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हिन्दी की यादगार कहानियाँ

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डॉ.परदेशी राम वर्मा की कहानी
हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में समान रूप से लिखकर देश भर में पहचान बनाने वाले चुनिंदा साहित्यकारों में से एक डॉ.परदेशी राम वर्मा ने कहानी, उपन्यास, संस्मरण, जीवनी, निबंध, शोध प्रबंध आदि सभी विधाओं में पर्याप्त लेखन किया है। उनके अब तक पाँच कथा संग्रह, दो उपन्यास, नौ संस्मरण एवं एक नाटक प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कृति औरत खेत नहींकथा संग्रह को अखिल भारतीय साहित्य परिषद द्वारा मदारिया सम्मान प्राप्त हुआ है। तीन हिन्दी तथा एक छत्तीसगढ़ी कहानी पुरस्कृत हुई है। उनकी पत्रिका आरूग फूलको मघ्यप्रदेश साहित्य परिषद का सप्रे सम्मान और उपन्यास प्रस्थानको महन्त अस्मिता पुरस्कार प्राप्त हुआ है। उनके छत्तीसगढ़ी उपन्यास आवाको रविशंकर विश्वविद्यालय में एमए हिन्दी के पाठयक्रम में सम्मिलित किया गया है। वे आगासदियापत्रिका का संपादन करते हैं।
उनकी कथा संग्रह औरत खेत नहींमें प्रकाशित एक विशिष्ठ कहानी विसर्जनमें उन्होंने छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जीवन की एक त्रासद भरी झांकी प्रस्तुत की है। आज से चार दशक पहले मध्यप्रदेश शासन ने नदी किनारे शराब का कारखाना डलवाया था जिससे पानी तो प्रदूषित हुआ ही युवा पीढ़ी नशे की गिरफ्त में आ गई, जिसका दुष्परिणाम आज तक गाँवों में देखने को मिलता है। विश्वास है पाठकों को उनकी यह आंचलिक कहानी पसंद आयेगी।                      - संपादक

             विसर्जन
बकरी चराने वाले लड़कों के लिए यह इलाका एकदम निरापद था। इस पूरे क्षेत्र में बकरी पालन का व्यवसाय इसीलिए तो फल फूल रहा था। चारों ओर जंगल, पास में छोटी- छोटी पहाडिय़ाँ। पहाडिय़ों के बीच छोटे- छोटे मैदान। मैदान और पहाडिय़ों से सटकर बहती छोटी सी नदी और नदी के उपरी कछार पर बन गए टीले के उपर स्थित एक नामी गाँव ढाबा। ढाबा का मतलब होता है भंडार। मगर यह ढाबा नाम का कोई एक ही गाँव नहीं है इस क्षेत्र में। ढाबा नाम के तीन और गाँव है, अत: पहचान के लिए हर ढाबा के साथ कोई विशेषण जोड़ दिया जाता है। मैं जिस ढाबा का जिक्र कर रहा हूँ उसे इस क्षेत्र में बोकरा ढाबा के नाम से जाना जाता है। बकरी पालन का व्यवसाय खूब फूला फला, इसीलिए होते- होते इसका नाम बोकरा ढाबा प्रचलित हो गया।
छत्तीसगढ़ी में बकरे को बोकरा ही कहते हैं। घर- घर तो यहाँ बकरे पलते हैं। सुबह हुई नहीं कि घरों से बकरों के दलों के साथ छोकरे निकल पड़ते हैं अपने निरापद चरागाह की ओर। इस चरागाह का नाम भी बोकरा डोंगरी है। अब तो गीतों में भी इस डोंगरी का नाम आने लगा है। छत्तीसगढ़ में एक लोकगीत भी प्रचलित है
'चलो जाबो रे
बोकरा चराय बर जी
बोकरा डोंगरी खार मन।
अर्थात चलो साथियों, बोकरा डोंगरी में चले अपने अपने बकरे चराने के लिए आगे वर्णन आता है कि डोंगरी में घास बहुत है। पेड़ों की छाया है। पास में बहती है नदी।
यह बात भी सोची जा सकती है कि गाँव का नाम 'बोकरा ढाबाही क्यों पड़ा। आखिर इस रूप में गाँव की पहचान क्यों बनी -
हुआ यूँ कि काशीराम यादव रोज की तरह अपनी बकरियाँ, भेड़ें लेकर पाँच बरस पहले एक दिन बड़े फज़र निकला डोंगरी की ओर। साथ में उसका पंद्रह बरस का लड़का हीरा भी था। हीरा तालापार के स्कूल में आठवीं तक पढ़कर निठल्ला बैठ गया था। उसके घर में पूंजी के रूप में मात्र तीस बकरियाँ और भेड़ें थीं। बाप बकरी चराकर उसे आठवीं तक ही पढ़ा पाया। स्कूल तो इस क्षेत्र में दस मील दूर एक ही गाँव में था। नदी के उस पार तालापार में वह स्कूल जाता था। ढाबा से सिर्फ दो लड़के अब तक आठवीं पास कर सके हैं। एक यह हीरा, दूसरा समारू। दोनों के बाप बकरी चराते थे। दोनों आठवीं पास करने के बाद खाली बैठ गये। नौकरी लगती तब कुछ और पढ़ लेते। घर की हालत इतनी अच्छी नहीं कि उनके बाप शहर भेजकर उन्हें आगे पढ़ा पाते। इसीलिए वे भी अपने बाप के साथ चल निकलते डोंगरी की ओर।
उस दिन कांशीराम के साथ हीरा भी जा रहा था। आगे- आगे बकरियाँ चर रही थी बकरियों के गले में टुनुन टुनुन बजती घंटियाँ। कुछ बड़ी बकरियों के गले में छोलछोला। एक दो गाय भी थीं। बहुत हरहरी थीं और भागती बहुत थी, इसीलिए उनके पावों में काशी ने लकड़ी का गोडार बाँध दिया था। सब जानवर आगे आगे जा रहे थे। अभी मैदान आया ही था कि दो मोटर साइकिलों से लंबी लंबी मूँछोवाले चार लोग उतरकर खड़े हो गए। उनके हाथें में लाठियाँ थीं एक के हाथ में चिडिय़ाँ मारने की बंदूक भी थी। काशी को रोकरकर एक लम्बे से आदमी ने कहा, 'रूक बे बोकरा खेदा। काशी को उसका यह कथन बुरा तो लगा, मगर वह जान गया कि या तो ये जंगल विभाग के आदमी हैं या पुलिस या फिर पास वाले कस्बे के दारू ठेकेदार के बंदे। हीरा के साथ सहमते हुए काशी उन्हें सलाम कर खड़ा हो गया।
उनमें से एक नौजवान ने कहा, 'भाई मियां, क्या आदमी का शिकार करना है चिडिय़ा तो साली कोई मरी नहीं।
मूँछ वाले ने उसकी बात का मजा लेते हुए कहा, 'यार तुम भी हो अकल के दुश्मन। अरे भाई, आदमी तो यहाँ कोई रहता नहीं। बकरी चराते हैं सब साले। सभी जानवर की तरह हैं। तुम भी यार चश्मा लगाओं आँखों में। यह लंडूरा तुम्हें आदमी दिखता है क्या?’
कहते हुए उसने काशी के हाथ की बाँसुरी छीन ली। हीरा ने अचानक चिल्लाकर कहा, 'बाँसुरी क्यों छीनते हैं हमने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा मुछियल ने एक लात हीरा के कूल्हे पर जमाते हुए कहा,  'तुम क्या बिगाड़ोगे साले  बिगाडऩे के लिए चाहिए दम! अब जो भी बिगाडऩा होगा हम बिगाड़ेंगे।
हीरा मार खाकर जमीन पर गिर गया। उसके मुँह से खून आने लगा। काशी दौड़ पड़ा बेटे को उठाने के लिए। तब तक चारों में से सबसे तगड़े लगने वाले व्यक्ति ने हुकुम दे दिया। 'उठा लो साले के दो बकरे। लौंडा तो लात खाकर सुधर ही गया। चलो डालो रवानगी।
बकरों को जब उन्होंने कँधों पर लादा तो बाप बेटे उनके पीछे दौड़ पड़े। बकरे 'मैं मैंकर अपने चरवाहे मालिकों से आर्तनाद कर छुडा़ लेने का आग्रह करते रह गए। बाप बेटे को दौड़ते देखा तो उन लोगों ने कुछ छर्रे भी बंदूक से चला दिए। काशी के पाँव में छर्रा जा लगा। वह बावला हो गया। उसने उठाकर एक पत्थर पीछे वाले के पीठ पर दे मारा। पत्थर लगते ही वह तिलमिलाकर रूक गया। चारों वहीं मोटर साइकिल रोककर खड़े हो गए। उनमें से एक आदमी ने सबको रूक जाने को कहा और अकेला ही लहकते हुए आगे बढ़ा। उसने एक लम्बा सा चाकू निकाला और एक झटके में काशी के पेट में पूरा घुसा दिया। हीरा बाप से लिपटकर रोने लगा। तब तक और चरवाहे भी आने लगे। हत्यारे बकरों को लादकर भाग गए। उसी रात हीरा के सिर से बाप का साया हट गया।
'बोकरा ढाबामें हुई यह पहली हत्या थी। चारों तरफ शोर उड़ गया कि काशी यादव दिन दहाड़े मार दिया गया। आसपास के गाँवों में बात फैल गई। लोग कुछ दिन तो बोकरा डोंगरी की ओर बकरों के साथ नहीं आए, फिर सब भूल भाल गए।
अब हीरा ही घर का सयाना हो गया। अपनी विधवा माँ और छोटे भाई बसंत का पालनहार। वह बकरियाँ चराता और घर का भार उठाता। साल भर बाद हीरा के गाँव में एक दिन मरे हुए जानवर के शरीर से उठने वाली दुर्गंध भर गई। लोग ओक-ओक करने लगे। सयानों ने बताया कि नदी के किनारे पर यहाँ से दस कोस की दूरी पर एक शराब का कारखाना खुला है। उसमें शराब बननी शुरू हो गई है। तब हीरा को पता चला कि यह जो मरे हुए जानवर के शरीर से उठने वाली गंध से भी बदबूदार गंध गाँव में घुसी है, वह है क्या आखिर। फिर धीरे- धीरे एक और मुसीबत आने लगी। नदी का पानी भी दूषित होने लगा। बहकर जो चमचम चममच पानी आ रहा था वह कुछ- कुछ ललहू हो जाता था, मटमैला। उसका स्वाद भी कुछ कसैला होने लगा। बकरियाँ वह पानी पीकर बीमार होने लगी। कुछ मर भी गईं। आस- पास के गाँव वाले परेशान होने लगे। बोकरा डोंगरी में हलचल कम हो गई। लड़के वहाँ डंडा पचरंगा खेलते, कबड्डी खुडुवा जमाते थे। मगर अब घूम-घामकर ही आ जाते। डोंगरी में लगे जंगली पेड़ों के पत्ते भी झडऩे लगे। त्राहि- त्राहि मचने लगी। गाँववाले अधमरे हो गए। उन्हें कुछ भी न सूझता।
एक दिन हीरा ने देखा, एक जीप में चार पाँच लोग गाँव में आए। उनमें वही मुछियल तगड़ा जवान भी था जिसके छूरे से उसके बाप की जान गई थी। जीप बीच गाँव में रूकी। उस जीप से एक अफसरनुमा व्यक्ति उतरा। अफसर ने कहा, 'पास में हमारा कारखाना है। वहाँ हम आपके गाँव के लोगों को नौकरी देंगे। ये हमारे सुरक्षा अधिकारी हैं। आप जाकर इनसे गेट पर मिलिए। ये आपको भीतर भेज देंगे।इतना कहकर मुछियल को साथ लेकर अफसर जीप में बैठने लगा। हीरा जीप के आगे जाकर बोला, 'रूकिए साहब।
'क्या बात है भाई।अफसर ने कहा।
'मैं हूँ हीरा।
'तुम भी आ जाना।
'मेरे बाप का नाम काशी।
'उन्हें भी लेते आना।
'वो अब नहीं हैं साहब।
'ओ हो, मुझे दुख है।
'दुख नहीं साहब, आपको काहे का दुख। जो लोगों की जान लेता है, वह तो आपका सुरक्षा अधिकारी है। दुख काहे का जो मारे जान, उसे तो आप सिर पर चढ़ाए घुम रहे हैं।
अफसर अब जीप से उतर गया। मुछियल भी सर नवाए जमीन पर आ खड़़ा हुआ।
गाँव के लोग भी जमीन पर आ खड़े हुए। हीरा से सभी बातें सुनकर अफसर ने कहा, 'भाई हीरा, तुम हो हिम्मती नौजवान। हम तुमसे खुश हैं। हम तुम्हें अच्छी नौकरी देंगे। बाप तो अब है नहीं। जो हुआ सो हुआ। अब आगे की सोचो। गुस्से में काम नहीं बनता।
हीरा ने कहा, 'साहब समय से सम्हलना जरूरी है। मुझे वह दिन भूलता नहीं जब इस आदमी ने छूरे से मेरे बाप को मार गिराया था, इसलिए बाप की लाश कंधे से उतरती नहींं है। मुझे लगता है कि धीरे- धीरे पूरा छत्तीसगढ़ उसी तरह जमीन पर गिरकर तड़पेगा, जैसे मेरा बाप तड़पा था। और उसकी लाश पर आप लोग एक के बाद एक कारखाने लगाकर मुँह में मिश्री घोलते हुए कहेंगे कि पीछे की भूलो और आगे बढ़ो। साहब, हम लोग मूरख तो हैं, मगर अंधे नहीं। देख रहे हैं सारा खेल। आँखें हमारी देखने भी लगी हैं साहब। लेकिन आप लोग आँखों में टोपा बाँध रखे हैं।
अब साहब उखड़ गए। उन्होंने कहा, 'लड़के, देख रहा हूँ कि बहुत चढ़ गए हो। बाप की गति देखकर भी सुधार नहीं हुआ है। ऐंठते ही जा रहे हो। फूँक देंगे तो सारा इलाका उजड़ जाएगा।
अफसर अभी बात कर ही रहा था कि मुछियल ने निकाल लिया चाकू और हीरा के हाथ में थी तेंदूसार की लाठी। धाड़ की आवाज हुई और चाकू दूर जा गिरा। मुछियल का हाथ टूटकर झूल गया था। तब तक अफसर ने अपना पिस्तौल निकाल लिया था, मगर उसने देखा कि सैकड़ों नौजवान लाठियों से लैस होकर उसकी ओर 'मारो मारोकहते हुए बढ़ रहे हैं।
मुछियल को जीप में बैठाकर अफसर वहाँ से भागने लगा। हीरा ने झट दौड़कर गिरा हुआ चाकू उठा लिया। खुली हुई जीप थी। सारे बोकरा ढाबा की बकरियाँ इधर उधर बगरकर चर रही थी। गाँव के लोग तो वहीं उलझे खड़े थे।  गाँव टीले पर है इसलिए जीप नीचे की ओर सर्र से भाग रही थी। हीरा को पता नहीं क्या हुआ कि उसने उठाकर चाकू जीप की ओर फेंक दी।
चाकू लगा ठीक ड्राइवर के सिर पर। ड्राइवर का संतुलन बिगड़ गया। गाड़ी उलट- पलट हो गई और देखते ही देखते सवारो के साथ गहरी नदी में जा गिरी। नदी के जल में शराब का मैल घुला हुआ था। अचेत सवार जल के भीतर समाते चले गए।
सम्पर्क:एलआईजी-18, आमदीनगर, हुडको, भिलाईनगर 490009, मो. 9827993494

हिन्दी की यादगार कहानियाँ

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कहानी कला के उस्ताद कमलेश्वर
  कथाकार कमलेश्वर की कहानी जार्ज पंचम की नाक हिन्दी कहानी संसार की अद्भुत प्रस्तुति मानी जाती है। जार्ज पंचम की मूर्ति की टूटी हुई नाक के बहाने कहानीकार ने स्वतंत्र देश के लिए लडऩे वाले महापुरुषों और आजाद देश के बच्चों को जिस तरह याद किया है उससे कहानी में कई दिशाओं की यात्राओं का प्रस्थान बिन्दु पाठक पाता है। आजाद देश के परतंत्र मानस के प्रतिनिधियों की खाल उधेडऩे का करिश्मा भी कमलेश्वर ने इस कहानी में काफी पहले कर दिखाया था। कहानी कला के उस्ताद कमलेश्वर की यह कहानी उनकी सैकड़ों कहानियों में से एक है। कमलेश्वर नई कहानी त्रयी के विलक्षण प्रतिनिधि थे। मध्यमवर्गीय जीवन के अमर शिल्पी कमेश्वर ने मानवीय संबंधों के खोखलेपन पर अपनी कहानियों में बखूबी कटाक्ष भी किया है।
छत्तीसगढ़ से कमलेश्वर को विशेष लगाव था। पं. माधवराव सप्रे की कहानी एक टोकरी भर मिट्टीको हिन्दी की पहली कहानी के रूप में उन्होंने स्थापित किया। साहित्य अकादमी की पहल पर किताबघर से प्रकाशित चार खंडों के ऐतिहासिक दस्तावेज में यह कहानी के रूप में ससम्मान दर्ज है। प्रस्तुत है कथा शिल्पी कमलेश्वर की अद्भुत कहानी जार्ज पंचम की नाक


