये विनती है

-डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
1
रुत ये वासंती है
चरणों में हमको
ले लो ये विनती है ।
2
दो बूँद दया बरसे
हम भी  हैं तेरे
फिर कौन भला तरसे ।
3
देरी से आना हो
आकर जाने का
कोई  न बहाना हो  ।
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बोलो कब आओगे

3- डॉ. भावना कुँअर
1
तुम बरसों बाद मिले
मन के तार छिड़े
सारे  ही ज़ख़्म सिले।
2
जीवन की रीत रही
सच्ची प्रीत सदा
इस मन की मीत रही
3
बोलो कब आओगे ?
उखड़ रही साँसें
सूरत दिखलाओगे ?

(अनुपमा त्रिपाठी के स्वर में माहिया सुनने के लिए http://youtu.be/EEhS2HJvzXEपर क्लिक कीजिए ।

कालजयी कहानी

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हींगवाला
 -सुभद्रा कुमारी चौहान
लगभग 35 साल का एक खान आंगन में आकर रुक गया। हमेशा की तरह उसकी आवाज सुनाई दी- ''अम्मा... हींग लोगी?''
पीठ पर बँधे हुए पीपे को खोलकर उसने, नीचे रख दिया और मौलसिरी के नीचे बने हुए चबूतरे पर बैठ गया। भीतर बरामदे से नौ- दस वर्ष के एक बालक ने बाहर निकलकर उत्तर दिया - ''अभी कुछ नहीं लेना है, जाओ!"
पर खान भला क्यों जाने लगा? जरा आराम से बैठ गया और अपने साफे के छोर से हवा करता हुआ बोला- ''अम्मा, हींग ले लो, अम्मां ! हम अपने देश जाता हैं, बहुत दिनों में लौटेगा।"  सावित्री रसोईघर से हाथ धोकर बाहर आई और बोली - ''हींग तो बहुत-सी ले रखी है खान ! अभी पंद्रह दिन हुए नहीं, तुमसे ही तो ली थी।"
वह उसी स्वर में फिर बोला-''हेरा हींग है मां, हमको तुम्हारे हाथ की बोहनी लगती है। एक ही तोला ले लो, पर लो जरूर।''इतना कहकर फौरन एक डिब्बा सावित्री के सामने सरकाते हुए कहा- ''तुम और कुछ मत देखो मां, यह हींग एक नंबर है, हम तुम्हें धोखा नहीं देगा।''
सावित्री बोली- ''पर हींग लेकर करूंगी क्याढेर-सी तो रखी है।''खान ने कहा-''कुछ भी ले लो अम्मां! हम देने के लिए आया है, घर में पड़ी रहेगी। हम अपने देश कूं जाता है। खुदा जाने, कब लौटेगा?''और खान बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए हींग तोलने लगा। इस पर सावित्री के बच्चे नाराज हुए। सभी बोल उठे-''मत लेना मां, तुम कभी न लेना। जबरदस्ती तोले जा रहा है।''सावित्री ने किसी की बात का उत्तर न देकर, हींग की पुड़िया ले ली। पूछा-''कितने पैसे हुए खान ?''
''पैंतीस पैसे अम्मां!''खान ने उत्तर दिया । सावित्री ने सात पैसे तोले के भाव से पांच तोले का दाम, पैंतीस पैसे लाकर खान को दे दिए । खान सलाम करके चला गया। पर बच्चों को मां की यह बात अच्छी न लगीं।
बड़े लड़के ने कहा-''मां, तुमने खान को वैसे ही पैंतीस पैसे दे दिए। हींग की कुछ जरूरत नहीं थी।'' छोटा मां से चिढ़कर बोला-''दो मां, पैंतीस पैसे हमको भी दो। हम बिना लिए न रहेंगे।''लड़की जिसकी उम्र आठ साल की थी, बड़े गंभीर स्वर में बोली-''तुम मां से पैसा न मांगो। वह तुम्हें न देंगी। उनका बेटा वही खान है।''सावित्री को बच्चों की बातों पर हँसी आ रही थी। उसने अपनी हँसी दबाकर बनावटी क्रोध से कहा-''चलो-चलो, बड़ी बातें बनाने लग गए हो। खाना तैयार है, खाओ।''
छोटा बोला- ''पहले पैसे दो। तुमने खान को दिए हैं ।''
सावित्री ने कहा- ''खान ने पैसे के बदले में हींग दी है। तुम क्या दोगे?''छोटा बोला- ''मिट्टी देंगे।''सावित्री हँस पड़ी- ''अच्छा चलो, पहले खाना खा लो, फिर मैं रुपया तुड़वाकर तीनों को पैसे दूंगी।"
खाना खाते-खाते हिसाब लगाया। तीनों में बराबर पैसे कैसे बंटे ? छोटा कुछ पैसे कम लेने की बात पर बिगड़ पड़ा-''कभी नहीं, मैं कम पैसे नहीं लूंगा!''दोनों में मारपीट हो चुकी होती, यदि मुन्नी थोड़े कम पैसे स्वयं लेना स्वीकार न कर लेती।