        जार्ज पंचम की नाक
यह बात उस समय की है जब इंग्लैंड की रानी एलिजाबेथ द्वितीय अपने पति के साथ हिन्दुस्तान पधारने वाली थी। अखबारों में उनके चर्चे हो रहे थे। रोज लंदन के अखबारों से खबरें आ रही थीं कि शाही दौरे के लिए कैसी- कैसी तैयारियां हो रही हैं। रानी एलिजाबेथ का दर्जी परेशान था कि हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और नेपाल के दौरे पर रानी कब क्या पहनेंगी? उनका सेक्रेटरी और शायद जासूस भी उनके पहले ही इस महाद्वीप का तूफानी दौरा करनेवाला था। आखिर कोई मजाक तो था नहीं, जमाना चूंकि नया था, फौज- फाटे के साथ निकलने के दिन बीत चुके थे, इसलिए फोटोग्राफरों की फौज तैयार हो रही थी।
इंग्लैंड के अखबारों की कतरनें हिन्दुस्तानी अखबारों में दूसरे दिन चिपकी नजर आती थीं- कि रानी ने एक ऐसा हल्के रंग का सूट बनवाया है जिसका रेशमी कपड़ा हिन्दुस्तान से मंगाया गया है कि करीब चार सौ पौंड खर्चा उस सूट पर आया है।
रानी एलिजाबेथ की जन्मपत्री भी छपी। प्रिंस फिलिप के कारनामे छपे और तो और उनके नौकरों, बावर्चियों, खानसामों, अंगरक्षकों की पूरी की पूरी जीवनियां देखने में आयीं। शाही महल में रहने और पलनेवाले कुत्तों तक की तस्वीरें अखबारों में छप गयीं...
बड़ी धूम थी, बड़ा शोर- शराबा था, शंख इंग्लैंड में बज रहा था, गूँज हिन्दुस्तान में आ रही थी।
इन अखबारों से हिन्दुस्तान में सनसनी फैल रही थी... राजधानी में तहलका मचा हुआ था। जो रानी पांच हजार रुपए का रेशमी सूट पहनकर पालम के हवाई अड्डे पर उतरेगी, उसके लिए कुछ तो होना ही चाहिए। कुछ क्या, बहुत कुछ होना चाहिए। जिसके बावर्ची पहले महायुद्ध में जान हथेली पर लेकर लड़ चुके हैं, उसकी शान- शौकत के क्या कहने... और वही रानी दिल्ली आ रही है...
नई दिल्ली ने अपनी तरफ देखा और बेसाख्ता मुंह से निकल गया- वह आये हमारे घर, खुदा की रहमत... कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं, और देखते- देखते नई दिल्ली का कायापलट होने लगा।
और करिश्मा तो यह था कि किसी ने किसी से नहीं कहा, किसी ने किसी को नहीं देखा, पर सड़कें जवान हो गयीं, बुढ़ापे की धूल साफ हो गयी। इमारतों ने नाज़नीनों की तरह शृंगार किया।
लेकिन एक बड़ी मुश्किल पेश थी... वह थी जॉर्ज पंचम की नाक।... नई दिल्ली में सब कुछ था, सब कुछ होता जा रहा थासब कुछ हो जाने की उम्मीद थी, पर जॉर्ज पंचम की नाक की बड़ी मुसीबत थी। नई दिल्ली में सब कुछ था... सिर्फ नाक नहीं थी।
इस नाक की भी एक लम्बी दास्तान है। इस नाक के लिए बड़े तहलके मचे थे किसी वक्त। आंदोलन हुए थे। राजनीतिक पार्टियों ने प्रस्ताव पास किए थे। चंदा जमा किया था। कुछ नेताओं ने भाषण भी दिए थे, गर्मागर्म बहसें भी हुई थीं। अखबारों के पन्ने रंग गए थे। बहस इस बात पर थी कि जॉर्ज पंचम की नाक रहने दी जाए या हटा दी जाए। और जैसा कि हर राजनीतिक आंदोलन में होता है- कुछ पक्ष में थे, कुछ विपक्ष में थे और ज्यादातर लोग खामोश थे। खामोश रहने वालों की ताकत दोनों तरफ थी...।
यह आंदोलन चल रहा था। जॉर्ज पंचम की नाक के लिए हथियारबंद पहरेदार तैनात कर दिए गए थे... क्या मजाल कि कोई उनकी नाक तक पहुंच जाए। हिन्दुस्तान में जगह- जगह ऐसी नाकें खड़ी थीं और जिन तक लोगों के हाथ पहुंच गए उन्हें शानो- शौकत के साथ उतारकर अजायबघरों में पहुंचा दिया गया। शाही लाटों की नाकों के लिए गुरिल्ला युद्ध होता रहा।
उसी जमाने में यह हादसा हुआ। इंडिया गेट के सामने वाली जॉर्ज पंचम की लाट की नाक एकाएक गायब हो गयी। हथियार बंद पहरेदार अपनी जगह तैनात रहे, गश्त लगाते रहे... और लाट की नाक चली गई।
रानी आये और नाक न हो। ... एकाएक यह परेशानी बढ़ी। बड़ी सरगर्मी शुरु हुई। देश के खैरख्वाहों की एक मीटिंग बुलायी गयी और मसला पेश किया गया कि क्या किया जाए? ... वहां सभी एकमत से इस बात पर सहमत थे कि अगर यह नाक नहीं है, तो हमारी भी नाक नहीं रह जाएगी...।
उच्च स्तर पर मशविरे हुए। दिमाग खरोंचे गये और यह तय किया गया कि हर हालत में नाक का होना बहुत जरूरी है। यह तय होते ही एक मूर्तिकार को हुक्म दिया गया कि वह फौरन दिल्ली में हाजिर हो।
मूर्तिकार यों तो कलाकार था, पर जरा पैसे से लाचार था, आते ही उसने हुक्कामों के चेहरे देखे... अजीब परेशानी थी उन चेहरों पर - कुछ लटके हुए थे, कुछ उदास थे और कुछ बदहवास थे, उनकी हालत देखकर लाचार कलाकार की आंखों में आंसू आ गये...। तभी एक आवाज सुनाई दी-  मूर्तिकार। जॉर्ज पंचम की नाक लगानी है।
मूर्तिकार ने सुना और जवाब  दिया- नाक लग जाएगी, पर मुझे यह मालूम होना चाहिए कि यह लाट कब और कहां बनी थी? इस लाट के लिए पत्थर कहां से लाया गया था?’
सब हुक्कामों ने एक दूसरे की तरफ ताका... एक की नजर ने दूसरे से कहा कि यह बताना  तुम्हारी जिम्मेदारी है। खैर, मसला हल हुआ, एक क्लर्क  को फोन किया गया और इस बात की पूरी छानबीन करने का काम सुपुर्द कर दिया गया पर कुछ भी पता नहीं चला, क्लर्क ने लौटकर कमेटी के सामने कांपते हुए, बयान किया- सर। मेरी खता माफ हो, फाइलें सब कुछ हजम कर चुकी हैं।
हुक्कामों के चेहरे पर उदासी के बादल छा गये। एक खास कमेटी बनायी गयी और उसके जिम्मे यह काम दे दिया गया कि जैसे भी हो यह काम होना है और इस नाक का दारोमदार आप पर है। आखिर मूर्तिकार को फिर बुलाया गया... उसने मसला हल किया दिया। वह बोला - पत्थर की किस्म का ठीक पता नहीं चलता तो परेशान मत होइए... मैं हिन्दुस्तान के हर पहाड़ पर जाऊंगा और ऐसा ही पत्थर खोजकर लाउंगा।कमेटी के सदस्यों की जान में जान आई। सभापति ने चलते- चलते गर्व से कहा- ऐसी क्या चीज है जो अपने हिन्दुस्तान में मिलती नहीं, हर चीज इस देश के गर्भ में छिपी है ... जरूरत खोज करने की है... खोज करने के लिए मेहनत करनी होगी। आने वाला जमाना खुशहाल होगा।
वह छोटा सा भाषण फौरन अखबारों में छप गया। मूर्तिकार हिन्दुस्तान के पहाड़ी प्रदेशों और पत्थरों की खानों के दौरे पर निकल पड़े। कुछ दिन बाद वह हताश लौटे। उनके चेहरे पर लानत बरस रही थी।
उन्होंने सिर लटकाकर खबर दी - हिन्दुस्तान का चप्पा- चप्पा खोज डाला, पर इस किस्म का पत्थर कहीं नहीं मिला। यह पत्थर विदेशी है।
सभापति ने तैश में आकर कहा- लानत है आपकी अक्ल पर। विदेशों की सारी चीज हम अपना चुके हैं... दिल- दिमाग, तौर- तरीके और रहन- सहन... जब हिन्दुस्तान में बाल डांस तक मिल जाता है तो पत्थर क्यों नहीं मिल सकता।
मूर्तिकार चुप खड़ा था। सहसा उसकी आंखों में चमक आ गयी। उसके कहा, ‘एक बात मैं कहना चाहूंगा, लेकिन इस शर्त पर कि यह बात अखबारवालों तक न पहुंचे...
सभापति की आंखों में भी चमक आई। चपरासी को हुक्म हुआ और कमरे के सब दरवाजे बंद कर दिए गए। तब मूर्तिकार ने कहा- देश में अपने नेताओं की मूर्तियां भी हैं... अगर इजाजत हो... अगर आप लोग ठीक समझें, तो मेरा मतलब है, तो जिसकी नाक इस लाट पर ठीक बैठे, उसे उतार लाया जाए...
सबने सबकी तरफ देखा, सबकी आंखों में एक क्षण की बदहवासी के बाद खुशी तैरने लगी। सभापति ने धीमे से कहा  लेकिन बड़ी होशियारी से।
और मूर्तिकार फिर देश- दौरे पर निकल पड़ा, जॉर्ज पंचम की खोयी हुई नाक का नाप उसके पास था। दिल्ली से वह मुम्बई पहुँचा... दादा भाई नौरोजी, गोखले, तिलक, शिवाजी कावस जी, जहांगीर... सबकी नाके उसने टटोली, नापीं और गुजरात की ओर भागा- गांधीजी, सरदार पटेल, विट्ठलभाई पटेल, महादेव देसाई की मूर्तियां को परखा और बंगाल की ओर चला। गुरु रविन्द्रनाथ, सुभाषचंद्र बोस, राजा राममोहन राय आदि को भी देखा, नाप-जोख की और बिहार की तरफ चला, बिहार होता हुआ उत्तरप्रदेश की ओर आया- चंद्रशेखर आजाद, बिस्मिल, मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय की लाटों के पास गया... घबराहट में मद्रास भी पहुंचा, सत्यमूर्ति को भी देखा और मैसूर- केरल आदि सभी प्रदेशों का दौरा करता हुआ पंजाब पहुंचा। लाला लाजपतराय और भगत सिंह की लाटों से भी सामना हुआ। आखिर दिल्ली पहुंचा और अपनी मुश्किल बयान की- पूरे हिन्दुस्तान की मूर्तियाँ की परिक्रमा कर आया, सबकी नाकों का नाप लिया, पर जॉर्ज पंचम की इस नाक से सब बड़ी निकलीं।
सुनकर सब हताश हो गए और झुंझलाने लगे, मूर्तिकार ने ढांढस बंधाते हुए आगे कहा, सुना था कि बिहार सेक्रेटेरियट के सामने सन बयालीस में शहीद होने वाले तीन बच्चों की मूर्तियां स्थापित हैं। शायद बच्चों की नाक ही फिट बैठ जाए, यह सोचकर वहां भी पहुंचा... पर उन तीनों की नाकें भी इससे कहीं बड़ी बैठती हैं, अब बताइए, मैं क्या करूं?
... राजधानी में सब तैयारियाँ थीं। जार्ज पंचम की लाट को मल- मलकर नहलाया गया था। रोगन लगाया था। सब कुछ था, सिर्फ नाक नहीं थी।
बात फिर बड़े हुक्कामों तक पहुंची। बड़ी खलबली मची-  अगर जार्ज पंचम के नाक न लग पायी तो फिर रानी का स्वागत करने का मतलब? यह तो अपनी नाक कटानेवाली बात हुई।
लेकिन मूर्तिकार पैसे ले लाचार था... यानी हार माननेवाला कलाकार नहीं था। एक हैरतअंगेज खयाल उसके दिमाग में कौंधा और उसने पहली शर्त दुहराई। जिस कमरे में कमेटी बैठी हुई थी, उसके दरवाजे फिर बंद हुए और मूर्तिकार ने अपनी नयी योजना पेश की - चूंकि नाक लगना एकदम जरूरी है, इसलिए मेरी राय है कि चालीस करोड़ में से कोई एक जिंदा नाक काटकर लगा दी जाए...
बात के साथ ही सन्नाटा छा गया। कुछ मिनटों की खामोशी के बाद सभापति ने सबकी तरफ देखा। सबको परेशान देखकर मूर्तिकार कुछ अचकचाया और धीरे से बोला आप लोग क्यों घबराते हैं? यह काम मेरे ऊपर छोड़ दीजिए... नाक चुनना मेरा काम है ... आपकी सिर्फ इजाजत चाहिए।
कानाफूसी हुई और मूर्तिकार की इजाजत दे दी गयी।
अखबारों में सिर्फ इतना छपा कि नाक का मसला हल हो गया है और राजपथ पर इंडिया गेट के पास वाली जार्ज पंचम की लाट के नाक लग रही है।
नाक लगने के पहले फिर हथियारबंद पहरेदारों की तैनाती हुई। मूर्ति के आस- पास का तालाब सुखाकर साफ किया गया। उसकी खाब निकाली गयी और ताजा पानी डाला गया, ताकि जो जिंदा नाक लगायी जाने वाली थी, वह सूखने न पाए, इस बात की खबर औरों को नहीं थी, ये सब तैयारियां भीतर- भीतर चल रही थीं, रानी के आने का दिन नजदीक आता जा रहा था। मूर्तिकार खुद अपने बताए हल से परेशान था। जिंदा नाक के लाने के लिए उसने कमेटीवालों से कुछ और मदद मांगी। वह उसे दी गयी, लेकिन हिदायत के साथ कि एक खास दिन हर हालत में नाक लग जाएगी।
और वह दिन आया।

जार्ज पंचम के नाक लग गयी।
सब अखबारों ने खबरें छापीं कि जार्ज पंचम के जिंदा नाक लगायी गयी है...यानी ऐसी नाक जो कतई पत्थर की नहीं लगती।
लेकिन उस दिन के अखबारों में एक बात गौर करने की थी। उस दिन देश में कहीं भी किसी उद्घाटन की खबर नहीं थी। किसी ने कोई फीता नहीं काटा था। कोई सार्वजनिक सभा नहीं हुई थी। कहीं भी किसी का अभिनंदन नहीं हुआ था। कोई मानपत्र भेंट करने की नौबत नहीं आई थी। किसी हवाई अड्डे या स्टेशन पर स्वागत समारोह नहीं हुआ था। किसी का ताजा चित्र नहीं छपा था।
सब अखबार खाली थे।
पता नहीं ऐसा क्यों हुआ था?
नाक तो सिर्फ एक चाहिेए थी, और वह भी बुत के लिए।

हिन्दी की यादगार कहानियाँ

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यशस्वी रचनाकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'
हिन्दी की यादगार कहानियां शृंखला में इस बार प्रस्तुत है अज्ञेयकी विशिष्ट कहानी....। कहानी, कविता, उपन्यास एवं निबंध विधाओं को समृद्ध करने वाले यशस्वी रचनाकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'.अज्ञेयने तारसप्तक संपादित कर आने वाले समय के बेहद महत्त्वपूर्ण कवियों को रेखांकित कर इतिहास रचा, अल्पभाषी अज्ञेयजी वाद- विवादों की सीमारेखा से ऊपर उठकर प्रतिभा को पहचानने वाले उदार और अत्यंत गुणी संपादक माने जाते हैं। उन्होंने दिनमान जैसी पत्रिका के माध्यम से समकालीन प्रतिभाओं को मंच दिया। उनसे प्रोत्साहन और संरक्षण पाकर तब से संघर्षशील लेखकों में से अनेकों ने विस्तृत आकाश में उडऩे का हौसला पाया। अरे यायावर रहेगा याद, शेखर एक जीवनी, एक बूंद सहसा उछली, जैसी कृतियों के सर्जक के रूप में चर्चित अज्ञेय की कहानी बदलाप्रस्तुत है।

     बदला
अंधेरे डिब्बे में जल्दी- जल्दी सामान ठेल, गोद के आबिद को खिड़की से भीतर सीट पर पटक, बड़ी लड़की जुबैदा को चढ़ा कर सुरैया ने स्वयं भीतर घुस कर गाड़ी के चलने के साथ- साथ लम्बी साँस ले कर पाक परवरदीगार को याद किया ही था कि उसने देखा, डिब्बे के दूसरे कोने में चादर ओढ़े जो दो व्यक्ति आकार बैठे हुए थे, वे अपने मुसलमान भाई नहीं सिख थे! चलती गाड़ी में स्टेशन की बत्तियों से रह- रह कर जो प्रकाश की झलक पड़ती थी, उस में उसे लगा, उन सिखों की स्थिर अपलक आँखों में अमानुषी कुछ है। उन की दृष्टि जैसे उसे देखती है पर उस की काया पर रुकती नहीं, सीधी भेदती हुई चली जाती है, और तेज धार- सा एक अलगाव उनमें है, जिसे कोई छू नहीं सकता, छुएगा तो कट जाएगा! रोशनी इसके लिए काफी नहीं थी, पर सुरैया ने मानो कल्पना की दृष्टि से देखा कि उन आँखों में लाल- लाल डोरे पड़े हैं, और... और... वह डर से सिहर गयी। पर गाड़ी तेज चल रही थी, अब दूसरे डिब्बे में जाना असम्भव था। कूद पडऩा एक उपाय होता, किन्तु उतनी तेज गति में बच्चे- कच्चे लेकर कूदने से किसी दूसरे यात्री द्वारा उठा कर बाहर फेंक दिया जाना क्या बहुत बदत्तर होगा? यह सोचती और ऊपर से झूलती हुई खतरे की चेन के हैंडिल को देखती हुई वह अनिश्चित- सी बैठ गयी... आगे स्टेशन पर देखा जाएगा... एक स्टेशन तक तो कोई खतरा नहीं है कम से कम अभी तक तो कोई वारदात इस हिस्से हुई नहीं...
आप कहाँ तक जाएँगी?’
सुरैया चौंकी। बड़ा सिख पूछ रहा था। कितनी भारी उस की आवाज थी! जो शायद दो स्टेशन के बाद उसे मार कर ट्रेन से बाहर फेंक देगा, वह यहां उसे आपकह कर सम्बोधन करे, इस की विडम्बना पर वह सोचती रह गयी और उत्तर में देर हो गयी। सिख ने फिर पूछा, ‘आप कितनी दूर जाएँगी?’
सुरैया ने बुरका मुँह से उठा कर पीछे डाल रखा था, सहसा उसे मुँह पर खींचते हुए कहा, ‘इटावे जा रही हूं।
सिख ने क्षण- भर सोच कर कहा, ‘साथ कोई नहीं है?’
उस तनिक- सी देर को लक्ष्य करके सुरैया ने सोचा, हिसाब लगा रहा है कि कितना वक्त मिलेगा मुझे मारने के लिए... या रब, अगले स्टेशन पर कोई और सवारियाँ आ जाएँ... और साथ कोई जरूर बताना चाहिए उससे शायद यह डरा रहे! यद्यपि आज- कल के जमाने में वह सफर में साथ क्या जो डिब्बे में साथ न बैठे...कोई छुरा भोंक दे तो अगले स्टेशन तक बैठी रहना कि कोई आ कर खिड़की के सामने खड़ा हो कर पूछेगा, ‘किसी चीज की जरूरत तो नहीं...
उस ने कहा, ‘मेरे भाई हैं... दूसरे डिब्बे में...
आबिद ने चमक कर कहा, ‘कहाँ माँ? मामू तो लाहौर गये
हुए हैं।
सुरैया ने उसे बड़ी जोर से डपट कर कहा, ‘चुप रह!
थोड़ी देर बाद सिख ने फिर पूछा इटावे में आप के अपने लोग हैं?’
हां।
सिख फिर चुप रहा। थोड़ी देर बाद बोला, ‘आपके भाई को आप के साथ बैठना चाहिए था, आज- कल के हालात में कोई अपनों से अलग बैठता है?’
सुरैया मन ही मन सोचने लगी कि कहीं कम्बख्त ताड़ तो नहीं गया कि मेरे साथ कोई नहीं है!
सिख ने मानो अपने- आप से ही कहा, ‘पर मुसीबत में किसी का कोई नहीं है, सब अपने ही अपने हैं...
गाड़ी की चाल धीमी हो गयी। छोटा स्टेशन था। सुरैया असमंजस में बैठी थी कि उतरे या बैठी रहे? दो आदमी डिब्बे में और चढ़ आये सुरैया के मन ने तुरन्त कहा, ‘हिन्दूऔर तब वह सचमुच और भी डर गयी, और थैली- पोटली समेटने लगी।
सिख ने कहा, ‘आप क्या उतरेंगी?’
सोचती हूँ भाई के पास जा बैठूं...क्या जीव है इंसान कि ऐसे मौके पर भी झूठ की टट्टी की आड़ बनाए रखता है...और कितनी झीनी आड़, क्योंकि डिब्बा बदलवाने भाई स्वयं न आता? आता कहाँ से, हो जब न?...
सिख ने कहा, ‘आप बैठी रहिये। यहां आपको कोई डर नहीं है। मैं आप को अपनी बहन समझता हूँ और इन्हें अपने बच्चे...आप को अलीगढ़ तक ठीक- ठीक मैं पहुँचा दूँगा। उस से आगे खतरा भी नहीं है, और वहां से आप के भाई- बंधु भी गाड़ी में आ ही जाएँगे।
एक हिन्दू ने कहा, ‘सरदारजी, जाती है तो जाने दो न, आप को क्या?’
सुरैया न सोच पायी कि सिख की बात को, और इस हिन्दू की टिप्पणी को किस अर्थ में ले, पर गाड़ी ने चल कर फैसला कर दिया। वह बैठ गयी।
हिन्दू ने पूछा, ‘सरदार जी, आप पंजाब से आये हो?’
जी।
कहाँ घर है आप का?’
शेखपुरे में था। अब यहीं समझ लीजिए...
यहीं? क्या मतलब?’
जहाँ मैं हूँ, वही घर है! रेल के डिब्बे का कोना।
हिन्दू ने स्वर को कुछ संयत कर, जैसा गिलास में थोड़ी- सी हमदर्दी उड़ेल कर सिख की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘तब तो आप शरणार्थी हैं...
सिख ने मानो गिलास को जी, मैं नहीं पीताकह कर ठेलते हुए, एक सूखी हँसी हँस कर कहा, जिसकी अनुगूँज हिन्दू महाशय के कान नहीं पकड़ सके, ‘जी।
हिन्दू महाशय ने तनिक और दिलचस्पी के साथ कहा, ‘आपके घर के लोगों पर तो बहुत बुरी बीती होगी...
सिख की आँखों में एक पल के अंश- भर के लिए अँगार चमक गया, पर वह इस दाने को भी चुगने न बढ़ा। चुप रहा। हिन्दू ने सुरैया की ओर देखते हुए कहा, ‘दिल्ली में कुछ लोग बताते थे, वहां उन्होंने क्या- क्या जुल्म किये हैं हिन्दुओं और सिक्खों पर। कैसी- कैसी बातें वे बताते थे, क्या बताऊं, जबान पर लाते शर्म आती है। औरतों को नंगा करके...
सिख ने अपने पास पोटली बन कर बैठे दूसरे व्यक्ति से कहा, ‘काका, तुम ऊपर चढ़ कर सो रहो।स्पष्ट ही वह सिख का लड़का था, और जब उसने आदेश पा कर उठ कर अपने सोलह- सत्रह बरस के छरहरे बदन को अँगड़ाई में सीधा कर ऊपरी बर्थ की ओर देखा, तब उसकी आंखों में भी पिता की आंखों का प्रतिबिम्ब झलक आया। वह ऊपरी बर्थ पर चढ़ कर लेट गया, नीचे सिख ने अपनी टांगें सीधी की और खिड़की से बाहर की ओर देखने लगा।
हिन्दू महाशय की बात बीच में रुक गयी थी, उन्होंने फिर आरम्भ किया, ‘बाप- भाइयों के सामने ही बेटियों- बहनों को नंगा कर के...
सिख ने कहा, ‘बाबू साहब, हमने जो देखा है वह आप हमीं को क्या बताएंगे...इस बार वह अनुगूँज पहले से ही स्पष्ट थी, लेकिन हिन्दू महाशय ने अब भी नहीं सुनी। मानो शह पा कर बोले, ‘आप ठीक कहते हैं...हम लोग भला आप का दु:ख कैसे समझ सकते हैं! हमदर्दी हम कर सकते हैं, पर हमदर्दी भी कैसी जब दर्द कितना बड़ा है यही न समझ पाएं! भला बताइए, हम कैसे पूरी तरह समझ सकते हैं कि उन सिखों के मन पर क्या बीती होगी जिन की आंखों के सामने उन की बहू- बेटियों को...
सिख ने संयम से काँपते हुए स्वर में कहा, ‘बहू- बेटियाँ सब की होती हैं, बाबू साहब।
हिन्दू महाशय तनिक- से अप्रतिभ हुए कि सरदार की बात का ठीक आशय उनकी समझ में नहीं आ रहा। किन्तु अधिक देर तक नहीं बोले, ‘अब तो हिन्दू- सिख भी चेते हैं। बदला लेना बुरा है, लेकिन कहाँ तक कोई सहेगा! इस दिल्ली में तो उन्होंने डट कर मोर्चे लिए हैं, और कहीं कहीं तो ईंट का जवाब पत्थर से देने वाली मसल सच्ची कर दिखाई है। सच पूछो तो इलाज ही यही है। सुना है करोलबाग में किसी मुसलमान डॉक्टर की लड़की को...
अब की बार सिख की वाणी में कोई अनुगूँज नहीं थी, एक प्रकट और रड़कनेवाली रुखाई थी। बोला, ‘बाबू साहब, औरत की बेइज्जती सब के लिए शर्म की बात है। और बहिन...यहाँ सिख सुरैया की ओर मुखातिब हुआ, ‘आप से माफी मांगता हूं कि आप को यह सुनना पड़ रहा है।
हिन्दू महाशय ने अचकचा कर कहा, ‘क्या- क्या- क्या- क्या? मैंने इनसे कुछ थोड़े ही कहा है?’ फिर मानो अपने को कुछ सँभालते हुए, और ढिठाई से कहा, ‘ये आप के साथ हैं?’
सिख ने और भी रुखाई से कहा, ‘जी। अलीगढ़ तक मैं पहुँचा रहा हूं।
सुरैया के मन में किसी ने कहा, ‘यह बेचारा शरीफ आदमी अलीगढ़ जा रहा है! अलीगढ़- अलीगढ़...उस ने साहस कर पूछा, ‘आप अलीगढ़ उतरेंगे?’
हां।
वहाँ कोई हैं आप के?’
मेरा कहां कौन है? लड़का तो मेरे साथ है।
वहाँ कैसे जा रहे है? रहेंगे?’
नहीं, कल लौट आऊँगा।
तो...तफरीहन जा रहे हैं!
तफरीह!सिख ने खोये- से स्वर में कहा, ‘तफरीह?’ फिर सँभल कर, ‘नहीं, हम कहीं नहीं जा रहे अभी सोच रहे हैं कि कहां जाएं और जब टिकाऊ कुछ न रहे तब चलती गाड़ी में ही कुछ सोचा जा सकता है...
सुरैया के मन में फिर किसी ने कोंच कर कहा, ‘अलीगढ़...अलीगढ़...बेचारा शरीफ है...
उसने कहा, ‘अलीगढ़...अच्छी जगह नहीं है। आप क्यों जाते हैं?’
हिन्दू महाशय ने भी कहा, जैसे किसी पागल पर तरस खा रहे हों, ‘भला पूछिए...
मुझे क्या अच्छी और क्या बुरी!
फिर भी आप को डर नहीं लगता? कोई छुरा ही मार दे रात में...
सिख ने मुस्करा कर कहा, ‘उसे कोई नजात समझ सकता है, यह आप ने कभी सोचा है?’
कैसी बातें करते हैं आप!
और क्या! मारेगा भी कौन? या मुसलमान, या हिन्दू। मुसलमान मारेगा, तो जहाँ घर के और सब लोग गये हैं, वहीं मैं भी जा मिलूँगा; और अगर हिन्दू मारेगा, तो सोच लूँगा कि यही कसर वाकी थी देश में जो बीमारी फैली है वह अपने शिखर पर पहुँच गयी और अब तन्दुरुस्ती का रास्ता शुरू होगा।
मगर भला हिन्दू क्यों मारेगा? हिन्दू लाख बुरा हो, ऐसा काम नहीं करेगा...
सरदार को एकाएक गुस्सा चढ़ आया, उसने तिरस्कारपूर्वक कहा, ‘रहने दीजिए, बाबू साहब! अभी आप ही जैसे रस ले- ले कर दिल्ली की बातें सुना रहे थे अगर आप के पास छुरा होता और आप को अपने लिए खतरा न होता, तो आप क्या अपने साथ बैठी सवारियों को बंख्श देते? इन्हें या मैं बीच में पड़ता तो मुझे?’ हिन्दू महाशय कुछ बोलने को हुए पर हाथ के अधिकारपूर्ण इशारे से उन्हें रोकते हुए सरदार कहता गया, ‘अब आप सुनना ही चाहते हैं तो सुन लीजिए कान खोल कर। मुझसे आप हमदर्दी दिखाते हैं कि मैं आपका शरणार्थी हूँ। हमदर्दी बड़ी चीज है, मैं अपने को निहाल समझता, अगर आप हमदर्दी देने के काबिल होते। लेकिन आप मेरा दर्द कैसे जान सकते हैं, जब आप उसी साँस में दिल्ली की बातें ऐसे बेदर्द ढंग से करते हैं? मुझसे आप हमदर्दी कर सकते होते उतना दिल आप में होता तो जो बातें आप सुनाना चाहते हैं, उनसे शर्म के मारे आपकी जबान बन्द हो गयी होती, सिर नीचा हो गया होता! औरत की बेइज्जती औरत की बेइज्जती है, वह हिन्दू या मुसलमान की नहीं, वह इंसान की मां की बेइज्जती है। शेखपुरे में हमारे साथ जो हुआ सो हुआ मगर मैं जानता हूँ कि उसका मैं बदला कभी नहीं ले सकता हूँ क्योंकि उसका बदला हो ही नहीं सकता। मैं बदला दे सकता हूँ और वह यही, कि मेरे साथ जो हुआ है, वह और किसी के साथ न हो। इसीलिए दिल्ली और अलीगढ़ के बीच इधर और उधर लोगों को पहुँचता हूँ, मेरे दिन भी कटते हैं और कुछ बदला चुका भी पाता हूँ, और इसी तरह, अगर कोई किसी दिन मार देगा तो बदला पूरा हो जाएगा चाहे मुसलमान मारे, चाहे हिन्दू! मेरा मकसद तो इतना है कि चाहे हिन्दू हो, चाहे सिख हो, चाहे मुसलमान हो, जो मैंने देखा है वह किसी को न देखना पड़े, और मरने से पहले मेरे घर के लोगों की जो गति हुई, वह परमात्मा न करे किसी की बहू- बेटियों को देखनी पड़े।
इस के बाद बहुत देर तक गाड़ी में बिलकुल सन्नाटा रहा। अलीगढ़ के पहले जब गाड़ी धीमी हुई, तब सुरैया ने बहुत चाहा कि सरदार से शुक्रिया के दो शब्द कह दे, पर उसके मुँह से भी बोल नहीं निकला।
सरदार ने ही आधे उठ कर ऊपर के बर्थ की ओर पुकारा, ‘काका, उठो, अलीगढ़ आ गये है।फिर हिन्दू महाशय की ओर देख कर बोला, ‘बाबू साहब, कुछ कड़ी बात कह गया हूँ तो माफ करना, हम लोग तो आप की सरन हैं!
हिन्दू महाशय की मुद्रा से स्पष्ट दिखा कि वहाँ वह सिख न उतर रहा होता तो स्वयं उतर कर दूसरे डिब्बे में जा बैठते।  

हिन्दी की यादगार कहानियाँ

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भुवनेश्वर की एक गुमनाम कहानी
भुवनेश्वर का जन्म 1910 उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ था। एक प्रतिष्ठित वकील का पुत्र होने के बावजूद उनका जीवन अर्थाभाव में बीता। भुवनेश्वर की माँ बचपन में ही गुजर गई थी। इसके कारण उनको घर में घोर उपेक्षा झेलनी पड़ी। कम उम्र में घर छोड़कर वे इलाहबाद आ गए। शाहजहांपुर में महज इंटरमीडिएट तक पढ़े भुवनेश्वर को अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान था। उन्हें एकांकी का जनक माना जाता है, किन्तु उन्हें प्रसिद्धि मिली अपनी कहानी भेडिय़ेसे। उनके लेखन के बारे में तरह- तरह की किवदंतियां फैलने लगी, कहा गया कि उनके नाटकों पर जॉर्ज बर्नार्ड शा तथा डी. एच. लॉरेंस का प्रभाव है और उनकी कहानी भेडिय़ेपर जैक लंडन के कॉल ऑफ वाइल्डकी छाया देखी गई। भुवनेश्वर के जन्म-शताब्दी के साल में उनकी एक लगभग गुमनाम कहानी मास्टरनीप्रस्तुत है। 1938 में प्रकाशित यह अपने समय की रचनाओं से अलग संवेदना से भरी कहानी है।

     मास्टरनी

उसरोज सुबह से पानी बरस रहा था। साँझ तक वह पहाड़ी बस्ती एक अपार और पीले धुंधलके में डूब सी गई थी। छिपे हुए सुनसान रास्ते, बदनुमा खेत, छोटे- छोटे एकरस मकान- सब उसी पीली धुंध के साथ मिलकर जैसे एकाकार हो गए थे।
औरतें घरों के दरवाजे बंद किये सूत सुलझा रही थीं। आदमी पास के एक गांव में गए थे। वहाँ मिशन का एक क्वार्टर था और एक भट्टी। वाकई, वहां बारिश की धीमी, एकरस और मुलायम छपाछप के कोई और आवाज नहीं आ रही थी।
चार बजने से कुछ ही मिनट पहले एक कॉटेज का दरवाजा खुला। यह कॉटेज मामूली मकानों से भी नीची और छोटी थी। उसके चरमराते हुए लकड़ी के जीने से पाँच- छह लड़के- लड़कियाँ उतरकर, बूढ़े किसानों की तरह झुककर, अपने बस्तों से बारिश बचाते, चुपचाप घुमावदार रास्ते पर चलकर आँखों से ओझल हो गए। जब तक वह दिखलाई देते रहे, उनकी मास्टरनी तनी हुई चुपचाप खड़ी उसी ओर देखती रही। फिर वह दरवाजे को मजबूती और अवज्ञा से बंद करके भीतर चली गई।
वह एक अधेड़ इसाई औरत थी- कठिन और गंभीर। दो साल पहले इसाईयों के इस गाँव में आकर, एक हिन्दुस्तानी मिशनरी की मदद से उसने यह स्कूल खोला था। इन दो सालों में उसका चेहरा और भी लम्बा, और भी पीला और स्वाभाव और भी चिड़चिड़ा हो गया था। गाँव में रहते हुए भी वह गाँव से जैसे अलग थी। स्त्रियाँ उससे डरती थीं मर्द उसको एक मर्दानी अवज्ञा से देखते थे।
आज के इतने नीले- नीले पहाड़ों और इस घने धुँध के सामने वह काँप सी उठी और दिन भर अपने दोनों हाथों को बगल में इधर- उधर फिराती रही।
इसके बाद बस्ती फिर सुनसान हो गई। सिर्फ एक बार मास्टरनी ने अपना द्वार खोलकर झाँका और फिर तुरंत ही बंद कर लिया।
करीब छह बजे जब धुँध का पीलापन पहाड़ों के साथ नीला हो रहा था, आखिरकार बस्ती में एक मानव दिखाई दिया। लम्बा रोगी सा एक सोलह- सत्रह साल का लड़का। पुराना फौजी कोट पहने था। कालर के बाहर उसने अपनी मैली कमीज निकाल रखी थी। कीचड़ बचाने के लिए वह सड़क के इस तरफ से उस तरफ मेंढकों की तरह फुदक रहा था। लकड़ी के जीने पर आकर उसने संतोष की साँस ली और एक भीगे कुत्ते की तरह अपने आपको झाड़कर जीने पर चढ़ गया।
लूसी बहन, बड़ा अँधेरा है।पास आते ही वह चिल्ला उठा था। टूटू।मास्टरनी ने अपने हाथ  छोड़कर कहा और और फिर धीरे- धीरे चलकर छत से टंगी हुई लालटेन जला दी।  उस छोटे से गंदे और अँधेरे कमरे में रौशनी लालटेन से खून की तरह बहने लगी।
इस बीच टूटू बारिश और रास्ते पर भुनभुनाकर अपने बड़े और भारी कोट को टांगने की जगह खोज रहा था।
मैं कहता हूँ, तुम्हारे पास कोई कपड़ा है-  कम्बल का टुकड़ा- उकड़ा। मैं जूते साफ करूँगा।
मास्टरनी ने चुपचाप झुककर उसके जूते साफ कर दिए। टूटू बराबर अपने जूतों की तरफ देखता हुआ नहीं- नहींकह रहा था।
मास्टरनी ने वैसे ही झुके- झुके पूछा, ‘घर पर सब अच्छे हैं।’ 
मेरे पास तुम्हारे लिए सैकड़ों खत हैं, सिर्फ मुरली तुमसे खफा है। तुमने उसके मोजे खूब बुने। वह जाड़े से नीली पड़ी जा रही है।
उसने अपनी बहिन को खत दे दिया और रौशनी के पास जाकर अपने भींगे बालों पर हाथ फेरने लगा। बीच- बीच में वह कुछ बुदबुदा उठता था। मास्टरनी पत्रों से सिर उठाकर उसकी तरफ देखती और फिर पढऩे लग जाती थी।
अब उसने खत एक ओर रखकर इस सोलह साल के लम्बे- चिकने युवक की तरफ देखना और उसके बारे में सोचना शुरू कर दिया। वह उसके बिल्कुल बचपन के बारे में सोचने लगी। जबकि उसके गरम मुलायम जिस्म को चिपटाकर वह एक पके हुए फल की तरह हो जाती थी।
तुम खत नहीं पढ़ रही हो’, उसने सहसा घूमकर कहा।
पढ़ लिया।
उसका भाई खड़ा- खड़ा उसकी तरफ देखता रहा और फिर यह देखकर कि वह खत पढ़ चुकी है, बुदबुदा सा उठा, ‘मुरली के मोजे। और मम्मी ने कहा है...
मास्टरनी ने जैसे चाकू से काटा, ‘और पापा कैसे हैं।
टूटू ने भांडों सा मुँह बनाकर कहा- वैसे ही।
पापा रोगी, परित्यक्त, उपेक्षित-  उसे कभी भी न लिखते थे और इसीलिए उससे कुछ माँगते भी न थे।
तुम क्या करते हो।
मैं- मैं रोज सवेरे- शाम पादरी तिवारी के साथ काम करता हूँ। मम्मी जान ले लें अगर मैं काम न करूँ। मुरली और मम्मी झमकती फिरती हैं।
तुम मर्द हो’, उसकी बहिन ने जैसे स्वप्न में कहा और फिर वह वैसे ही टहलने लगी।
मैं दो साल में पादरी हो जाऊंगा’, टूटू ने कुछ गर्व और दिल्लगी से कहा।
कुछ देर वह दोनों चुप रहे। मास्टरनी ने एक संदूक पर बैठकर जल्दी- जल्दी बुनना शुरू कर दिया। बीच- बीच में एक अजीब और कड़वी मुस्कान उसके पीले और दागदार होंठों पर छा जाती थी।
टूटू एन उसी वक्त अपने चारों ओर के गंदे कमरे की टूटी कुर्सियों और मैले तकिये की ओर देखकर बार- बार सहम जाता था।
यह क्या। मुरली की स्टोकिंग है।
देखते नहीं हो’, और मास्टरनी चौंक सी उठीं।
जबसे वह यहाँ आया था, टूटू का मन भीगते हुए कम्बल की तरह हर मिनट भारी होता जा रहा था। वह अपनी बहिन, अपने घर के बारे में इस तरह सोच रहा था जैसे वह दूरबीन से नए नक्षत्र देख रहा हो।
किसी के पैरों का जीने पर शोर हुआ। दो छोटी- छोटी लड़कियाँ हाथ पकड़े हुए अंदर आई। वह गबरून की ऊँचे- ऊँचे फ्राकें पहने थीं और उनके चेहरों पर किसानों की सी झुलस थी।
उनमें से बड़ी लड़की ने खाट पर एक मैली तामचीनी की प्लेट रख दी। उस पर एक लाल रुमाल पड़ा था। फिर अपनी छोटी बहन का हाथ पकड़कर वह खड़ी हो गई।
तुम क्या प्लेट चाहती हो?’
दोनों लड़कियों ने एक साथ सिर हिलाकर कहा, ‘हाँ।
उसने उठकर उसमें से चार अंडे और अधपके टमाटर और एक सस्ता पीतल का बूच निकाल लिया।
अपने बाप से कहना कि टीचर ने कहा है-  हाँऔर उसने खड़े होकर फिर दोनों हाथ बगलों में भींच लिए।
लड़कियाँ चुपचाप जैसे आई थीं वैसे ही चली गईं।
टूटू उनको बराबर एक विचित्र दिलचस्पी से देखता रहा। उनके जाने पर वह खिड़की की तरफ मुँह करके बोला, ‘तुम चाय नहीं पीती लूसी बहिन।
मास्टरनी एकाएक बीच कमरे में खड़ी हो गई।
सुनो, यह पाँच रुपये हैं, और यह मुरली का स्टोकिंग और यह मम्मी का सिंगारदान। और कहना कि कोई मुझसे और कुछ न माँगे। सब मर जाएँ, गिरजे में जा पड़ें।
पागलों की तरह दो छोटे- छोटे और सिकुड़े हाथों से रुपये, स्टोकिंग और सिंगारदान का अभिनय कर रही थी और बोल ऐसे रही थी जैसे उसका सारा खून जम रहा हो।
टूटू ने बड़ी पीड़ा से कहा, ‘लूसी बहिन।
मेरे पास कुछ नहीं है-  कुछ नहीं है। तुम मेरा घर झाड़ लो।और उसने खिड़की धमाके से बंद कर दी।
मास्टरनी अपने पलंग पर जाकर बैठ गई। उसके दोनों हाथ उसकी पत्तियों को जकड़े थे। आज सारी जिंदगी के छोटे- बड़े घाव अचानक चसक उठे थे। कुछ सोचने की ताब उसमें न थी।
बाहर से किसी ने भर्राई हुई आवाज में कहा, ‘टीचर मैं आ सकता हूँ।
टूटू उस तरफ बढ़ा। पर घृणा से दौड़ते हुए मास्टरनी ने दरवाजा आधा खोल, बाहर जा बंद कर लिया। टूटू ने उसकी झलक ही देखी थी। वह एक बुझे हुए चेहरे का अधेड़ किसान था-  ऐसे जैसे संडे को गिरजों में टोपियां उतारकर भीख मांगते हैं।
एक मिनट में मास्टरनी लौट आई। उसका चेहरा पहले से भी सख्त था। उसने टूटू को देखकर उधर से मुंह फेर लिया और अपने आप बुदबुदाकर कहा-
मैं ही क्यों... तुमसे मुझे कोई सरोकार नहीं-  तुम लोगों से मैं पूछती हूँ...
और वह हथेलियों को बगलों में भींचकर और तेजी से टहलने लगी।
मैं जैसे जिंदा दफन हो गई हूँ। पर मुझे कब्र की शांति दे दो।वह वाकई हाथ फैलाकर शांति माँग रही थी।
टूटू गुमसुम बैठा हुआ रौशनी को घूर रहा था। सहसा उसने टूटू का हाथ पकड़ लिया।
जाओ, सोओ।
टूटू ने आज्ञा का पालन किया।
मास्टरनी वैसे ही टहल रही थी। फिर चूर होकर उसी चारपाई पर गिर पड़ी।
टूटू आखिर चुप हो रहा। कमरे में सन्नाटा छा गया था।
केवल दूर- दूर पर रात के पोर वो पहरेदारों... के विचित्र स्वर चारों तरफ पहाड़ों से टकराकर इस कमरे में गिर- गिर पड़ते थे। 