कई महीने बीत गए । सावित्री की सब हींग खत्म हो गई। इस बीच होली आई। होली के अवसर पर शहर में खासी मारपीट हो गई थी। सावित्री कभी- कभी सोचती, हींग वाला खान तो नहीं मार डाला गया? न जाने क्यों, उस हींग वाले खान की याद उसे प्राय: आ जाया करती थी। एक दिन सवेरे-सवेरे सावित्री उसी मौलसिरी के पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठी कुछ बुन रही थी । उसने सुना, उसके पति किसी से कड़े स्वर में कह रहे हैं- ''क्या काम है?'भीतर मत जाओ। यहाँ आओ।''उत्तर मिला-''हींग है, हेरा हींग।''और खान तब तक आंगन मैं सावित्री के सामने पहुँच चुका था। खान को देखते ही सावित्री ने कहा- ''बहुत दिनों में आए खान! हींग तो कब की खत्म हो गई।"
खान बोला- ''अपने देश गया था अम्मां, परसों ही तो लौटा हूँ।''सावित्री ने कहा- ''यहाँ तो बहुत जोरों का दंगा हो गया है।'' खान बोला-''सुना, समझ नहीं है लड़ने वालों में।"
सावित्री बोली-''खान, तुम हमारे घर चले आए। तुम्हें डर नहीं लगा?"
दोनों कानों पर हाथ रखते हुए खान बोला-''ऐसी बात मत करो अम्मां। बेटे को भी क्या मां से डर हुआ है, जो मुझे होता?"और इसके बाद ही उसने अपना डिब्बा खोला और एक छटांक हींग तोलकर सावित्री को दे दी। रेजगारी दोनों में से किसी के पास नहीं थी। खान ने कहा कि वह पैसा फिर आकर ले जाएगा। सावित्री को सलाम करके वह चला गया।
इस बार लोग दशहरा दूने उत्साह के साथ मनाने की तैयारी में थे। चार बजे शाम को मां काली का जुलूस निकलने वाला था। पुलिस का काफी प्रबंध था। सावित्री के बच्चों ने कहा- "हम भी काली का जुलूस देखने जाएंगे।"
सावित्री के पति शहर से बाहर गए थे। सावित्री स्वभाव से भीरु थी। उसने बच्चों को पैसों का, खिलौनों का, सिनेमा का, न जाने कितने प्रलोभन दिए पर बच्चे न माने, सो न माने। नौकर रामू भी जुलूस देखने को बहुत उत्सुक हो रहा था। उसने कहा- "भेज दो न मां जी, मैं अभी दिखाकर लिए आता हूँ।" लाचार होकर सावित्री को जुलूस देखने के लिए बच्चों को बाहर भेजना पड़ा। उसने बार-बार रामू को ताकीद की कि दिन रहते ही वह बच्चों को लेकर लौट आए।
बच्चों को भेजने के साथ ही सावित्री लौटने की प्रतीक्षा करने लगी। देखते-ही-देखते दिन ढल चला। अंधेरा भी बढ़ने लगा, पर बच्चे न लौटे अब सावित्री को न भीतर चैन था, न बाहर । इतने में उसे -कुछ आदमी सड़क पर भागते हुए जान पड़े । वह दौड़कर बाहर आई, पूछा-''ऐसे भागे क्यों जा रहे हो? जुलूस तो निकल गया न ।"
एक आदमी बोला-''दंगा हो गया जी, बडा भारी दंगा!'सावित्री के हाथ-पैर ठंडे पड़ गए। तभी कुछ लोग तेजी से आते हुए दिखे। सावित्री ने उन्हें भी रोका । उन्होंने भी कहा-''दंगा हो गया है!''
अब सावित्री क्या करे ? उन्हीं में से एक से कहा- ''भाई, तुम मेरे बच्चों की खबर ला दो। दो लड़के हैं, एक लड़की। मैं तुम्हें मुंह मांगा इनाम दूंगी।''एक देहाती ने जवाब दिया-''क्या हम तुम्हारे बच्चों को पहचानते हैं मां जी?''यह कहकर वह चला गया।
सावित्री सोचने लगी, सच तो है, इतनी भीड़ में भला कोई मेरे बच्चों को खोजे भी कैसे? पर अब वह भी करें, तो क्या करें? उसे रह-रहकर अपने पर क्रोध आ रहा था। आखिर उसने बच्चों को भेजा ही क्यों? वे तो बच्चे ठहरे, जिद तो करते ही, पर भेजना उसके हाथ की बात थी । सावित्री पागल-सी हो गई। बच्चों की मंगल-कामना के लिए उसने सभी देवी-देवता मना डाले। शोरगुल बढ़कर शांत हो गया। रात के साथ-साथ नीरवता बढ़ चली। पर उसके बच्चे लौटकर न आए। सावित्री हताश हो गई और फूट-फूटकर रोने लगी। उसी समय उसे वही चिरपरिचित स्वर सुनाई पड़ा- "अम्मा!'' सावित्री दौड़कर बाहर आई उसने देखा, उसके तीनों बच्चे खान के साथ सकुशल लौट आए हैं। खान ने सावित्री को देखते ही कहा-''वक्त अच्छा नहीं हैं अम्मां! बच्चों को ऐसी भीड़-भाड़ में बाहर न भेजा करो।''बच्चे दौड़कर मां से लिपट गए।