हिन्दी की यादगार कहानियाँ

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युगप्रवर्तक साहित्यकार          गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर
विलक्षण व्यक्तित्व के धनी, बहुआयामी कलाकार और युगप्रवर्तक साहित्यकार हैं गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर। देश और विदेश में उनके मूल्यवान साहित्य पर लगातार चर्चा, परिचर्चा, शोध, संगोष्ठी के माध्यम से उन्हें पुन: जानने का प्रयास उनके पाठक कर रहे हैं। वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार हैं। उनकी कृतियों को हिन्दी जगत ने कुछ इस तरह आत्मसात किया है कि वे हिन्दी के महान लेखक लगते हैं। काबुलीवाला उनकी बेहद चर्चित कहानी है। इस कहानी पर यादगार फिल्म भी बनी। गुरुदेव को श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए हम यादगार कहानियों में उनकी अमर कहानी काबुलीवाला प्रकाशित कर रहे हैं। आशा है हमारे सुधि पाठक हमारे इस प्रयास को पसंद करेंगे।

      काबुलीवाला
मेरी पाँच बरस की लड़की मिनी से पल- भर भी बात किए बिना नहीं रहा जाता। दुनिया में आने के बाद भाषा सीखने में उसे सिर्फ एक ही वर्ष लगा होगा। उसके बाद से जितनी देर सो नहीं पाती हैं, उस समय का एक पल भी वह चुप्पी में नहीं खोती। उसकी माता बहुधा डाँट- फटकार कर उसकी चलती हुई जबान बन्द कर देती हैं, लेकिन मुझसे ऐसा नहीं होता। मिनी का मौन मुझे ऐसा अस्वाभाविक- सा प्रतीत होता है कि मुझसे वह अधिक देर तक नहीं सहा जाता और यही कारण हैं कि मेरे साथ उसके भावों का आदान- प्रदान कुछ अधिक उत्साह के साथ होता रहा है।
सवेरे मैंने अपने उपन्यास के सत्रहवें अध्याय में हाथ लगाया ही था कि इतने में मिनी ने आकर कहना आरम्भ कर दिया - बाबूजी! रामदयाल दरबान काकको कौआकहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी।विश्व की भाषाओं की विभिन्नता के विषय में मेरे कुछ बताने से पहले ही उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया-  बाबूजी! भोला कहता था, आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ बोलता है, है न? खाली बक- बक किया करता हैं, दिन- रात बकता रहता है।
इस विषय में मेरी राय की तनिक भी राह न देख करके, चट से धीमें स्वर में एक जटिल प्रश्न कर बैठी- बाबूजी! माँ तुम्हारी कौन लगती हैं?’
फिर उसने मेरी मेज के पाश्र्व में पैरों के पास बैठकर अपने दोनों घुटने और हाथों को हिला-  हिलाकर बड़ी शीघ्रता से मुँह चलाकर अटकन- बटबन दही चटाकनकहना आरम्भ कर दिया। जबकि मेरे उपन्यास के अध्याय में प्रताप सिंह उस समय कंचन माला को लेकर रात्रि के प्रगाढ़ अंधकार में बंदीगृह के ऊँचें झरोखे से नीचे कलकल करती हुई सरिता में कूद रहे थे।
मेरा घर सड़क के किनारे पर था। अचानक मिनी अपने अटकन- चटकन को छोड़कर खिड़की के पास दौड़ गई और जोर- जोर से चिल्लाने लगी, ‘काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!
मैले- कुचले ढीले कपड़े पहने, सिर पर कुल्ला रखे, उस पर साफा बाँधे कँधे पर सूखे फलों की झोली लटकाए, हाथ में चमन के अँगूरों की कुछ पिटारियाँ लिए, एक लम्बा- तगड़ा सा काबुली मन्द चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देख कर मेरी छोटी- सी बेटी के हृदय में कैसे भाव उदय हुए यह बताना असम्भव हैं। उसने जोर से पुकारना शुरु किया। मैंने सोचा - अभी झोली कन्धे पर डाले, सिर पर एक मुसीबत आ खड़ी होगी और मेरा सत्रहवाँ अध्याय आज अधूरा रह जाएगा।
किन्तु मिनी के चिल्लाने पर ज्यों ही काबुली ने हँसते हुए उसकी ओर मुँह फेरा और घर की ओर बढऩे लगा, त्यों ही मिनी भय खाकर भीतर भाग गई। फिर पता ही नहीं लगा कि कहाँ छिप गई? उसके छोटे से मन में यह अन्धविश्वास बैठ गया था कि उस मैली- कुचैली झोली के अंदर ढूढऩे पर उस जैसी और भी जीती जागती बच्चियाँ निकल सकती हैं।
इधर काबुली ने आकर मुस्कराते हुए, मुझे हाथ उठाकर अभिवादन किया और खड़ा हो गया। मैंने सोचा- वास्तव में प्रताप सिंह और कंचन माला की दशा अत्यन्त संकटापन्न हैं, फिर भी घर में बुलाकर इससे कुछ न खरीदना अच्छा न होगा।
कुछ सौदा खरीदा गया। उसके बाद मैं उससे इधर- उधर की बातें करने लगा। रहमत, रूस, अंग्रेज, सीमान्त रक्षा के बारे में गप- शप होने लगी।
अन्त में उठकर जाते हुए उसने अपनी मिली- जुली भाषा में पूछा-  बाबूजी! आप की बच्ची कहाँ गई?’
मैंने मिनी के मन से व्यर्थ का भय दूर करने के अभिप्राय से उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे बिल्कुल लगकर काबुली के मुख और झोली की ओर सन्देहात्मक दृष्टि डालती हुई खड़ी रही। काबुली ने झोली से किशमिश और खुबानी निकालकर देनी चाही, परन्तु उसने न ली और दुगने सन्देह के साथ मेरे घुटनों से लिपट गई। उसका पहला परिचय इस तरह हुआ।
इस घटना के कुछ दिन बाद एक दिन सवेरे मैं किसी आवश्यक कार्यवश बाहर जा रहा था। देखूँ तो मेरी बिटिया दरवाजे के पास बैंच पर बैठकर काबुली से हँस- हँस कर बातें कर रही है और काबुली उसके पैरों के समीप बैठा- बैठा मुसकराता हुआ, उन्हें ध्यान से सुन रहा है। और बीच- बीच में अपनी राय मिली- जुली भाषा में व्यक्त करता जाता हैं। मिनी को अपने पाँच वर्ष के जीवन में बाबूजी के सिवाय, ऐसा धैर्य वाला श्रोता शायद ही कभी मिला हो। देखो तो उसकी फ्रॉक का अग्रभाग बादाम- किशमिश से भरा हुआ था। मैंने काबुली से कहा, ‘इसे यह सब क्यों दे दिया? अब कभी मत देना।
यह कहकर कुर्ते की जेब में से एक अठन्नी निकालकर उसे दी। उसने बिना किसी हिचक के अठन्नी लेकर अपनी झोली में रख ली।
कुछ देर बाद, घर लौटकर देखता हूँ कि उस अठन्नी ने बड़ा उपद्रव खड़ा कर दिया हैं।
मिनी की माँ एक सफेद चमकीला गोलाकर पदार्थ हाथ में लिए डाँट- फटकार कर मिनी से पूछ रही थी- तूने यह अठन्नी पाई कहाँ से, बता?’
मिनी ने कहा- काबुली वाले ने दी हैं।
काबुली वाले से तूने अठन्नी ली कैसे, बता?’
मिनी ने रोने का उपक्रम करते हुए कहा-  मैने माँगी नहीं थी, उसने आप ही दी हैं।
मैंने जाकर मिनी की उस अकस्मात मुसीबत से रक्षा की और उसे बाहर ले आया। मालूम हूआ कि काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी ही भेंट थी, सो कोई विशेष बात नहीं। इस दौरान वह रोज आता रहा। और पिस्ता- बादाम की रिश्वत दे- देकर मिनी के छोटे से ह्रदय पर बहुत अधिकार कर लिया था।
देखा कि इस नई मित्रता में बँधी हुई बातें और हँसी ही प्रचलित हैं। जैसी मेरी बिटिया, रहमत को देखते ही, हँसते हुए पूछती- काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले! तुम्हारी झोली के भीतर क्या है?’
काबुली जिसका नाम रहमत था। एक अनावश्यक चन्द्र- बिन्दु जोड़कर मुस्कराता हुआ कहता, ‘हाथी।
उसके परिहास का रहस्य क्या हैं? यह तो नहीं कहाँ जा सकता, फिर भी इन नये मित्रों को इससे तनिक विशेष खेल- सा प्रतीत होता है और जाड़े के प्रभात में एक सयाने और एक बच्ची की सरल हँसी सुनकर मुझे भी बड़ा अच्छा लगता।
उन दोनों मित्रों में और भी एक- आध बात प्रचलित थी। रहमत मिनी से कहता, ‘तुम ससुराल कभी नहीं जाना, अच्छा?’
हमारे देश की लड़कियाँ जन्म से ही ससुरालशब्द से परिचित रहती हैं, लेकिन हम लोग तनिक कुछ नई रोशनी के होने के कारण तनिक- सी बच्ची को ससुराल के विषय में विशेष ज्ञानी नहीं बना सके थे, अत: रहमत का अनुरोध वह स्पष्ट नहीं समझ पाती थी। इस पर भी किसी बात का उत्तर दिए बिना चुप रहना उसके स्वभाव के बिल्कुल विरुद्ध था। उलटे वह रहमत से ही पूछती, ‘तुम ससुराल कब जाओगे?’
रहमत काल्पनिक ससुर के लिए अपना जबरदस्त घूँसा तानकर कहता, ‘हम ससुर को मारेगा।
सुनकर मिनी ससुरनामक किसी अनजाने जीव की दुरावस्था की कल्पना करके खूब हँसती।
देखते- देखते जाड़े की सुहावनी ऋतु आ गयी। पूर्व युग में इसी समय राजा लोग दिग्विजय के लिए कूच करते थे। मैं कोलकाता छोड़कर कभी कहीं नहीं गया। शायद इसीलिए मेरा मन ब्राह्मांड में घूमा करता था। यानी, कि मैं अपने घर में ही चिर प्रवासी हूँ। बाहरी ब्रह्मांड के लिए मेरा मन सर्वदा आतुर रहता था। किसी विदेश का नाम आगे आते ही मेरा मन वहीं की उड़ान लगाने लगता हैं। इसी प्रकार किसी विदेशी को देखते ही तत्काल मेरा मन सरिता- पर्वत- बीहड़ वन के बीच में एक कुटीर का दृश्य देखने लगता हैं और एक उल्लासपूर्ण स्वतंत्र जीवनयात्रा की   बात कल्पना में जाग उठती हैं।
इधर देखा तो मैं ऐसी प्रकृति का प्राणी हूँ, जिसका अपना घर छोड़कर बाहर निकलने में सिर कटता हैं। यही कारण हैं कि सवेरे के समय अपने छोटे- से कमरे में मेज के सामने बैठकर उस काबुली से गप- शप लड़ाकर बहुत कुछ भ्रमण कर लिया करता हूँ। मेरे सामने काबुल का पूरा चित्र खिंच जाता। दोनों ओर ऊबड़- खाबड़, लाल- लाल ऊँचे दुर्गम पर्वत हैं और रेगिस्तानी मार्ग, उन पर लदे गुए ऊँटों की कतार जा रही हैं। ऊँचे- ऊँचे साफे बाँधे हुए सौदागर और यात्री कुछ ऊँट की सवारी पर हैं तो कुछ पैदल है जा रहे हैं। किसी के हाथों में बरछा हैं तो कोई बाबा आदम के जमाने की पुरानी बन्दूक थामें हुए हैं। बादलों की भयानक गर्जन के स्वर में काबुल लोग अपनी मिली- जुली भाषा में अपने देश की बातें कर रहें हैं।
मिनी की माँ बड़ी वहमी स्वभाव की थी। राह में किसी प्रकार का शोर- गुल हुआ नहीं कि उसने समझ लिया कि संसार- भर के सारे मस्त शराबी हमारे ही घर की ओर दौड़े आ रहे हैं? उसके विचारों में यह दुनिया इस छोर से उस छोर तक चोर- डकैत, मस्त, शराबी, साँप, बाघ, रोगों, मलेरिया, तिलचट्टे और अंग्रेजों से भरी पड़ी हैं। इतने दिन हुए इस दुनिया में रहते हुए भी उसके मन का यह रोग दूर नहीं हुआ।
रहमत काबुली की ओर से भी वह पूरी तरह निश्चिंत नहीं थी। उस पर विशेष नजर रखने के लिए मुझसे बार- बार अनुरोध करती रहती। जब मैं परिहास के आवरण से ढकना चाहता तो मुझसे एक साथ कई प्रश्न पूछ बैठती- क्या अभी किसी का लड़का नहीं चुराया गया? क्या काबुल में गुलाम नहीं बिकते? क्या एक लम्बे- तगड़े काबुली के लिए एक छोटे बच्चे को उठा ले जाना असम्भव हैं?’ इत्यादि।
मुझे मानना पड़ता कि यह बात नितांत असम्भव हो सो बात नहीं, परन्तु भरोसे के काबिल नहीं। भरोसा करने की शक्ति सब में समान नहीं होती, अत: मिनी की माँ के मन में भय ही रह गया, परन्तु केवल इसीलिए बिना किसी दोष के रहमत को अपने घर में आने से मना न कर सका।
हर वर्ष रहमत माघ महीने में अपने देश लौट जाता था। इस समय वह अपने व्यापारियों से रुपया- पैसा वसूल करने में तल्लीन रहता। उसे घर- घर, दुकान- दुकान घूमना पड़ता था, मगर फिर भी मिनी से उसकी भेंट एक बार अवश्य हो जाती हैं। देखने में तो ऐसा प्रतीत होता हैं कि दोनों के मध्य किसी षड्यंत्र का श्रीगणेश हो रहा हो। जिस दिन वह सवेरे नहीं आ पाता, उस दिन देखूँ तो वह संध्या को हाजिर हैं। अन्धेरे में घर के कोने में उस ढीले- ढाले जामा- पाजामा पहने, झोली वाले लम्बे- तगड़े आदमी को देखकर सचमुच ही मन में अचानक भय- सा पैदा हो जाता है।
लेकिन, जब देखता हूँ कि मिनी ओ काबुलीवालापुकारते हुए हँसती- हँसती दौड़ी आती है और दो भिन्न आयु के असम मित्रों में वही पुराना हास- परिहास चलने लगता है, तब मेरा सारा हृदय खुशी से नाच उठता है।
एक दिन सवेरे मैं अपने छोटे कमरे में बैठा नई पुस्तक के प्रूफ देख रहा था। जाड़ा विदा होने से पूर्व, आज दो- तीन दिन से खूब जोर से अपना प्रकोप दिखा रहा है। जिधर देखो, उधर इस जाड़े की ही चर्चा हो रही है। ऐसे जाड़े- पाले में खिड़की में से सवेरे की धूप मेज के नीचे मेरे पैरों पर आ पड़ी। उसकी गर्मी मुझे अच्छी प्रतीत होने लगी। लगभग आठ बजे का समय होगा। सिर से मफलर लपेटे ऊषा चरण सवेरे की सैर करके घर की ओर लौट रहे थे। ठीक उसी समय एक बड़े जोर का शोर सुनाई दिया।
देखो तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। उसके पीछे बहुत से तमाशाई बच्चों का झुंड चला आ रहा है। रहमत के ढीले- ढीले कुरते पर खून के दाग हैं और सिपाही के हाथ में खून से लथपथ छुरा। मैंने द्वार से बाहर निकलकर सिपाही को रोक लिया और पूछा-  क्या बात है?’
कुछ सिपाही से और कुछ रहमत के मुँह से सुना कि हमारे पड़ोस में रहने वाले एक आदमी ने रहमत से एक रामपुरी चादर खरीदी थी। उसके कुछ रुपए उसकी ओर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने साफ इनकार कर दिया। बस, इसी पर दोनों में बात बढ़ गई और रहमत ने उसे छुरा निकालकर घोंप दिया। रहमत उस झूठे बेईमान आदमी के लिए भिन्न- भिन्न प्रकार के अपशब्द सुना रहा था। इतने में काबुलीवाला, काबुलीवाला’, पुकारती हुई मिनी घर से निकल आई।
रहमत का चेहरा क्षण- भर में कौतुक हास्य से चमक उठा।  उसके कन्धे पर आज झोली नहीं थी, अत: झोली के बारे में दोनों मित्रों की अभ्यस्त आलोचना न चल सकी। मिनी ने आते ही पूछा-  तुम ससुराल जाओगे?’
रहमत ने प्रफुल्लित मन से कहा-  हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।
रहमत ताड़ गया कि उसका यह जवाब मिनी के चेहरे पर हँसी न ला सकेगा और तब उसने हाथ दिखाकर कहा- ससुर को मारता पर क्या करुँ, हाथ बँधे हुए हैं।
छुरा चलाने के अपराध में रहमत को कई वर्ष का कारावास मिला।
रहमत का ध्यान धीरे- धीरे मन से बिलकुल उतर गया। हम लोग अब अपने घर में बैठकर सदा के अभ्यस्त होने के कारण, नित्य के काम- धन्धों में उलझे हुए दिन बिता रहे थे, तभी एक स्वाधीन पर्वतों पर घूमने वाला इंसान कारागर की प्राचीरों के अन्दर कैसे वर्ष पर वर्ष काट रहा होगा, यह बात हमारे मन में कभी उठी ही नहीं। और चंचल मिनी का आचरण तो और भी लज्जाप्रद था। यह बात उसके पिता को भी माननी पड़ेगी। उसने सहज ही अपने पुराने मित्र को भूलकर पहले तो नबी सईस के साथ मित्रता जोड़ी, फिर क्रमश: जैसे- जैसे उसकी वयोवृद्धि होने लगी, वैसे- वैसे सखा के बदले एक के बाद एक उसकी सखियाँ जुटने लगी। और तो क्या, अब वह अपने बाबूजी के लिखने के कमरे में भी दिखाई नहीं देती। मेरा तो एक तरह से उसके साथ नाता ही टूट गया हैं।
कितने ही वर्ष बीत गए? वर्षो बाद आज फिर शरद ऋतु आई हैं। मिनी की सगाई की बात पक्की हो गई। पूजा की छुट्टियों में उसका विवाह हो जाएगा। कैलाशवासिनी के साथ- साथ अबकी बार हमारे घर की आनन्दमयी मिनी भी माँ- बाप के घर में अंधेरा करके सुसराल चली जाएगी।
सवेरे दिवाकर बड़ी सज- धज के साथ निकले। वर्षों के बाद शरद ऋतु की यह नई धवल धूप सोने में सुहागे का काम दे रही हैं। कोलकाता की संकरी गलियों से परस्पर सटे हुए पुराने ईटझर गन्दे घरों के ऊपर भी इस धूप की आभा ने इस प्रकार का अनोखा सौन्दर्य बिखेर दिया है।
हमारे घर पर दिवाकर के आगमन से पूर्व ही शहनाई बज रही है। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे यह मेरे हृदय की धड़कनों में से रो- रोकर बज रही हो। उसकी करुण भैरवी रागिनी मानो मेरी विच्छेद पीड़ा को जाड़े की धूप के साथ सारे ब्रह्मांड़ में फैला रही है। मेरी मिनी का आज विवाह है।
सवेरे से घर में बवंडर बना हुआ है। हर समय आने- जाने वालों का ताँता बँधा हुआ है। आँगन में बाँसों का मंडप बनाया जा रहा है। हरेक कमरे और बरामदे में झाड़- फानूस लटकाए जा रहे हैं और उनकी टक- टक की आवाज मेरे कमरे में आ रही है। चलो रे!’, ‘जल्दी करो!’, ‘इधर आओ!की तो कोई गिनती ही नहीं हैं।
मैं अपने लिखने- पढऩे के कमरे में बैठा हुआ खर्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत आया और अभिवादन करके एक ओर खड़ा हो गया।
पहले तो मैं उसे पहचान ही न सका। उसके पास न तो झोली थी और न पहले जैसे लम्बे- लम्बे बाल और न चेहरे पर पहले जैसी दिव्य ज्योति ही थी। अंत में उसकी मुस्कान देखकर पहचान सका कि यह तो रहमत है।
क्यों रहमत कब आए?’ मैंने पूछा।
कल शाम को जेल से छूटा हूँ।उसने कहा।
सुनते ही उसके शब्द मेरे कानों में खट से बज उठे। किसी खूनी को अपनी आँखों से मैंने कभी नहीं देखा था। उसे देखकर मेरा सारा मन एकाएक सिकुड़- सा गया! मेरी यही इच्छा होने लगी कि आज के इस शुभ दिन में वह इंसान यहाँ से टल जाए तो अच्छा हो।
मैंने उससे कहा- आज हमारे घर में कुछ आवश्यक काम है, सो मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ, फिर आना।
मेरी बातें सुनकर वह उसी क्षण जाने को तैयार हो गया, परन्तु द्वार के पास आकर कुछ इधर- उधर देखकर बोला, ‘क्या, बच्ची को तनिक नहीं देख सकता?’
शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब भी वैसी ही बच्ची बनी हुई है। उसने सोचा हो कि मिनी अब भी पहले की तरह काबुलीवाला, ओ काबुलीवालापुकारती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों के पहले हास- परिहास में किसी प्रकार की रुकावट न होगी। यहाँ तक कि पहले की मित्रता की याद करके वह एक पेटी अंगूर और एक कागज के दोने में थोड़ी- सी किसमिश और बादाम, शायद अपने देश के किसी आदमी से माँग- ताँगकर लेता आया था। उसकी पहले की मैली- कुचैली झोली आज उसके पास न थी।
मैंने कहा, ‘आज घर में बहुत काम है। सो किसी से भेंट न हो सकेगी।
मेरा उत्तर सुनकर वह कुछ उदास- सा हो गया। उसी मुद्रा में उसने एक बार मेरे मुख की ओर स्थिर दृष्टि से देखा। फिर अभिवादन करके दरवाजे के बाहर निकल गया।
मेरे हृदय में न जाने कैसी एक वेदना- सी उठी। मैं सोच ही रहा था कि उसे बुलाऊँ, इतने में देखा कि वह स्वयं ही आ
रहा है।
वह पास आकर बोला-  ये अंगूर और कुछ किशमिश, बादाम बच्ची के लिए लाया था, उसको दे दीजिएगा।
मैंने उसके हाथ से सामान लेकर पैसे देने चाहे, लेकिन उसने मेरे हाथ को थामते हुए कहा-  आपकी बहुत मेहरबानी बाबू साहब! हमेशा याद रहेगी, पैसा रहने दीजिए।थोड़ी देर रूककर वह फिर बोला-  बाबू साहब! आपकी जैसी मेरी भी देश में एक बच्ची है। मैं उसकी याद करके आपकी बच्ची के लिए थोड़ी- सी मेवा हाथ में ले आया करता हूँ। मैं यहाँ सौदा बेचने नहीं आता।
यह कहते हुए उसने ढीले- ढाले कुरते के अन्दर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला- कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकला और बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया।
देखा कि कागज के उस टुकडे पर एक नन्हें से हाथ के छोटे- से पंजे की छाप है। फोटो नहीं, तेल चित्र नहीं, हाथ में थोड़ी- सी कालिख लगाकर, कागज के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी बेटी के इस स्मृति-  पत्र को छाती से लगाकर, रहमत हर वर्ष कोलकाता की गली- कूचों से सौदा बेचने के लिए आता है और तब वह कालिख चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल स्पर्श, उसके बिछड़े हुए विशाल वक्ष:स्थल में अमृत उड़ेलता रहता हैं।
देखकर मेरी आँखें भर आई और फिर मैं इस बात को बिल्कुल ही भूल गया कि वह एक मामूली काबुली मेवा वाला है, मैं एक उच्चवंश का रईस हूँ। फिर मुझे ऐसा लगने लगा जो वह है, वही मैं भी हूँ। वह भी एक बाप हैं और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी छोटी बच्ची की निशानी मेरी ही मिनी की याद दिलाती है। मंैने तत्काल ही मिनी को बुलाया, हालाँकि इस पर अन्दर घर में आपत्ति की गई, परन्तु मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। विवाह के वस्त्रों और अलंकारों में लिपटी हुई बेचारी मिनी मारे लज्जा के सिकुड़ी हुई- सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।
उस अवस्था में देखकर रहमत काबुली पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में हँसते हुए बोला-  लल्ली! सास के घर जा रही हैं क्या?’
मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी, अत: अब उससे पहले की तरह उत्तर देते न बना। रहमत की बात सुनकर मारे लज्जा के उसके कपोल लाल- सुर्ख हो उठे। उसने मुँह फेर लिया। मुझे उस दिन की याद आई, जब रहमत के साथ मिनी का प्रथम परिचय हुआ था। मन में एक पीड़ा की लहर दौड़ गई।
मिनी के चले जाने के बाद, एक गहरी साँस लेकर रहमत फर्श पर बैठ गया। शायद उसकी समझ में यह बात एकाएक साफ हो गई कि उसकी बेटी भी इतनी ही बड़ी हो गई होगी और उसके साथ भी उसे अब फिर से नई जान- पहचान करनी पड़ेगी। सम्भवत: वह उसे पहले जैसी नहीं पाएगा। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? सवेरे के समय शरद की स्निग्ध सूर्य किरणों में शहनाई बजने लगी और रहमत कोलकाता की एक गली के भीतर बैठा हुआ अफगानिस्तान के मेरु- पर्वत का दृश्य देखने लगा।
मैंने एक नोट निकालकर उसके हाथ में दिया और बोला-  रहमत! तुम देश चले जाओ, अपनी लड़की के पास। तुम दोनों के मिलन- सुख से मेरी मिनी सुख पाएगी।
रहमत को रुपए देने के बाद विवाह के हिसाब में से मुझे उत्सव- समारोह के दो- एक अंग छाँटकर काट देने पड़े। जैसी मन में थी, वैसी रोशनी नहीं करा सका। अंग्रेजी बाजा भी नहीं आया। घर में औरतें बड़ी बिगडऩे लगीं। सब कुछ हुआ, फिर भी मेरा विचार है कि आज एक अपूर्व ज्योत्स्ना से हमारा शुभ समारोह उज्जवल हो उठा। 