आज़ाद हिन्द फ़ौज का प्रयाण गीत

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  कदम कदम बढ़ाये जा
- कैप्टन राम सिंह ठाकुर

    कदम कदम बढ़ाये जा
    खुशी के गीत गाये जा
    ये जिंदगी है क़ौम की
    तू क़ौम पे लुटाये जा

    तू शेर-ए-हिन्द आगे बढ़
    मरने से तू कभी न डर
    उड़ा के दुश्मनों का सर
    जोश-ए-वतन बढ़ाये जा

    कदम कदम बढ़ाये जा
    खुशी के गीत गाये जा
    ये जिंदगी है क़ौम की
    तू क़ौम पे लुटाये जा

    हिम्मत तेरी बढ़ती रहे
    खुदा तेरी सुनता रहे
    जो सामने तेरे खड़े
    तू खाक में मिलाये जा

    कदम कदम बढ़ाये जा
    खुशी के गीत गाये जा
    ये जिंदगी है क़ौम की
    तू क़ौम पे लुटाये जा

    चलो दिल्ली पुकार के
    ग़म-ए-निशाँ संभाल के
    लाल क़िले पे गाड़ के
    लहराये जा लहराये जा

    कदम कदम बढ़ाये जा
    खुशी के गीत गाये जा
    ये जिंदगी है क़ौम की
    तू क़ौम पे लुटाये जा

[ इस लिन्क पर गीत सुन सकते हैं- https://www.youtube.com/watch?v=qQxWFawxbqc]

स्वतंत्रता आन्दोलन

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रानी लक्ष्मी बाई
वीरांगनाओं की भी याद करो कुर्बानी 