हिन्दी की यादगार कहानियाँ

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पं.माधवराव सप्रे की कालजयी कहानी
19 जून 1871 को मध्यप्रदेश के दमोह जिले में स्थित गांव पथरिया में जन्में पं. माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ में साहित्य, पत्रकारिता एवं शिक्षा के क्षेत्रों में वंदनीय कार्य किया है। बिलासपुर में मिडिल तक की पढ़ाई के बाद मेट्रिक शासकीय विद्यालय रायपुर से उत्तीर्ण किया। कलकत्ता विश्वविद्यालय  से बीए की डिग्री लेने के बावजूद उन्होंने अंग्रेजों की चाकरी कुबूल नहीं की वे राष्ट्रभक्त एवं सेवाव्रती समाजसेवी बनकर जिये और अपनी साहित्य साधना एवं देश सेवा के लिए पूजित हुए। सप्रे जी ने 1921 में रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय तथा प्रथम कन्या विद्यालय जानकी देवी महिला पाठशाला की भी स्थापना की।
1900 में जब समूचे छत्तीसगढ़ में प्रिंटिंग प्रेस नहीं था तब उन्होंने बिलासपुर जिले के एक छोटे से गांव पेंड्रा से छत्तीसगढ़ मित्र नामक मासिक पत्रिका निकालकर मध्य भारत में हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत की। इसी पत्रिका में छपी उनकी कहानी एक टोकरी भर मिट्टी  हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी के रूप में चर्चित हुई। सप्रेजी ने इस कहानी के लिए लोकजीवन में प्रचलित कथा- कंथली से मिट्टी लेकर उसे अभिनव स्वरूप दिया। छत्तीसगढ़ में प्रचलित डोकरी अर्थात वृद्धा से जुड़ी कथाओं का विपुल भंडार रहा है। हर कहानी में केंद्रीय चरित्र के रूप में उपस्थित वृद्धा अपनी समझदारी से विध्नों पर नकेल कसती है और आततायी को पराजित कर देती है। इस कहानी की वृद्धा भी बुद्धि- कौशल से जमींदार को झुका देती है। बुढिय़ा का व्यक्तित्व भावना से परिचालित है। भावाकुलता और चातुर्य के साथ वैराग्य के छत्तीसगढ़ी गुण को भी इस कहानी में बखूबी रेखांकित किया गया है। छत्तीसगढ़ की बूढ़ी दाई अपनी समग्र गरिमा के साथ इस कहानी में उपस्थित है।
 पढि़ए कहानी एक टोकरी भर मिट्टी।  इस कहानी को साहित्य अकादमी के लिए कमलेश्वर जी ने हिन्दी की कालजयी कहानियाँ शृंखला में प्रथम कहानी के रूप में छापकर इसके महत्त्व को रेखांकित किया है।

एक टोकरी भर मिट्टी
किसीश्रीमान जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोपड़ी थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोपड़ी तक बढ़ाने की इच्छा हुई। विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोपड़ी हटा ले। पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी।
उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धकाल में एकमात्र आधार थी। जब कभी उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट- फूट कर रोने लगती थी। और जबसे उसने अपने श्रीमान पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना, तब से वह मृतप्राय हो गई थी।
उस झोपड़ी में उसका मन ऐसा लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना ही नहीं चाहती थी। श्रीमान के सब प्रयत्न निष्फल हुए। तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्होंने अदालत में उस झोपड़ी पर अपना कब्जा कर लिया और विधवा को वहां से निकाल दिया। बेचारी अनाथ तो थी ही, पास- पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।
एक दिन श्रीमान उस झोपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि इतने में वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहाँ पहुँची। श्रीमान ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहाँ से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ाकर बोली, ‘महाराज, अब तो यह झोपड़ी तुम्हारी ही हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूँ। महाराज क्षमा करें तो एक बिनती है।
जमींदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा, ‘जब से यह झोपड़ी छूटी है तब से मेरी पोती ने खाना- पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत समझाया पर वह एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल, वहीं रोटी खाऊँगी। अब मैंने यह सोचा है कि इस झोपड़ी में से एक टोकरी भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्हा बनाकर रोटी पकाऊँगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज, कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले जाऊं।श्रीमान ने आज्ञा दे दी। विधवा झोपड़ी के भीतर गई। वहाँ जाते ही उसे पुरानी बातों का स्मरण हुआ और उसकी आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। अपने आन्तरिक दु:ख को किसी तरह सम्हालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठा कर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान से प्रार्थना करने लगी, ‘महाराज, कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगाइये जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूँ।
जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज हुए, पर जब वह बार- बार हाथ जोडऩे लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके भी मन में कुछ दया आ गई। किसी नौकर से न कहकर आप ही स्वयं टोकरी उठाने आगे बढ़े। ज्योंही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्यों ही देखा कि यह काम उनकी शक्ति के बाहर है। फिर तो उन्होंने अपनी सब ताकत लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्थान पर टोकरी रखी थी वहाँ से वह एक हाथ- भर भी ऊँची न हुई। तब लज्जित होकर कहने लगे, ‘नहीं यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी।
यह सुनकर विधवा ने कहा, ‘महाराज! नाराज न हों। आप से तो एक टोकरी भर मिट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़ी हैं। उसका भार आप जन्म भर क्यों कर उठा सकेंगे? आप ही इस बात पर विचार कीजिए!
जमींदार साहब धन- मद से गर्वित हो अपना कर्तव्य भूल गये थे, पर विधवा के उक्त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गईं। कृतकर्म का पश्चाताप कर उन्होंने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोपड़ी वापस दे दी।