बेगम हज़रत महल
 भारतीयस्वाधीनता आन्दोलन का एक लम्बा इतिहास रहा है। अपनी राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक पराधीनता से मुक्ति के लिए इस आन्दोलन में अनेक राष्ट्रभक्तों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। स्त्रियों की दुनिया घर के भीतर है, शासन-सूत्र का सहज स्वामी तो पुरूष ही हैअथवा शासन व समर से स्त्रियों का सरोकार नहींजैसी तमाम पुरूषवादी स्थापनाओं को ध्वस्त करती तमाम नारियांँ भी स्वाधीनता आन्दोलन की आलमबरदार बनीं। 1857 की क्रान्ति में जहाँ बेगम हजरत महल, बेगम जीनत महल, रानी लक्ष्मीबाई, रानी अवन्तीबाई, रानी राजेश्वरी देवी, झलकारी बाई, ऊदा देवी, अजीजनबाई जैसी वीरांगनाओं ने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिये, वहीं 1857 के बाद अनवरत चले स्वाधीनता आन्दोलन में भी नारियों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। महात्मा गाँधी ने कहा था कि-भारत में ब्रिटिश राज मिनटों में समाप्त हो सकता है, बशर्ते भारत की महिलाएं ऐसा चाहें और इसकी आवश्यकता को समझें।
  इतिहास गवाह है कि 1905 के बंग-भंग आन्दोलन में पहली बार महिलाओं ने खुलकर सार्वजनिक रूप से भाग लिया था। स्वामी श्रद्धानन्द की पुत्री वेद कुमारी और आज्ञावती ने इस आन्दोलन के दौरान महिलाओं को संगठित किया और विदेशी कपड़ों की होली जलाई। कालान्तर में 1930 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान वेद कुमारी की पुत्री सत्यवती ने भी सक्रिय भूमिका निभायी। सत्यवती ने 1928 में साइमन कमीशन के दिल्ली आगमन पर काले झण्डों से उसका विरोध किया था। 1930 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान ही अरूणा आसफ अली तेजी से उभरीं और इस दौरान अकेले दिल्ली से 1600 महिलाओं ने गिरफ्तारी दी। गाँधी इरविन समझौता के बाद जहाँ अन्य
अरूणा आसफ अली
आन्दोलनकारी नेता जेल से रिहा कर दिये गये थे वहीं अरूणा आसफ अली को बहुत दबाव पर बाद में छोड़ा गया। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान जब सभी बड़े नेता गिरफ्तार कर लिये गये
, तो कलकत्ता के कांग्र्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता एक महिला नेली सेनगुप्त ने की। क्रान्तिकारी आन्दोलन में भी महिलाओं ने भागीदारी की। 1912-14 में बिहार में जतरा भगत ने जनजातियों को लेकर टाना आन्दोलन चलाया। उनकी गिरफ्तारी के बाद उसी गाँव की महिला देवमनियां उरांइन ने इस आन्दोलन की बागडोर सँभाली। 1931-32 के कोल आन्दोलन में भी आदिवासी महिलाओं ने सक्रिय भूमिका निभायी थी। स्वाधीनता की लड़ाई में बिरसा मुण्डा के सेनापति गया मुण्डा की पत्नी माकीबच्चे को गोद में लेकर फरसा-बलुआ से अंग्रेजों से अन्त तक लड़ती रहीं। 1930-32 में मणिपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का नेतृत्व नागा रानी गुइंदाल्यू ने किया। इनसे भयभीत अंग्रेजों ने इनकी गिरफ्तारी पर
सरोजिनी नायडू
पुरस्कार की घोषणा की और कर माफ करने के आश्वासन भी दिये। 1930 में बंगाल में सूर्यसेन के नेतृत्व में हुये चटगाँव विद्रोह में युवा महिलाओं ने पहली बार क्रान्तिकारी आन्दोलनों में स्वयं भाग लिया। ये क्रान्तिकारी महिलायें क्रान्तिकारियों को शरण देने
, संदेश पहुँचाने और हथियारों की रक्षा करने से लेकर बन्दूक चलाने तक में माहिर थीं। इन्हीं में से एक प्रीतीलता वाडेयर ने एक यूरोपीय क्लब पर हमला किया और कैद से बचने हेतु आत्महत्या कर ली। कल्पनादत्त को सूर्यसेन के साथ ही गिरफ्तार कर 1933 में आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी और 5 साल के लिये अण्डमान की काल कोठरी में कैद कर दिया गया। दिसम्बर 1931 में कोमिल्ला की दो स्कूली छात्राओं-शान्ति घोष और सुनीति चौधरी ने जिला कलेक्टर को दिनदहाड़े गोली मार दिया और काला पानी की सजी हुई तो 6 फरवरी 1932 को बीना दास ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में उपाधि ग्रहण करने के समय गवर्नर पर बहुत नजदीक से गोली चलाकर अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती दी। सुहासिनी अली तथा रेणुसेन ने भी अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियों से 1930-34 के मध्य बंगाल में धूम मचा दी थी।
लक्ष्मी सहगल
चन्द्रशेखर आजाद के अनुरोध पर दि फिलॉसाफी ऑफ बमदस्तावेज तैयार करने वाले क्रान्तिकारी भगवतीचरण वोहरा की पत्नी दुर्गा भाभीनाम से मशहूर  दुर्गा देवी बोहरा ने भगत सिंह को लाहौर जिले से छुड़ाने का प्रयास किया। 1928 में जब अंग्रेज अफसर साण्डर्स को मारने के बाद भगत सिंह व राजगुरु लाहौर से कलकत्ता के लिए निकले, तो कोई उन्हें पहचान न सके इसलिए दुर्गा भाभी की सलाह पर एक सुनियोजित रणनीति के तहत भगत सिंह उनके पति, दुर्गा भाभी उनकी पत्नी और राजगुरु नौकर बनकर वहाँ से निकल लिये। 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने की। बैठक में अंग्रेज पुलिस अधीक्षक जे0 ए0 स्कॉट को मारने का जिम्मा वे खुद लेना चाहती थीं, पर संगठन ने उन्हें यह जिम्मेदारी नहीं दी। बम्बई के गर्वनर हेली को मारने की योजना में टेलर नामक एक अंग्रेज अफसर घायल हो गया, जिसपर गोली दुर्गा भाभी ने ही चलायी थी। इस केस
नागा रानी गुइंदाल्यू
में उनके विरुद्ध वारण्ट भी जारी हुआ और दो वर्ष से ज्यादा समय तक फरार रहने के बाद 12 सितम्बर 1931 को दुर्गा भाभी लाहौर में गिरफ्तार कर ली गयीं। यह संयोग ही कहा जायेगा कि भगत सिंह और दुर्गा भाभी
, दोनों की जन्म शताब्दी वर्ष 2007 में एक साथ मनाई गई। क्रान्तिकारी आन्दोलन के दौरान सुशीला दीदी ने भी प्रमुख भूमिका निभायी और काकोरी काण्ड के कैदियों के मुकदमे की पैरवी के लिए अपनी स्वर्गीय मॉंँ द्वारा शादी की खातिर रखा 10 तोला सोना उठाकर दान में दिया। यही नहीं उन्होंने क्रान्तिकारियों का केस लड़ने हेतु मेवाड़पतिनामक नाटक खेलकर चन्दा भी इकट्ठा किया। 1930 के सविनय अविज्ञा आन्दोलन में इन्दुमतिके छद्म नाम से सुशीला दीदी ने भाग लिया और गिरफ्तार हुयीं।  इसी प्रकार हसरत मोहानी को जब जेल की सजा मिली तो उनके कुछ दोस्तों ने जेल की चक्की पीसने के बजाय उनसे माफी मांगकर छूटने की सलाह दी। इसकी जानकारी जब बेगम हसरत मोहानी को हुई तो उन्होंने पति की जमकर हौसला आफजाई की और दोस्तों को नसीहत भी दी। मर्दाना वेष धारण कर उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन में खुलकर भाग लिया और बाल गंगाधर तिलक के गरम दल में शामिल होने पर गिरफ्तार कर जेल भेज दी गयी, जहाँ उन्होंने चक्की भी पीसा। यही नहीं महिला मताधिकार को लेकर 1917 में सरोजिनी नायडू के नेतृत्व में वायसराय से मिलने गये प्रतिनिधिमण्डल में वह भी शामिल थीं। 
मीरा बेन
कस्तूरबा गाँधी
1925 में कानपुर में हुये कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता कर भारत कोकिलाके नाम से मशहूर सरोजिनी नायडू को कांग्रेस की प्रथम भारतीय महिला अध्यक्ष बनने का गौरव प्राप्त हुआ। सरोजिनी नायडू ने भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में कई पृष्ठ जोड़े। कमला देवी चट्टोपाध्याय ने 1921 में असहयोग आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इन्होंने बर्लिंन में अन्तर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व कर तिरंगा झंडा फहराया। 