हिन्दी की यादगार कहानियाँ

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जैनेन्द्र कुमार की
कहानी कला
 जैनेन्द्र कुमार प्रेमचंद युग के महत्त्वपूर्ण कथाकार माने जाते हैं। उनकी प्रतिभा को प्रेमचंद ने भरपूर मान दिया। वे समकालीन दौर में प्रेमचंद के निकटतम सहयात्रियों में से एक थे मगर दोनों का व्यक्तित्व जुदा था। प्रेमचंद लगातार विकास करते हुए अंतत: महाजनी सभ्यता के घिनौने चेहरे से पर्दा हटाने में पूरी शक्ति लगाते हुए कफनजैसी कहानी और किसान से मजदूर बनकर रह गए।  होरी के जीवन की महागाथा गोदान लिखकर विदा हुए। जैनेन्द्र ने जवानी के दिनों में जिस वैचारिक पीठिका पर खड़े होकर रचनाओं का सृजन किया जीवन भर उसी से टिके रहकर मनोविज्ञान, धर्म, ईश्वर, इहलोक, परलोक पर गहन चिंतन करते रहे। समय और हम उनकी वैचारिक किताब है।
प्रेमचंद के अंतिम दिनों में जैनेन्द्र ने अपनी आस्था पर जोर देते हुए उनसे पूछा था कि अब ईश्वर के बारे में क्या सोचते हैं। प्रेमचंद ने दुनिया से विदाई के अवसर पर भी तब जवाब दिया था कि इस बदहाल दुनिया में ईश्वर है ऐसा तो मुझे भी नहीं लगता। वे अंतिम समय में भी अपनी वैचारिक दृढ़ता बरकरार रख सके, यह देखकर जैनेन्द्र बेहद प्रभावित हुए। वामपंथी विचारधारा से जुड़े लेखकों के वर्चस्व को महसूस करते हुए जैनेन्द्र जी कलावाद का झंडा बुलंद करते हुए अपनी ठसक के साथ समकालीन साहित्यिक परिदृश्य पर अलग नजर आते थे। गहरी मित्रता के बावजूद प्रेमचंद और जैनेन्द्र एक दूसरे के विचारों में भिन्नता का भरपूर सम्मान करते रहे और साथ- साथ चले।
प्रस्तुत कहानी जैनेन्द्र की विशिष्ट कहानी है जिसमें उनकी विशिष्ट कला हम देख पाते हैं। प्राय: कथा के माध्यम से जैनेन्द्र अपनी विचारधारा का जिस तरह प्रचार करते थे उसे हम इस कहानी में बखूबी समझ सकते हैं। हिन्दी के इतिहास निर्माता कथाकारों की पीढ़ी के कहानीकारों में बेहद महत्वपूर्ण रचानाकार जैनेन्द्र की कहानी वह क्षणप्रस्तुत है। आशा है आप पसंद करेंगे।
वह क्षण 
पैसापात्र- कुपात्र नहीं देखता। क्या यह सच है?
राजीव ने यह पूछा। वह आदर्शवादी था और एम.ए. और लॉ करने के बाद अब आगे बढऩा चाहता था। आगे बढऩे का मतलब उसके मन में यह नहीं था कि वह घर के कामकाज को हाथ में लेगा। घर पर कपड़े का काम था। उसके पिता, जो खुद पढ़े लिखे थे, सोचते थे कि राजीव सब संभाल लेगा और उन्हें अवकाश मिलेगा। घर के धंधे पीटने में ही उमर हो गई है। चौथापन आ चला है और वह यह देखकर व्यग्र हैं कि आगे के लिए उन्होंने कुछ नहीं किया है। इस लोक से एक दिन चल देना है यह उन्हें अब बार- बार याद आता है। लेकिन उस यात्रा की क्या तैयारी है? सोचते हैं और उन्हें बड़ी उलझन मालूम होती है। लेकिन जिस पर आस बंधी थी वह राजीव अपनी धुन का लड़का है। जैसे उसे परिवार से लेना- देना ही नहीं। ऊंचे ख्यालों में रहता है, जैसे महल ख्याल से बन जाते हों।
राजीव के प्रश्न पर उन्हें अच्छा मालूम हुआ। जैसे प्रश्न में उनकी आलोचना हो। बोले- नहीं, धन सुपात्र में ही आता है। अपात्र में आता नहीं है पर, आये तो वहां ठहरता नहीं। राजीव, तुम करना क्या चाहते हो?’
राजीव ने कहा- आपके पास धन है। सच कहिये, आप प्रसन्न हैं?’
पिता ने तनिक चुप रहकर कहा- धन के बिना प्रसन्नता आ जाती है, ऐसा तुम सोचते हो तो गलत सोचते हो। तुममें लगन है। सृजन की चाह है। कुछ तुम कर जाना चाहते हो। क्या इसीलिए नहीं कि अपने अस्तित्व की तरफ से पहले निश्चित हो। घर है, ठौर ठिकाना है। जो चाहो कर सकते हो। क्योंकि खर्च का सुभीता है। पैसे को तुच्छ समझ सकते हो, क्योंकि वह है। मैं तुमसे कहता हूं राजीव कि पैसे के अभाव में सब गिर जाते हैं। तुमने नहीं जाना, लेकिन मैंने उस अभाव को जाना है। तुमने पूछा है और मैं कहता हूं कि हां, मैं प्रसन्न नहीं हूं। लेकिन धन के बिना प्रसन्न होने का मेरे पास और भी कारण न रहता। तुम्हारी आयु तेईस वर्ष पार कर गई है। विवाह के बारे में इंकार करते गये हो। हम लोगों को यहां ज्यादा दिन नहीं बैठे रहना है। तब इस सबका क्या होगा। बेटियाँ पराये घर की होती हैं। एक तुम्हारी छोटी बहन है, उसका भी ब्याह हो जाएगा। लड़के एक तुम हो। सोचना तुम्हें है कि फिर इस सबका क्या होगा। अगर तुम्हारा निश्चय हो कि व्यवसाय में नहीं जाना है तो मैं इस काम- धाम को उठा दूं। अभी तो दाम अच्छे खड़े हो जाएंगे। नहीं तो मेरी सलाह यही है कि बैठो, पुश्तैनी काम संभालो, घर- गिरस्ती बसाओ और हमको अब परलोक की तैयारी में लगने दो। सच पूछो तो अवस्था हमारी है कि देखें जिसे धन कहते हैं वह मिट्टी है। पर तुममें आकांक्षा है। चाहे उन्हें महत्वाकांक्षी कहो। महत्व की हो या कैसी भी हो, आकांक्षा के कारण धन- धन बनता है। इसलिए तुमको घर से विमुख मैं नहीं देखना चाहता। विमुख मैं स्वयं अवश्य बनना चाहता हूं क्योंकि आकांक्षा अब शरीर के वृद्ध पड़ते जाने के साथ हमें त्रास ही दे सकेगी। आकांक्षा इसी से अवस्था के आने पर बुझ सी जाती है। तुमको आकांक्षाओं से भरा देखकर मुझे खुशी होती है। अपने में उनके बीज देखता हूं तो डर होता है, क्योंकि उमर बीतने पर जिधर जाना है उधर की सम्मुखता मुझमें समय पर न आएगी तो मृत्यु मेरे लिए भयंकर हो जाएगी। तुम्हारे लिए आगे जीवन का विस्तार है मुझे उसका उपसंहार करना है और तैयारी मृत्यु की करनी है। संसार असार है, यह तुम नहीं कह सकते। हां, मैं यदि वहां सार देखूं तो अवश्य गलत होगा। तुम समझते हो। कहो, क्या सोचते हो।
राजीव पिता का आदर करता था। वह चुपचाप सुनता रहा। पिता की वाणी में स्नेह था, पीड़ा थी, उसमें अनुभव था। लेकिन जितने ही अधिक ध्यान से और विनय से पिता की बात को उसने सुना, उसके मन से अपने सपने दूर नहीं हुए। अनुभव अतीत से संबंध रखता है। वह जैसे उसके लिए था ही नहीं। वह जानता था कि कमाई का चक्कर आने वाले कुछ वर्षों में खत्म हो जाने वाला है। यह बुर्जुआ समाज आगे रहने वाला नहीं। समाजवादी समाज होगा जहां अपने अस्तित्व की भाषा में सोचने की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। आप सामाजिक होने और समाज स्वत: आपका वहन करेगा। आपका योग-क्षेम आपकी अपनी चिंता का विषय ना होगा। राजीव पिता की बात सुनते हुए भी देख रहा था कि धनोपार्जन जिनका चिंतन सर्वस्व है, ऐसा वर्ग क्रमश: मान्यता से गिरता जा रहा है। कल करोड़ो में जो खेलता था आज चार सौ रुपए पाने वाले मजिस्ट्रेट के हाथों जेल भेज दिया जाता है। वह वर्ग शोषक है, आसामाजिक है। इसके अस्तित्व का आधार है कम दो, ज्यादा लो। हर किसी के काम आओ, इस शर्त के साथ कि अधिक उससे अपना काम निकाल लो। यह सिद्धांत सभ्यता का नहीं है, स्वार्थ का है, पाप का है। इस पर पलने- पूसने वाले वर्ग को समाज कब तक सहता रह सकता है? असल में यह घुन है जो समाज के शरीर को खाकर उसे खोखला करता रहता है। उस वर्ग की खुद की सफलता समाज के व्यापक हित को कीमत देने में होती है। यह ढोंग अब ज्यादा नहीं चल सकता है। इस वर्ग को मिटाना होगा और फिर समाज वह होगा जहां हर कोई अपना हित निछावर करेगा, फुलाए और फैलाएगा नहीं। स्थापित स्वार्थ, संयुक्त परिवार, जाति का, सब लुप्त हो जाएगा। स्वार्थ एक होगा और वह परमार्थ होगा। हित एक होगा और वह सबका हित होगा।
पिता की बात सुन रहा था और राजीव का तन इन विचारों के लोक में रमा हुआ था। पिता की बात पूरी हुई तो सहसा वह कुछ समझा नहीं, कुछ देर चुप ही बना रह गया। कारण बात की संगति उसे नहीं मिल रही थी।
पिता ने अनुभव किया कि बेटा वहँं नहीं, कहीं और है। उन्हें सहानुभूति हुई और वह भी चुप रहे। राजीव ने उस चुप्पी का असमंजस्य अनुभव किया। हठात बोला- तो आप मानते है कुपात्र के पास धन नहीं होगा। फिर इंजील में यह क्यों है कि कुछ भी हो जाए धनिक का स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं हो सकता। उससे तो साबित होता है कि धन कुपात्र के पास ही हो सकता है।पिता की ऐसी बातों पर रोष आ सकता था पर इस बार वह गंभीर हो गए। मंद वाणी में बोले- ईसा की वाणी पवित्र है, यथार्थ है। वह तुम्हारे मन में उतरी है तो मैं तुमको बधाई देता हूं और फिर मुझे आगे नहीं कहना है।
राजीव को तर्क चाहिए था। बोला- आप तो कहते थे कि...।
पिता और आर्द्र हो आए, बोले - मैं गलत कहता था। परम सत्य वह ही है जो बाइबिल में है। भगवान तुम्हारा भला करें।कहकर वह उठे और भीतर चले गए। राजीव विमूढ़ सा बैठा रह गया। उसकी कुछ समझ में ना आया। जाते समय पिता की मुद्रा में विरोध या प्रतिरोध ना था। उसने सोचा कि मेरे आग्रह में क्या इतना बल भी नहीं है कि प्रत्याग्रह उत्पन्न करें? या बल इतना है कि उसका सामना हो नहीं सकता। उसे लगा कि वह जीता है। लेकिन जीत में स्वाद उसे बिल्कुल नहीं आया। वह आशा कर रहा था कि पैसे की गरिमा और महिमा सामने से आएगी और वह उसको चकनाचूर कर देगा। उसके पास प्रखर तर्क थे और प्रबल ज्ञान था। उसके पास निष्ठा थी और उसे सवर्था प्रत्यक्ष था कि समाजवादी व्यवस्था अनिवार्य और अप्रतिरोध्य होगी। पूंजी की संस्था कुछ दिनों की है और वह विभीषिका अब शीघ्र समाप्त हो जाने वाली है। उसको समाप्त करने का दायित्व उठाने वाले बलिदानी युवकों में वह अपने को गिनता था। वह यह भी जानता था कि नगर के मान्य व्यवसायी की पुत्र होने के नाते उसका यह रूप और भी महिमान्वित हो जाता है। उसे अपने इस रूप में रस और गौरव था। वह निश्शंक था कि भवितव्यता को अपने पुरुषार्थ से वर्तमान पर उतारने वाले योद्धाओं की पंक्ति में वह सम्मिलित है। उसमें निश्चित धन्यता का भाव था कि वह क्रांति का अनन्य सेवक बना है। वह तन- मन के साथ धन से भी उस युग निर्माण के कार्य में पढ़ा था और उसकी वर्चस्व की प्रतिष्ठा थी। मानो उस अनुष्ठान का वह अध्वर्यु था।
लेकिन पिता जब संतोष और समाधान के साथ अपनी हार को अपनाते हुए उसकी उपस्थिति से चुपचाप चले गए तो राजीव को अजब लगा। मानो कि उसका योद्धा का रूप स्वयं उसके निकट व्यर्थ हुआ जा रहा हो। उसका जी हुआ कि आगे बढ़कर कहे कि सुनिए तो सही, पर वह स्वयं न सोच सका कि सुनाना अब उसे शेष क्या है। पिता उसे स्वस्ति कह गए हैं, मानो आशीर्वाद और अनुमति दे गए हों। पर यह सहज सिद्धी उसे काटती सी लगी। वह कुछ देर अपनी जगह ही बैठा रहा। तुमुल द्वंद्व उसके भीतर मचा और वह कुछ निश्चय न कर सका।
चौबीस घंटे राजीव मतिभूला- सा रहा। अगले दिन उसने पिता से जाकर कहा - आज्ञा हो तो मैं कल से कोठी पर जाकर काम देखने लग जाऊं।
पिता ने कहा- क्यों बेटा?’
जी, और कुछ समझ नहीं आता।
पिता ने कहा- तुमने अर्थशास्त्र पढ़ा है। मैंने अर्थ पैदा किया है, शास्त्र उसका नहीं पढ़ा। शास्त्र धर्म का पढ़ा है। ईसा की बात इस शास्त्र की ही बात है। अर्थशास्त्र भी वही कहता है तुम जानो। मैं बीए से आगे तो गया ही नहीं और अर्थशास्त्र की बारहखड़ी से आगे जाना नहीं। फिर भी वहाँ शायद मानते हैं कि अर्थ काम्य है। राजीव बेटा, धर्म ने उसे काम्य नहीं माना है। इसलिए उसकी निंदा भी नहीं है, उस पर करूणा है। तुम शायद मानते होगे, जैसे कि और लोग मानते हैं कि तुम्हारा पिता सफल आदमी है। वह सही नहीं है। ईसा की बात जो कल तुमने कही बहुत ठीक है। मैं उसको सदा ध्यान में नहीं रख सका। तुमसे कहता हूंँ कि निर्णय तुम्हारा है। निर्णय यही करते हो कि कोठी के काम को संभालो तो मुझे उसमें भी कुछ नहीं है। तुम्हारी आत्मा तुम्हारे साथ रहेगी। मैं तो उसे सांत्वना देने पहुंँच सकंूगा नहीं। उसके समक्ष तुम्हें स्वयं ही रहना है इसलिए मैं तुम्हारी स्वतंत्रता पर आरोप नहीं लगा सकता हूं। पर बेटे, मैं भूल रहा तो भूल रहा, धर्म की ओर इंजील की बात को तुम कभी मत भूलना। इतना ही कह सकता हूंँ। समाजवादी हो, साम्यवादी हो, पूंजीवादी हो, व्यवस्था कुछ भी हो, धर्म के शब्द का सार कभी खत्म नहीं होता। न वह शब्द कभी मिथ्या पड़ता है। उसे मन से भूलोगे नहीं तो शायद कहीं से तुम्हारा अहित नहीं होगा। हो सकता है समाज का भी अहित न हो। राजीव, बहुत दिनों से सोचता रहा हूंँ। अब पूछता हूँ कि हम लोग दोनों, तुम्हारी माँ और मैं, अब जा सकते हैं कि नहीं। अपनी बहन सरोज के विवाह को तो ठीक- ठाक तुम कर ही दोगे। 

हिन्दी की यादगार कहानियाँ

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कलाकार मन को टटोलती
फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी
फणीश्वरनाथ रेणु एक ऐसे कथाकार थे जिन्होंने आजादी के बाद स्वप्न-भंग पर सर्वाधिक चर्चित कृतियों का सृजन किया है। मैला आंचल जैसे प्रख्यात और दुर्लभ उपन्यास के लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने अभावों में जीने वाले मन के कुबेरों की कथा की अनोखी परंपरा को समृद्ध किया। नव- सामंतवाद, जातिप्रथा, राजनीतिक षडयंत्र और निरंतर शोषण के वीभत्स चेहरों की पहचान रेणु के पाठकों ने किया। इनकी लेखन- शैली वर्णणात्मक थी जिसमें पात्र के प्रत्येक मनोवैज्ञानिक सोच का विवरण लुभावने तरीके से किया होता था। पात्रों का चरित्र- निर्माण काफी तेजी से होता था क्योंकि पात्र एक सामान्य- सरल मानव मन (प्राय:) के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता था। इनकी लगभग हर कहानी में पात्रों की सोच घटनाओं से प्रधान होती थी। प्रस्तुत है कलाकार के मन को टटोलती उनकी यह कहानी ठेस- 
ठेस
खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते..  लोग उसको बेकार ही नहीं, ‘बेगारसमझते हैं। इसलिए, खेत- खलिहान की मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को। क्या होगा, उसको बुलाकर? दूसरे मजदूर खेत पहुँच कर एक- तिहाई काम कर चुकेंगे, तब कहीं सिरचन राय हाथ में खुरपी डुलाता दिखाई पड़ेगा। पगडण्डी पर तौल- तौल कर पाँव रखता हुआ, धीरे- धीरे..  मुफ्त में मजदूरी देनी हो तो और बात है।
...आज सिरचन को मुफ्तखोर, कामचोर या चटोर कह ले कोई। एक समय था, जबकि उसकी मड़ैया के पास बड़े- बड़े बाबू लोगों की सवारियाँ बंधी रहती थीं। उसे लोग पूछते ही नहीं थे, उसकी खुशामद भी करते थे...  ‘.. अरे, सिरचन भाई! अब तो तुम्हारे ही हाथ में यह कारीगरी रह गयी है सारे इलाके में। एक दिन समय निकालकर चलो। कल बड़े भैया की चिट्ठी आई है शहर से- सिरचन से एक जोड़ा चिक बनवा कर भेज दो।
मुझे याद है..  मेरी माँ जब कभी सिरचन को बुलाने के लिए कहती, मैं पहले ही पूछ लेता, ‘भोग क्या- क्या लगेगा? ‘
माँ हँस कर कहती, ‘जा-  जा, बेचारा मेरे काम में पूजा- भोग की बात नहीं उठाता कभी।
ब्राह्मण टोली के पंचानंद चौधरी के छोटे लड़के को एक बार मेरे सामने ही बेपानी कर दिया था सिरचन ने-  तुम्हारी भाभी नाखून से खांट कर तरकारी परोसती है। और इमली का रस साल कर कढ़ी तो हम कहार- कुम्हारों की घरवाली बनाती है। तुम्हारी भाभी ने कहाँ से बनायीं!
इसलिए सिरचन को बुलाने से पहले मैं माँ को पूछ लेता...
सिरचन को देखते ही माँ हुलस कर कहती, ‘आओ सिरचन! आज नेनू मथ रही थी, तो तुम्हारी याद आई। घी की डाड़ी (खखोरन) के साथ चूड़ा तुमको बहुत पसंद है न... और बड़ी बेटी ने ससुराल से संवाद भेजा है, उसकी ननद रूठी हुई है, मोथी की शीतलपाटी के लिए।
सिरचन अपनी पनियायी जीभ को सम्हाल कर हँसता-  घी की सुगँध सूँघ कर आ रहा हूँ, काकी! नहीं तो इस शादी ब्याह के मौसम में दम मारने की भी छुट्टी कहाँ मिलती है? ‘
सिरचन जाति का कारीगर है। मैंने घंटों बैठ कर उसके काम करने के ढंग को देखा है। एक- एक मोथी और पटेर को हाथ में लेकर बड़े जातां से उसकी कुच्ची बनाता। फिर, कुच्चियों को रंगने से लेकर सुतली सुलझाने में पूरा दिन समाप्त... काम करते समय उसकी तन्मयता में जरा भी बाधा पड़ी कि गेंहुअन सांप की तरह फुफकार उठता-  फिर किसी दूसरे से करवा लीजिये काम। सिरचन मुँहजोर है, कामचोर नहीं।
बिना मजदूरी के पेट- भर भात पर काम करने वाला कारीगर। दूध में कोई मिठाई न मिले, तो कोई बात नहीं, किन्तु बात में जरा भी झाल वह नहीं बर्दाश्त कर सकता।
सिरचन को लोग चटोर भी समझते हैं... तली- बघारी हुई तरकारी, दही की कुढ़ी, मलाई वाला दूध, इन सबका प्रबंध पहले कर लो, तब सिरचन को बुलाओ, दुम हिलाता हुआ हाजिर हो जाएगा। खाने- पीने में चिकनायी की कमी हुई कि काम की सारी चिकनाई खत्म! काम अधूरा रखकर उठ खड़ा होगा-  आज तो अब अधकपाली दर्द से माथा टनटना रहा है। थोड़ा-  सा रह गया है, किसी दिन आ कर पूरा कर दूँगा।’...  ‘किसी दिन’-  माने कभी नहीं!
मोथी घास और पटरे की रंगीन शीतलपाटी, बांस की तीलियों की झिलमिलाती चिक, सतरंगे डोर के मोढ़े, भूसी- चुन्नी रखने के लिए मूंज की रस्सी के बड़े- बड़े जाले, हलावाहों के लिए ताल के सूखे पत्तों की छतरी- टोपी तथा इसी तरह के बहुत से काम हैं, जिन्हें सिरचन के सिवा गाँव में और कोई नहीं जानता। यह दूसरी बात है कि अब गाँव में ऐसे कामों को बेकाम का काम समझते हैं लोग- बेकाम का काम, जिसकी मजदूरी में अनाज या पैसे देने की कोई जरुरत नहीं। पेट- भर खिला दो, काम पूरा होने पर एकाध पुराना- धुराना कपड़ा दे कर विदा करो। वह कुछ भी नहीं बोलेगा...।
कुछ भी नहीं बोलेगा, ऐसी बात नहीं। सिरचन को बुलाने वाले जानते हैं, सिरचन बात करने में भी कारीगर है... महाजन टोले के भज्जू महाजन की बेटी सिरचन की बात सुन कर तिलमिला उठी थी-  ठहरो! मैं माँ से जा कर कहती हूँ। इतनी बड़ी बात!
बड़ी बात ही है बिटिया! बड़े लोगों की बस बात ही बड़ी होती है।  नहीं तो दो- दो पटेर की पटियों का काम सिर्फ खेसारी का सत्तू खिलाकर कोई करवाए भला? यह तुम्हारी माँ ही कर सकती है बबुनी!सिरचन ने मुस्कुरा कर जवाब दिया था।
उस बार मेरी सबसे छोटी बहन की विदाई होने वाली थी।
पहली बार ससुराल जा रही थी मानू। मानू के दूल्हे ने पहले ही बड़ी भाभी को खत लिख कर चेतावनी दे दी है- मानू के साथ मिठाई की पतीली न आये, कोई बात नहीं। तीन जोड़ी फैशनेबल चिक और पटेर की दो शीतलपाटियों के बिना आएगी मानू तो.. । भाभी ने हँस कर कहा, ‘बैरंग वापस!इसलिए, एक सप्ताह से पहले से ही सिरचन को बुला कर काम पर तैनात करवा दिया था माँ ने-  देख सिरचन! इस बार नयी धोती दूँगी, असली मोहर छाप वाली धोती। मन लगा कर ऐसा काम करो कि देखने वाले देख कर देखते ही रह जाएँ।
पान- जैसी पतली छुरी से बांस की तीलियों और कमानियों को चिकनाता हुआ सिरचन अपने काम में लग गया। रंगीन सुतलियों से झब्बे डाल कर वह चिक बुनने बैठा। डेढ़ हाथ की बिनाई देख कर ही लोग समझ गए कि इस बार एकदम नए फैशन की चीज बन रही है, जो पहले कभी नहीं बनी।
मँझली भाभी से नहीं रहा गया, परदे के आड़ से बोली, ‘पहले ऐसा जानती कि मोहर छाप वाली धोती देने से ही अच्छी चीज बनती है तो भैया को खबर भेज देती।
काम में व्यस्त सिरचन के कानों में बात पड़ गयी। बोला, ‘मोहर छापवाली धोती के साथ रेशमी कुरता देने पर भी ऐसी चीज नहीं बनती बहुरिया। मानू दीदी काकी की सबसे छोटी बेटी है..  मानू दीदी का दूल्हा अफसर आदमी है।
मँझली भाभी का मुँह लटक गया। मेरी चाची ने फुसफुसा कर कहा, ‘किससे बात करती है बहू? मोहर छाप वाली धोती नहीं, मूँगिया- लड्डू। बेटी की विदाई के समय रोज मिठाई जो खाने को मिलेगी। देखती है न।
दूसरे दिन चिक की पहली पाँति में सात तारे जगमगा उठे, सात रंग के। सतभैया तारा! सिरचन जब काम में मगन होता है तो उसकी जीभ जरा बहार निकल आती है, होठ पर। अपने काम में मगन सिरचन को खाने- पीने की सुध नहीं रहती। चिक में सुतली के फंदे डाल कर अपने पास पड़े सूप पर निगाह डाली-  चिउरा और गुड़ का एक सूखा ढेला। मैंने लक्ष्य किया, सिरचन की नाक के पास दो रेखाएं उभर आयीं। मैं दौड़ कर माँ के पास गया। माँ, आज सिरचन को कलेवा किसने दिया है, सिर्फ चिउरा और गुड़? ‘ 
माँ रसोईघर में अन्दर पकवान आदि बनाने में व्यस्त थी। बोली, ‘मैं अकेली कहाँ- कहाँ क्या- क्या देखूं!..  अरी मँझली, सिरचन को बुँदिया क्यों नहीं देती? ‘
बुँदिया मैं नहीं खाता, काकी!सिरचन के मुँह में चिउरा भरा हुआ था। गुड़ का ढेला सूप के किनारे पर पड़ा रहा, अछूता।
माँ की बोली सुनते ही मँझली भाभी की भौंहें तन गयीं। मुट्ठी भर बुँदिया सूप में फेंक कर चली गयी।
सिरचन ने पानी पी कर कहा, ‘मँझली बहूरानी अपने मैके से आई हुई मिठाई भी इसी तरह हाथ खोल कर बाँटती है क्या? ‘
बस, मँझली भाभी अपने कमरे में बैठकर रोने लगी। चाची ने माँ के पास जा कर लगाया-  छोटी जाति के आदमी का मुँह भी छोटा होता है। मुँह लगाने से सर पर चढ़ेगा ही... किसी के नैहर- ससुराल की बात क्यों करेगा वह? ‘
मँझली भाभी माँ की दुलारी बहू है। माँ तमक कर बाहर आई-  सिरचन, तुम काम करने आये हो, अपना काम करो। बहुओं से बतकुट्टी करने की क्या जरूरत? जिस चीज की जरुरत हो, मुझसे कहो।
सिरचन का मुँह लाल हो गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया। बांस में टंगे हुए अधूरे चिक में फंदे डालने लगा।
मानू पान सजा कर बाहर बैठकखाने में भेज रही थी। चुपके से पान का एक बीड़ा सिरचन को देती हुई बोली, इधर- उधर देख कर कहा-  सिरचन दादा, काम- काज का घर! पाँच तरह के लोग पाँच किस्म की बात करेंगे..  तुम किसी की बात पर कान मत दो।
सिरचन ने मुस्कुरा कर पान का बीड़ा मुँह में ले लिया। चाची अपने कमरे से निकल रही थी। सिरचन को पान खाते देख कर अवाक हो गयी। सिरचन ने चाची को अपनी ओर अचरज से घूरते देखकर कहा-  छोटी चाची, जरा अपनी डिबिया का गमकौआ जर्दा खाते हो?... चटोर कहीं के!मेरा कलेजा धड़क उठा..  यत्परो नास्ति!
बस, सिरचन की उँगलियों में सुतली के फंदे पड़ गए। मानो, कुछ देर तक वह चुपचाप बैठा पान को मुँह में घुलाता रहा। फिर, अचानक उठ कर पिछवाड़े पीक थूक आया। अपनी छुरी, हंसियाँ वैगरह समेट सम्हाल कर झोले में रख...  टंगी हुई अधूरी चिक पर एक निगाह डाली और हनहनाता हुआ आँगन के बाहर निकल गया।
चाची बड़बड़ाई-  अरे बाप रे बाप! इतनी तेजी! कोई मुफ्त में तो काम नहीं करता। आठ रुपये में मोहरछाप वाली धोती आती है।... इस मुँहझौंसे के मुँह में लगाम है, न आँख में शील। पैसा खर्च करने पर सैकड़ों चिक मिलेगी। बांतर टोली की औरतें सिर पर गट्ठर लेकर गली- गली मारी फिरती हैं।
मानू कुछ नहीं बोली। चुपचाप अधूरी चिक को देखती रही... सातो तारें मंद पड़ गए।
माँ बोली, ‘जाने दे बेटी! जी छोटा मत कर, मानू। मेले से खरीद कर भेज दूँगी।
मानू को याद आया, विवाह में सिरचन के हाथ की शीतलपाटी दी थी माँ ने। ससुरालवालों ने न जाने कितनी बार खोल कर दिखलाया था पटना और कलकत्ता के मेहमानों को। वह उठ कर बड़ी भाभी के कमरे में चली गयी।
मैं सिरचन को मनाने गया। देखा, एक फटी शीतलपाटी पर लेट कर वह कुछ सोच रहा है।
मुझे देखते ही बोला, बबुआ जी! अब नहीं। कान पकड़ता हूँ, अब नहीं... मोहर छाप वाली धोती लेकर क्या करूँगा? कौन पहनेगा?..  ससुरी खुद मरी, बेटे बेटियों को ले गयी अपने साथ। बबुआजी, मेरी घरवाली जिंदा रहती तो मैं ऐसी दुर्दशा भोगता? यह शीतलपाटी उसी की बुनी हुई है। इस शीतलपाटी को छू कर कहता हूँ, अब यह काम नहीं करूँगा..  गाँव- भर में तुम्हारी हवेली में मेरी कदर होती थी..  अब क्या? ‘
मैं चुपचाप वापस लौट आया। समझ गया, कलाकार के दिल में ठेस लगी है। वह अब नहीं आ सकता।
बड़ी भाभी अधूरी चिक में रंगीन छींट की झालर लगाने लगी- यह भी बेजा नहीं दिखलाई पड़ता, क्यों मानू?’
मानू कुछ नहीं बोली। ..बेचारी! किन्तु, मैं चुप नहीं रह सका- चाची और मँझली भाभी की नजर न लग जाए इसमें भी।
मानू को ससुराल पहुँचाने मैं ही जा रहा था।
स्टेशन पर सामान मिलाते समय देखा, मानू बड़े जातां से अधूरे चिक को मोड़ कर लिए जा रही है अपने साथ। मन- ही- मन सिरचन पर गुस्सा हो आया। चाची के सुर- में- सुर मिला कर कोसने को जी हुआ... कामचोर, चटोर.. ।!
गाड़ी आई। सामान चढ़ा कर मैं दरवाजा बंद कर रहा था कि प्लेटफॉर्म पर दौड़ते हुए सिरचन पर नजर पड़ी-  बबुआजी!उसने दरवाजे के पास आ कर पुकारा।
क्या है? ‘ मैंने खिड़की से गर्दन निकाल कर झिड़की के स्वर में कहा। सिरचन ने पीठ पर लादे हुए बोझ को उतार कर मेरी ओर देखा-  दौड़ता आया हूँ... दरवाजा खोलिए। मानू दीदी कहाँ हैं? एक बार देखूं!
मैंने दरवाजा खोल दिया।
सिरचन दादा!मानू इतना ही बोल सकी।
खिड़की के पास खड़े हो कर सिरचन ने हकलाते हुए कहा, ‘यह मेरी ओर से है। सब चीज है दीदी! शीतलपाटी, चिक और एक जोड़ी आसनी, कुश की।
गाड़ी चल पड़ी।
मानू मोहर छापवाली धोती का दाम निकाल कर देने लगी। सिरचन ने जीभ को दांत से काट कर, दोनों हाथ जोड़ दिए।
मानू फूट- फूट रो रही थी। मैं बण्डल को खोलकर देखना लगा- ऐसी कारीगरी, ऐसी बारीकी, रंगीन सुतलियों के फंदों को ऐसा काम, पहली बार देख रहा था।

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बख्शी जी की अद्वितीय कहानी
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी छत्तीसगढ़ के पहले हिन्दी साधक हैं जिन्हें राष्ट्रीय ख्याति मिली। सरस्वती जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका का उन्होंने संपादन किया। भारत में कला एवं संगीत के तीर्थ स्थल के रूप में विख्यात खैरागढ़ में 1894 में जन्में बख्शी जी की शिक्षा दीक्षा प्रारंभ में खैरागढ़ में ही हुई। पंडित रविशंकर शुक्ल खैरागढ़ में उनके शिक्षक थे। बनारस से उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की। वे संस्कृत और अंग्रेजी के शिक्षक भी रहे। कालान्तर में दिग्विजय महाविद्यालय में गजानन माधव मुक्तिबोध के साथ प्राध्यापक हुए।
उन्होंने एमए नहीं किया लेकिन सागर विश्वविद्यालय ने उन्हें मानद डी लिट् की उपाधि देकर सम्मानित किया। वे हाईस्कूल में पढ़ते थे तभी देवकीनंदन खत्री लिखित चंद्रकांता से कुछ इस तरह जुड़े कि जीवन भर न केवल स्वयं पढ़ते रहे बल्कि बहुतों को उस ग्रंथ के वाचन हेतु उन्होंने उत्प्रेरित किया।
वे मानते थे कि कभी- कभी विशेष युग में साधारण रचना के प्रति भी विज्ञजन अनुराग रखते हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं। पाठक अपनी मानसिक क्षमता के आधार पर ही रस ग्रहण करते हैं। मास्टर जी के रूप में विख्यात बख्शी जी की कहानी झलमला अनोखी कहानी है। बहुतों ने इसे हिन्दी की पहली मौलिक कहानी भी माना है। 1916 में लिखित यह कहानी सरस्वती की हीरक जयंती अंक में प्रकाशित हुई।
बख्शी जी आत्मकथात्मक निबंध लेखन के लिए याद किए जाते हैं। उनके एक निबंध को आधारित कर लोकनाट्य कारीका ताना - बाना दाऊ रामचंद्र देशमुख ने बुना। इस मंचीय कृति को पर्याप्त यश मिला। उसी नाम से फिल्म भी बनी। 28 दिसंबर 1971 को रायपुर के डी.के. अस्पताल में बख्शी जी का निधन हुआ। प्रस्तुत है पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की यह चर्चित कहानी झलमला-

       झलमला
मैं बरामदे में टहल रहा था। इतने में मैंने देखा कि विमला दासी अपने आंचल के नीचे एक प्रदीप लेकर बड़ी भाभी के कमरे की ओर जा रही है। मैंने पूछा, ‘क्यों री, यह क्या है ?’ वह बोली, ‘झलमला।मैंने फिर पूछा, ‘इससे क्या होगा ?’ उसने उत्तर दिया, ‘नहीं जानते हो बाबू, आज तुम्हारी बड़ी भाभी पंडितजी की बहू की सखी होकर आई हैं। इसीलिए मैं उन्हें झलमला दिखाने जा रही हूँ।तब तो मैं भी किताब फेंककर घर के भीतर दौड़ गया। दीदी से जाकर मैं कहने लगा, ‘दीदी, थोड़ा तेल तो दो।दीदी ने कहा, ‘जा, अभी मैं काम में लगी हूँ।मैं निराश होकर अपने कमरे में लौट आया। फिर मैं सोचने लगा- यह अवसर जाने न देना चाहिए, अच्छी दिल्लगी होगी। मैं इधर- उधर देखने लगा। इतने में मेरी दृष्टि एक मोमबत्ती के टुकड़े पर पड़ी। मैंने उसे उठा लिया और एक दियासलाई का बक्स लेकर भाभी के कमरे की ओर गया। मुझे देखकर भाभी ने पूछा, ‘कैसे आए, बाबू?’ मैंने बिना उत्तर दिए ही मोमबत्ती के टुकड़े को जलाकर उनके सामने रख दिया।
भाभी ने हँसकर पूछा, ‘यह क्या है ? ‘
मैने गंभीर स्वर में उत्तर दिया, ‘झलमला।
भाभी ने कुछ न कहकर मेरे हाथ पर पाँच रुपए रख दिए। मैं कहने लगा, ‘भाभी, क्या तुम्हारे प्रेम के आलोक का इतना ही मूल्य है ? ‘
भाभी ने हँसकर कहा, ‘तो कितना चाहिए ?’ मैंने कहा, ‘कम-से-कम एक गिनी।
भाभी कहने लगी, ‘अच्छा, इस पर लिख दो; मैं अभी देती हूँ।
मैंने तुरंत ही चाकू से मोमबत्ती के टुकड़े पर लिख दिया- मूल्य एक गिनी। भाभी ने गिनी निकालकर मुझे दे दी और मैं अपने कमरे में चला आया। कुछ दिनों बाद, गिनी के खर्च हो जाने पर मैं यह घटना बिलकुल भूल गया।
आठ वर्ष व्यतीत हो गए। मैं बी.ए., एल.एल.बी. होकर इलाहाबाद से घर लौटा। घर की वैसी दशा न थी जैसे आठ वर्ष पहले थी। न भाभी थी और न विमला दासी ही। भाभी हम लोगों को सदा के लिए छोड़कर स्वर्ग चली गई थीं, और विमला कटंगी में खेती करती थी। संध्या का समय था। मैं अपने कमरे में बैठा न जाने क्या सोच रहा था। पास ही कमरे में पड़ोस की कुछ स्त्रियों के साथ दीदी बैठी थीं। कुछ बातें हो रही थीं, इतने में मैंने  सुना, दीदी किसी स्त्री से कह रही हैं, ‘कुछ भी हो, बहन, मेरी बड़ी बहू घर की लक्ष्मी थी।उस स्त्री ने कहा, ‘हाँ बहन ! खूब याद आई, मैं तुमसे पूछने वाली थी। उस दिन तुमने मेरे पास सखी का संदूक भेजा था न? ‘
दीदी ने उत्तर दिया, ‘हाँ बहन, बहू कह गई थी कि उसे रोहिणी को दे देना।
उस स्त्री ने कहा, ‘उसमें सब तो ठीक था, पर एक विचित्र बात थी।
दीदी ने पूछा, ‘कैसी विचित्र बात? ‘
वह कहने लगी, ‘उसे मैंने खोलकर एक दिन देखा तो उसमें एक जगह खूब हिफाजत से रेशमी रूमाल में कुछ बंधा हुआ मिला। मैं सोचने लगी, यह क्या है। कौतूहलवश उसे खोलकर मैंने देखा। बहन, कहो तो उसमें भला क्या रहा होगा? ‘
दीदी ने उत्तर दिया, ‘गहना रहा होगा।
उसने हँसकर कहा, ‘नहीं, उसमें गहना न था वह तो एक अधजली मोमबत्ती का टुकड़ा था और उसपर लिखा हुआ था मूल्य एक गिनी।
क्षण भर के लिए मैं ज्ञानशू्न्य हो गया, फिर अपने हृदय के आवेग को न रोककर मैं उस कमरे में घुस पड़ा और चिल्लाकर कहने लगा, ‘वह मेरी है; मुझे दे दो। कुछ स्त्रियाँ मुझे देखकर भागने लगीं। कुछ इधर- उधर देखने लगीं। उस स्त्री ने अपना सिर ढाँकते- ढाँकते कहा, ‘अच्छा बाबू, मैं कल उसे भेज दूंगी।
पर मैंने रात को एक दासी भेजकर उस टुकड़े को मँगा लिया। उस दिन मुझसे कुछ नहीं खाया गया।
पूछे जाने पर मैंने कहकर टाल दिया कि सिर में दर्द है। बड़ी देर तक मैं इधर- उधर टहलता रहा। जब सब सोने के लिए चले गए, तब मैं अपने कमरे में आया। मुझे उदास देखकर कमला पूछने लगी, ‘सिर का दर्द कैसा है ? ‘ पर मैंने कुछ उत्तर न दिया; चुपचाप जेब से मोमबत्ती को निकालकर जलाया और उसे एक कोने में रख दिया।
कमला ने पूछा, ‘यह क्या है ? ‘
मैंने उत्तर दिया, ‘झलमला।
कमला कुछ न समझ सकी। मैंने देखा कि थोड़ी देर में मेरे झलमले का क्षुद्र आलोक रात्रि के अनंत अँधकार में विलीन हो गया।

हिन्दी की यादगार कहानियाँ

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मुक्तिबोध की
अविस्मणीय कहानी
 गजाननमाधव मुक्तिबोध की अत्यंत चर्चित और अविस्मणीय कहानी ब्रह्मराक्षस का शिष्य1957 में नया खून में प्रकाशित हुई थी। तब से लेकर अब तक इस कहानी पर लगातार चर्चा हुई है। इस कहानी में फंतासी का प्रयोग युगांतकारी कवि कथाकार मुक्तिबोध ने खूबी के साथ किया है। ब्रह्मराक्षस का शिष्य में ही नहीं, उनकी लगभग अधिकांश कहानियों में उनकी महान कविताओं का अक्स उभर आता है। अँधेरे मेंउनकी प्रसिद्ध कविता है, इसी शीर्षक से उनकी चर्चित कहानी भी है। हिन्दी, संस्कृत एवं उर्दू की काव्य पंक्तियों का प्रयोग मुक्तिबोधजी ने अपनी कथाओं में खूब किया है। मध्यकालीन कवियों तुलसी और कबीर पर मुक्तिबोध ने शोधपरक लेखन के साथ समकालीन कवियों पर भी उन्होंने बेहद उदारतापूर्वक लिखा है। ब्रह्मराक्षस का शिष्यमध्यमवर्गीय समाज के संघर्षों की अनोखी कहानी है। मुक्तिबोध ने लिखा है, ‘हम केवल साहित्यिक दुनिया में ही नहीं, वास्तविक दुनिया में रहते हैं, इस जगत में रहते हैं।प्रखर माक्र्सवादी रचनाकार गजानन मुक्तिबोध ने इस संसार में रहने वालों के बारे में अपनी आस्था और दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में जो कुछ लिखा वह युगांतरकारी सिद्ध हुआ।
उन्हें मात्र 47 वर्षों का छोटा सा जीवन मिला। इसी जीवन काल के कुल 25-30 वर्षों का उपयोग उन्होंने लगातार लेखन के लिए किया। वे पल- प्रतिपल, सांस- सांस में संघर्षों और चुनौतियों को महसूस करते हुए जीते और लिखते रहे। ये गुएवाराने ठीक ही लिखा है- एक क्रांतिकारी चेतना वाले मनुष्य की नियति एक साथ बेहद गौरवशाली और यंत्रणादायिनी भी होती है।
1917 में श्योपुर (ग्वालियर) में जन्मे मुक्तिबोध जी ने अपने जीवन के अत्यंत महत्त्वपूर्ण सृजनात्मक वर्षों को राजनांदगाँव छत्तीसगढ़ में बिताया। वे 1964 में दिवंगत हुए। इस महान कवि का समस्त गद्य लगभग 1700 पृष्ठों में फैला है। प्रस्तुत है उनकी यह प्रसिद्ध कहानी ब्रह्मराक्षस का शिष्य’-