1921 के दौर में अली बन्धुओं की माँ बाई अमन ने भी लाहौर से निकल तमाम महत्वपूर्ण नगरों का दौरा किया और जगह-जगह हिन्दू-मुस्लिम एकता का संदेश फैलाया। सितम्बर 1922 में बाई अमन ने शिमला दौरे के समय वहाँ की फैशनपरस्त महिलाओं को खादी पहनने की प्रेरणा दी। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में भी महिलाओं ने प्रमुख भूमिका निभायी। अरुणा आसफ अली व सुचेता कृपलानी ने अन्य आन्दोलनकारियों के साथ भूमिगत होकर आन्दोलन को आगे बढ़ाया तो ऊषा मेहता ने भूमिगत रहकर कांग्रेस-रेडियो से प्रसारण किया। अरुणा आसफ अली को तो 1942 में उनकी सक्रिय भूमिका के कारण दैनिक ट्रिब्यूनने 1942 की रानी झाँसीनाम दिया। अरुणा आसफ अली नमक कानून तोड़ो आन्दोलनके दौरान भी जेल गयीं। 1942 के अन्दोलन के दौरान ही दिल्ली में गर्ल गाइडकी 24 लड़कियां अपनी पोशाक पर विदेशी चिन्ह धारण करने तथा यूनियन जैक फहराने से इनकार करने के कारण अंग्रेजी हुकूमत द्वारा गिरफ्तार हुईं और उनकी बेदर्दी से पिटाई की गयी। इसी आन्दोलन के दौरान तमलुक की 73 वर्षीया किसान विधवा मातंगिनी हाजरा गोली लग जाने के बावजूद राष्ट्रीय ध्वज को अन्त तक ऊँचा रखा।
विजयलक्ष्मी पंडित
  महिलाओं ने परोक्ष रूप से भी स्वतंत्रता संघर्ष में प्रभावी भूमिका निभा रहे लोगों को सराहा। सरदार वल्लभ भाई पटेल को सरदारकी उपाधि बारदोली सत्याग्रह के दौरान वहाँ की महिलाओं ने ही दी। महात्मा गाँधी को स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान उनकी पत्नी कस्तूरबा गाँधी ने पूरा समर्थन दिया। उनकी नियमित सेवा व अनुशासन के कारण ही महात्मा गाँधी आजीवन अपने लम्बे उपवासों और विदेशी चिकित्सा के पूर्ण निषेध के बावजूद स्वस्थ रहे। अपने व्यक्तिगत हितों को उन्होंने राष्ट्र की खातिर तिलांजलि दे दी। भारत छोड़ो आन्दोलन प्रस्ताव पारित होने के बाद महात्मा गाँधी को आगा खाँ पैलेस (पूना) में कैद कर लिया गया। कस्तूरबा
गाँधी भी उनके साथ जेल गयीं। डॉ0 सुशील नैयर, जो कि गाँधी जी की निजी डाक्टर भी थीं, भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान 1942-44 तक महात्मा गाँधी के साथ जेल में रहीं।
  इन्दिरा गाँधी ने 6 अप्रैल 1930 को बच्चों को लेकर वानर सेनाका गठन किया, जिसने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अपना अद्भुत योगदान दिया। यह सेना स्वतंत्रता सेनानियों को सूचना देने और सूचना लेने का कार्य करती व हर प्रकार से उनकी मदद करती। विजयलक्ष्मी पण्डित भी गाँधी जी से प्रभावित होकर जंग-ए-आजादी में कूद पड़ीं। वह हर आन्दोलन में आगे रहतीं, जेल जातीं, रिहा होतीं, और फिर आन्दोलन में जुट जातीं। 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ के सैन फ्रांसिस्को सम्मेलन में विजयलक्ष्मी पण्डित ने भारत का प्रतिनिधित्व भी किया। सुभाषचन्द्र बोस की ‘‘आरजी हुकूमते आजाद हिन्द सरकार’’ में महिला विभाग की मंत्री तथा आजाद हिन्द फौज की रानी झांसी रेजीमेण्ट की कमाण्ंिडग ऑफिसर रहीं कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने आजादी में प्रमुख भूमिका निभायी। सुभाष चन्द्र बोस के
आहवान पर उन्होंने सरकारी डॉक्टर की नौकरी छोड़ दी। कैप्टन सहगल के साथ आजाद हिन्द फौज की रानी झांसी रेजीमेण्ट में लेफ्टिनेण्ट रहीं ले0 मानवती आर्य्या ने भी सक्रिय भूमिका निभायी। अभी भी ये दोनों सेनानी कानपुर में तमाम रचनात्मक गतिविधियों में सक्रिय हैं।
इंदिरा गाँधी
  भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की गूँज भारत के बाहर भी सुनायी दी। विदेशों में रह रही तमाम महिलाओं ने भारतीय संस्कृति से प्रभावित होकर भारत व अन्य देशों में स्वतंत्रता आन्दोलन की अलख जगायी। लन्दन में जन्मीं एनीबेसेन्ट ने न्यू इण्डियाऔर कामन वीलपत्रों का सम्पादन करते हुये आयरलैण्ड के स्वराज्य लीगकी तर्ज पर सितम्बर 1916 में भारतीय स्वराज्य लीग’ (होमरूल लीग) की स्थापना की, जिसका उद्देश्य स्वशासन स्थापित करना था। एनीबेसेन्ट को कांग्रेस की प्रथम महिला अध्यक्ष होने का गौरव भी प्राप्त है। एनीबेसेन्ट ने ही 1898 में बनारस में सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज की नींव रखी, जिसे 1916 में महामना मदनमोहन मालवीय ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के रूप में विकसित किया। भारतीय मूल की फ्रांसीसी नागरिक मैडम भीकाजी कामा ने लन्दन, जर्मनी तथा अमेरिका का भ्रमण कर भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाया। उनके द्वारा पेरिस से प्रकाशित वन्देमातरम्पत्र प्रवासी भारतीयों में काफी लोकप्रिय हुआ। 1909 में जर्मनी के स्टटगार्ट में हुयी अन्तर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में मैडम भीकाजी कामा ने प्रस्ताव रखा कि- ‘‘भारत में ब्रिटिश शासन जारी रहना मानवता के नाम पर कलंक है। एक महान देश भारत के हितों को इससे भारी क्षति पहुँच रही है।’’ उन्होंने लोगों से भारत को दासता से मुक्ति दिलाने में सहयोग की अपील की और भारतवासियों का आह्वान किया कि - ‘‘आगे बढ़ो, हम हिन्दुस्तानी हैं और हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों का है।’’ यही नहीं मैडम भीकाजी कामा ने इस कांफ्रेंस में वन्देमातरम्अंकित भारतीय ध्वज फहरा कर अंग्रेजों को कड़ी चुनौती दी। मैडम भीकाजी कामा लन्दन में दादाभाई नौरोजी की प्राइवेट सेक्रेटरी भी रहीं।  आयरलैंड की मूल निवासी और स्वामी विवेकानन्द की शिष्या मारग्रेट नोबुल (भगिनी निवेदिता) ने भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में तमाम मौकों पर अपनी सक्रियता दिखायी। कलकत्ता विश्वविद्यालय में 11 फरवरी 1905 को आयोजित दीक्षान्त समारोह में वायसराय लॉर्ड कर्जन द्वारा भारतीय युवकों के प्रति अपमानजनक शब्दों का उपयोग करने पर भगिनी निवेदिता ने खड़े होकर निर्भीकता के साथ प्रतिकार किया। इंग्लैण्ड के ब्रिटिश नौसेना के एडमिरल की पुत्री मैडेलिन ने भी गाँधी जी से प्रभावित होकर भारत को अपनी कर्मभूमि बनाया। मीरा बहनके नाम से मशहूर मैडेलिन भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान महात्मा गाँधी के साथ आगा खाँ महल में कैद रहीं। मीरा बहन ने अमेरिका व ब्रिटेन में भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाया। मीरा बहन के साथ-साथ ब्रिटिश महिला म्यूरियल लिस्टर भी गाँधी जी से प्रभावित होकर भारत आयीं और अपने देश इंग्लैण्ड में भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास किया। द्वितीय गोलमेज कांफ्रेन्स के दौरान गाँधी जी इंग्लैण्ड में म्यूरियल लिस्टर द्वारा स्थापित ‘किग्सवे हॉलमें ही ठहरे थे। इस दौरान म्यूरियल लिस्टर ने गाँधी जी के सम्मान में एक भव्य समारोह भी आयोजित किया था।
  इन वीरांगनाओं के अनन्य राष्ट्रप्रेम, अदम्य साहस, अटूट प्रतिबद्धता और उनमें से कईयों का गौरवमयी बलिदान भारतीय इतिहास की एक जीवन्त दास्तां है। हो सकता है उनमें से कईयों को इतिहास ने विस्मृत कर दिया हो, पर लोक चेतना में वे अभी भी मौजूद हैं। ये वीरांगनायें प्रेरणा स्रोत के रूप में राष्ट्रीय चेतना की संवाहक हैं और स्वतंत्रता संग्राम में इनका योगदान अमूल्य एवं अतुलनीय है।
                              
सम्पर्कःटाइप 5 निदेशक बंगलाजी.पी.ओ. कैम्पस, सिविल लाइन्स, इलाहाबाद (उ.प्र.) 211001, मो. 08004928599, kk_akanksha@yahoo.com,  http://shabdshikhar.blogspot.in/  

गीत

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भारत नाम सुभागा

शुभ सुख चैन की बरखा बरसे
भारत भाग्य है जागा
पंजाब, सिंधु, गुजरात, मराठा
द्राविड़, उत्कल, बंगा
चंचल सागर, विंध्य हिमालय
नीला यमुना गंगा
तेरे नित गुण गाएँ
तुझसे जीवन पाएँ
सब जन पाएँ आशा
सूरज बनकर जग पर चमके
भारत नाम सुभागा
जय हो, जय हो, जय हो, जय जय जय जय हो
भारत नाम सुभागा

सबके मन में प्रीत बसाए
तेरी मीठी वाणी
हर सूबे के रहनेवाले
हर मज़हब के प्राणी
सब भेद और फर्क मिटाके
सब गोद में तेरी आगे
गूँथें प्रेम की माला
सूरज बनकर जग पर चमके
भारत नाम सुभागा
जय हो जय हो जय हो
जय हो, जय हो, जय हो, जय जय जय जय हो
भारत नाम सुभागा

सुबह सवेरे पंख पखेरू
तेरे ही गुण गाएँ

बास भरी भरपूर हवाएँ
जीवन मं ॠतु लाएँ

सब मिलकर हिंद पुकारें
जय आज़ाद हिंद के नारे
प्यारा देश हमारा
सूरज बनकर जग पर चमके
भारत नाम सुभागा
जय हो, जय हो, जय हो, जय जय जय जय हो
भारत नाम सुभागा
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यह गीत गुरुदेव रबीन्द्रनाथ ठाकुर के "जन गण मन"गीत का हिंदी रुपांतर हैजो स्वयं नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, अबीद हसन और आज़ाद हिंद के उच्च अधिकारियों ने अनूदित किया था। इसे संगीत दिया था आज़ाद हिंद फौज के कप्तान राम सिंह ठाकुर ने। कैप्टन लक्ष्मी सहगल की दुर्लभ आवाज़ में कुछ अंश- https://www.youtube.com/watch?v=F39nNmUUNPQ
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