   ब्रह्मराक्षस का शिष्य           
 उस महाभव्य  भवन की आठवीं मंजिल के जीने से सातवीं मंजिल के जीने की सूनी- सूनी सीढिय़ों पर उतरते हुए, उस विद्यार्थी का चेहरा भीतर से किसी प्रकाश से लाल हो रहा था।
वह चमत्कार उसे प्रभावित नहीं कर रहा था, जो उसने हाल-हाल में देखा। तीन कमरे पार करता हुआ वह विशाल वज्रबाहु हाथ उसकी आँखों के सामने फिर से खिंच जाता। उस हाथ की पवित्रता ही उसके खयाल में आती किन्तु वह चमत्कार, चमत्कार के रूप में उसे प्रभावित नहीं करता था। उस चमत्कार के पीछे ऐसा कुछ है, जिसमें वह घुल रहा है, लगातार घुलता जा रहा है। वह कुछक्या एक महापण्डित की जिन्दगी का सत्य नहीं है? नहीं, वही है! वही है!!
पांचवी मंजिल से चौथी मंजिल पर उतरते हुए, ब्रह्मचारी विद्यार्थी, उस प्राचीन भव्य भवन की सूनी- सूनी सीढिय़ों पर यह श्लोक गाने लगता है।
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुव: श्यामास्तमालद्रुमै:
नक्तं भीरूरयं त्वमेव तदिमं राधे गृहं प्रापय।
इत्थं नंदनिदेशतश्चलितयो: प्रत्यध्वकुंजद्रुमं,
राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रह: केलय:।
इस भवन से ठीक बारह वर्ष के बाद यह विद्यार्थी बाहर निकला है। उसके गुरू ने जाते समय, राधा- माधव की यमुना- कूल- क्रीड़ा में घर भूली हुई राधा को बुला रहे नन्द के भाव प्रकट किये हैं। गुरू ने एक साथ श्रृंगार और वात्सल्य का बोध विद्यार्थी को करवाया। विद्याध्ययन के बाद, अब उसे पिता के चरण छूना है। पिताजी! पिताजी! माँ! माँ! यह ध्वनि उसके हृदय से फूट निकली।
किन्तु ज्यों- ज्यों वह छन्द सूने भवन में गूँजता, घूमता गया त्यों- त्यों विद्यार्थी के हृदय में अपने गुरू की तसवीर और भी तीव्रता से चमकने लगी।
भाग्यवान है वह जिसे ऐसा गुरू मिले!
जब वह चिडिय़ों के घोंसलों और बर्रों के छत्तों- भरे सूने ऊँचे सिँह- द्वार के बाहर निकला तो यकायक राह से गुजरते हुए लोग भूत- भूत कह कर भाग खड़े हुए। आज तक उस भवन में कोई नहीं गया था। लोगों की धारणा थी कि वहाँ एक ब्रह्मराक्षस रहता है।
बारह साल और कुछ दिन पहले-
सड़क पर दोपहर के दो बजे, एक देहाती लड़का, भूखा- प्यासा अपने सूखे होठों पर जीभ फेरता हुआ, उसी बगल वाले ऊँचे सेमल के वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। हवा के झोकों से, फूलों का रेशमी कपास हवा में तैरता हुआ, दूर- दूर तक और इधर- उधर बिखर रहा था। उसके माथे पर फिक्रें गुंथ- बिंध रही थीं। उसने पास में पड़ी हुई एक मोटी ईंट सिरहाने रखी और पेड़- तले लेट गया।
धीरे- धीरे, उसकी विचार- मग्नता को तोड़ते हुए कान के पास उसे कुछ फुसफुसाहट सुनाई दी। उसने ध्यान से सुनने की कोशिश की। वे कौन थे?
उनमें से एक कह रहा था, अरे, वह भट्ट। नितान्त मूर्ख है और दम्भी भी। मैंने जब उसे ईशावास्योपनिषद् की कुछ पंक्तियों का अर्थ पूछा, तो वह बौखला उठा। इस काशी में कैसे- कैसे दम्भी इकठ्ठे हुए हैं?
वार्तालाप सुनकर वह लेटा हुआ लड़का खट से उठ बैठा। उसका चेहरा धूल और पसीने से म्लान और मलिन हो गया था, भूख और प्यास से निर्जीव।
वह एकदम, बात करने वालों के पास खड़ा हुआ। हाथ जोड़े, माथा जमीन पर टेका। चेहरे पर आश्चर्य और प्रार्थना के दयनीय भाव! कहने लगा, हे विद्वानों! मैं मूर्ख हूँ। अनपढ़ देहाती हूँ किन्तु ज्ञान- प्राप्ति की महत्त्वाकांक्षा रखता हूँ। हे महाभागो! आप विद्यार्थी प्रतीत होते हैं। मुझे विद्वान गुरू के घर की राह बताओ।
पेड़- तले बैठे हुए दो बटुक विद्यार्थी उस देहाती को देखकर हँसने लगे; पूछा -
कहाँ से आया है?
दक्षिण के एक देहात से! ...पढऩे- लिखने से मैंने बैर किया तो विद्वान पिताजी ने घर से निकाल दिया। तब मैंने पक्का निश्चय कर लिया कि काशी जाकर विद्याध्ययन करूँगा। जंगल- जंगल घूमता, राह पूछता, मैं आज ही काशी पहुँचा हूँ। कृपा करके गुरू का दर्शन करवाइए।
अब दोनों विद्यार्थी जोर- जोर से हँसने लगे। उनमें- से एक, जो विदूषक था, कहने लगा-
देख बे सामने सिंहद्वार है। उसमें घुस जा, तुझे गुरू मिल जायेगा। कह कर वह ठठाकर हँस पड़ा।
आशा न थी कि गुरू बिलकुल सामने ही है। देहाती लड़के ने अपना डेरा- डण्डा संभाला और बिना प्रणाम किये तेजी से कदम बढ़ाता हुआ भवन में दाखिल हो गया।
दूसरे बटुक ने पहले से पूछा, तुमने अच्छा किया उसे वहाँ भेज कर? उसके हृदय में खेद था और पाप की भावना।
पहला बटुक चुप था। उसने अपने किये पर खिन्न होकर सिर्फ इतना ही कहा, आखिर ब्रह्मराक्षस का रहस्य भी तो मालूम हो।
सिंहद्वार की लाल- लाल बर्रें गूं- गूं करती उसे चारों ओर से काटने के लिए दौड़ी; लेकिन ज्यों ही उसने उसे पार कर लिया तो सूरज की धूप में चमकने वाली भूरी घास से भरे, विशाल, सूने आँगन के आस- पास, चारों ओर उसे बरामदे दिखाई दिये- विशाल, भव्य और सूने बरामदे जिनकी छतों में फानूस लटक रहे थे। लगता था कि जैसे अभी- अभी उन्हें कोई साफ करके गया हो! लेकिन वहाँ कोई नहीं था।
आँगन से दीखने वाली तीसरी मंजिल की छज्जे वाली मुंडेर पर एक बिल्ली सावधानी से चलती हुई दिखाई दे रही थी। उसे एक जीना भी दिखाई दिया, लम्बा- चौड़ा, साफ- सुथरा। उसकी सीढिय़ाँ ताजे गोबर से पुती हुई थीं। उसकी महक नाक में घुस रही थी। सीढिय़ों पर उसके चलने की आवाज गूंजती; पर कहीं, कुछ नहीं!
वह आगे- आगे चढ़ता- बढ़ता गया। दूसरी मंजिल के छज्जे मिले जो बीच के आँगन के चारो ओर फैले हुए थे। उनमें सफेद चादर लगी गद्दियाँ दूर- दूर तक बिछी हुई थीं। एक ओर मृदंग, तबला, सितार आदि अनेक वाद्य- यन्त्र करीने से रखे हुए थे। रंग-बिरंगे फानूस लटक रहे थे और कहीं अगरबत्तियाँ जल रही थीं।
इतनी प्रबन्ध- व्यवस्था के बाद भी उसे कहीं मनुष्य के दर्शन नहीं हुए। और न कोई पैरों की आवाजें सुनाई दीं, सिवाय अपनी पग- ध्वनि के। उसने सोचा शायद ऊपर कोई होगा।
उसने तीसरी मंजिल पर जाकर देखा। फिर वही सफेद- सफेद गद्दियाँ, फिर वही फानूस, फिर वही अगरबत्तियाँ। वही खाली-खालीपन, वही सूनापन, वही विशालता, वही भव्यता और वही मनुष्य- हीनता।
अब उस देहाती के दिल में से आह निकली। यह क्या? वह कहाँ फँस गया; लेकिन इतनी व्यवस्था है तो कहीं कोई और जरूर होगा। इस खयाल से उसका डर कम हुआ और वह बरामदे में से गुजरता हुआ अगले जीने पर चढऩे लगा।
इन बरामदों में कोई सजावट नहीं थी। सिर्फ दरियाँ बिछी हुई थीं। कुछ तैल- चित्र टंगे थे। खिड़कियाँ खुली हुई थीं जिनमें- से सूरज की पीली किरणें आ रही थीं। दूर ही से खिड़की के बाहर जो नजर जाती तो बाहर का हरा- भरा ऊँचा- नीचा, ताल- तलैयों, पेड़ों- पहाड़ों वाला नजारा देखकर पता चलता कि यह मंजिल कितनी ऊंची है और कितनी निर्जन।
अब वह देहाती लड़का भयभीत हो गया। यह विशालता और निर्जनता उसे आतंकित करने लगी। वह डरने लगा। लेकिन वह इतना ऊपर आ गया था कि नीचे देखने ही से आँखों में चक्कर आ जाता। उसने ऊपर देखा तो सिर्फ एक ही मंजिल शेष थी। उसने अगले जीने से ऊपर की मंजिल चढऩा तय किया।
डण्डा कन्धे पर रखे और गठरी खोंसे वह लड़का धीरे- धीरे अगली मंजिल का जीना चढऩे लगा। उसके पैरों की आवाज उसी से जाने क्या फुसलाती और उसकी रीढ़ की हड्डी में- से सर्द संवेदनाएँ गुजरने लगतीं।
जीना खत्म हुआ तो फिर एक भव्य बरामदा मिला, लिपा- पुता और अगरू- गन्ध से महकता हुआ। सभी ओर मृगासन, व्याघ्रासन बिछे हुए। एक ओर योजनों विस्तार- दृश्य देखती, खिड़की के पास देव- पूजा में संलग्न- मन मुंदी आंखों वाले ऋषि- मनीषि कश्मीर की कीमती शाल ओढ़े ध्यानस्थ बैठे।
लड़के को हर्ष हुआ। उसने दरवाजे पर मत्था टेका। आनन्द के आँसू आँखों में खिल उठे। उसे स्वर्ग मिल गया।
ध्यान- मुद्रा भंग नहीं हुई तो मन- ही- मन माने हुए गुरू को प्रणाम कर लड़का जीने की सर्वोच्च सीढ़ी पर लेट गया। तुरन्त ही उसे नींद आ गयी। वह गहरे सपनों में खो गया। थकित शरीर और सन्तुष्ट मन ने उसकी इच्छाओं को मूर्त- रूप दिया। ..वह विद्वान बन कर देहात में अपने पिता के पास वापस पहुँच गया है। उनके चरणों को पकड़े, उन्हें अपने आँसुओं से तर कर रहा है और आर्द्र-हृदय हो कर कह रहा है, पिताजी! मैं विद्वान बन कर आ गया, मुझे और सिखाइए। मुझे राह बताइए। पिताजी! पिताजी! और माँ आँचल से अपनी आँखें पोंछती हुई, पुत्र के ज्ञान- गौरव से भर कर, उसे अपने हाथ से खींचती हुई गोद में भर रही है। साश्रुमुख पिता का वात्सल्य- भरा हाथ उसके शीश पर आशीर्वाद का छत्र बन कर फैला हुआ है।
वह देहाती लड़का चल पड़ा और देखा कि उस तेजस्वी ब्राह्मण का दैदिप्यमान चेहरा, जो अभी- अभी मृदु और कोमल होकर उस पर किरणें बिखेर रहा था, कठोर और अजनबी होता जा रहा है।
ब्राह्मण ने कठोर होकर कहा, तुमने यहाँ आने का कैसे साहस किया? यहाँ कैसे आये?
लड़का आतंकित हो गया। मुँह से कोई बात नहीं निकली।
ब्राह्मण गरजा, कैसे आए? क्यों आए?
लड़के ने मत्था टेका, भगवन! मैं मूढ़ हूं, निरक्षर हूँ, ज्ञानार्जन करने के लिए आया हूँ।
ब्राह्मण कुछ हँसा। उसकी आवाज धीमी हो गयी किन्तु दृढ़ता वही रही। सूखापन और कठोरता वही।
तूने निश्चय कर लिया है?
जी!
नहीं, तुझे निश्चय की आदत नहीं है। एक बार और सोच ले! ...जा फिलहाल नहा-धो उस कमरे में, वहँं जा और भोजन कर लेट, सोच-विचार! कल मुझ से मिलना।
दूसरे दिन प्रत्युष काल में लड़का गुरू से पूर्व जागृत हुआ। नहाया-धोया। गुरू की पूजा की थाली सजायी और आज्ञाकारी शिष्य की भांति आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। उसके शरीर में अब एक नयी चेतना आ गयी थी। नेत्र प्रकाशमान थे।
विशालबाहु, पृथु-वक्ष तेजस्वी ललाटवाले अपने गुरू की चर्या देखकर लड़का भावुक रूप से मुग्ध हो गया था। वह छोटे-से-छोटा होना चाहता था कि जिससे लालची चींटी की भांति जमीन पर पड़ा, मिट्टी में मिला, ज्ञान की शक्कर का एक-एक कण साफ देख सके और तुरंत पकड़ सके!
गुरू ने संशयपूर्ण दृष्टि से देख उसे डपट कर पूछा, सोच-विचार लिया?
जी! की डरी हुई आवाज!
कुछ सोच कर गुरू ने कहा, नहीं, तुझे निश्चय करने की आदत नहीं है। एक बार पढ़ाई शुरू करने पर तुम बारह वर्ष तक फिर यहँं से निकल नहीं सकते।
सोच-विचार लो। अच्छा, मेरे साथ एक बजे भोजन करना, अलग नहीं!
और गुरू व्याघ्रासन पर बैठकर पूजा-अर्चना में लीन हो गये। इस प्रकार दो दिन और बीत गये। लड़के ने अपना एक कार्यक्रम बना लिया था, जिसके अनुसार वह काम करता रहा। उसे प्रतीत हुआ कि गुरू उससे सन्तुष्ट हैं।
एक दिन गुरू ने पूछा, तुमने तय कर लिया है कि बारह वर्ष तक तुम इस भवन के बाहर पग नहीं रखोगे?
नतमस्तक हो कर लड़के ने कहा, जी!
गुरू को थोड़ी हँसी आयी, शायद उसकी मूर्खता पर या अपनी मूर्खता पर, कहा नहीं जा सकता। उन्हें लगा कि क्या इस निरे निरक्षर के आँखें नहीं है? क्या यहाँ का वातावरण सचमुच अच्छा मालूम होता है? उन्होंने अपने शिष्य के मुख का ध्यान से अवलोकन किया।
एक सीधा, भोला-भाला निरक्षर बालमुख! चेहरे पर निष्कपट, निश्छल ज्योति!
अपने चेहरे  पर गुरू की गड़ी हुई दृष्टि से किंचित विचलित होकर शिष्य ने अपनी निरक्षर बुद्धिवाला मस्तक और नीचा कर लिया।
गुरू का हृदय पिघला! उन्होंने दिल दहलाने वाली आवाज से, जो काफी धीमी थी, कहा, देख! बारह वर्ष के भीतर तू वेद, संगीत, शास्त्र, पुराण, आयुर्वेद, साहित्य, गणित आदि- आदि समस्त शास्त्र और कलाओं में पारंगत हो जाएगा। केवल भवन त्याग कर तुझे बाहर जाने की अनुज्ञा नहीं मिलेगी। ला, वह आसन। वहाँ बैठ।
और इस प्रकार गुरू ने पूजा-पाठ के स्थान के समीप एक कुशासन पर अपने शिष्य को बैठा, परम्परा के अनुसार पहले शब्द-रूपावली से उसका विद्याध्ययन प्रारम्भ कराया।
गुरू ने मृदुता ने कहा, बोलो बेटे
राम:, रामौ, रामा: - प्रथमा
रामम् रामौ, रामान्- द्वितीया।
और इस बाल-विद्यार्थी की अस्फुट हृदय की वाणी उस भयानक नि:संग, शून्य, निर्जन, वीरान भवन में गूंज-गूंज उठती।
सारा भवन गाने लगा
राम: रामौ रामा: प्रथमा!
धीरे- धीरे उसका अध्ययन सिद्धान्तकौमुदी तक आया और फिर अनेक विद्याओं को आत्मसात् कर, वर्ष एक के बाद एक बीतने लगे। नियमित आहार- विहार और संयम के फलस्वरूप विद्यार्थी की देह पुष्ट हो गयी और आँखों में नवीन तारूण्य की चमक प्रस्फुटित हो उठी। लड़का, जो देहाती था अब गुरू से संस्कृत में वार्तालाप भी करने लगा।
केवल एक ही बात वह आज तक नहीं जान सका। उसने कभी जानने का प्रयत्न नहीं किया। वह यह कि इस भव्य- भवन में गुरू के समीप इस छोटी- सी दुनिया में यदि और कोई व्यक्ति नहीं है तो सारा मामला चलता कैसे है? निश्चित समय पर दोनों गुरू-शिष्य भोजन करते। सुव्यवस्थित रूप से उन्हें सादा किन्तु सुचारू भोजन मिलता। इस आठवीं मंजिल से उतर सातवीं मंजिल तक उनमें से कोई कभी नहीं गया। दोनों भोजन के समय अनेक विवादग्रस्त प्रश्नों पर चर्चा करते। यहाँ इस आठवीं मंजिल पर एक नयी दुनिया बस गयी।
जब गुरू उसे कोई छन्द सिखलाते और जब विद्यार्थी मन्दाक्रान्ता या शार्दूलविक्रीडि़त गाने लगता तो एकाएक उस भवन में हलके-हलके मृदंग और वीणा बज उठती और वीरान, निर्जन, शून्य भवन वह छन्द गा उठता।
एक दिन गुरू ने शिष्य से कहा, बेटा! आज से तेरा अध्ययन समाप्त हो गया है। आज ही तुझे घर जाना है। आज बारहवें वर्ष की अन्तिम तिथि है। स्नान- सन्ध्यादि से निवृत्त हो कर आओ और अपना अन्तिम पाठ लो।
पाठ के समय गुरू और शिष्य दोनों उदास थे। दोनों गम्भीर। उनका हृदय भर रहा था। पाठ के अनन्तर यथाविधि भोजन के लिए बैठे।
दूसरे कक्ष में वे भोजन के लिए बैठे थे। गुरू और शिष्य दोनों अपनी अन्तिम बातचीत के लिए स्वयं को तैयार करते हुए कौर मुँह में डालने ही वाले थे कि गुरू ने कहा, बेटे, खिचड़ी में घी नहीं डाला है?
शिष्य उठने ही वाला था कि गुरू ने कहा, नहीं, नहीं, उठो मत! और उन्होंने अपना हाथ इतना बढ़ा दिया कि वह कक्ष पार जाता हुआ, अन्य कक्ष में प्रवेश कर एक क्षण के भीतर, घी की चमचमाती लुटिया लेकर शिष्य की खिचड़ी में घी उड़ेलने लगा। शिष्य काँप कर स्तम्भित रह गया। वह गुरू के कोमल वृद्ध मुख को कठोरता से देखने लगा कि यह कौन है? मानव है या दानव? उसने आज तक गुरू के व्यवहार में कोई अप्राकृतिक चमत्कार नहीं देखा था। वह भयभीत, स्तम्भित रह गया।
गुरू ने दु:खपूर्ण कोमलता से कहा, शिष्य! स्पष्ट कर दूं कि मैं ब्रह्मराक्षस हूँ किन्तु फिर भी तुम्हारा गुरू हूँ। मुझे तुम्हारा स्नेह चाहिए। अपने मानव- जीवन में मैंने विश्व की समस्त विद्या को मथ डाला किन्तु दुर्भाग्य से कोई योग्य शिष्य न मिल पाया कि जिसे मैं समस्त ज्ञान दे पाता। इसीलिए मेरी आत्मा इस संसार में अटकी रह गयी और मैं ब्रह्मराक्षस के रूप में यहाँ विराजमान रहा।
तुम आये, मैंने तुम्हें बार- बार कहा, लौट जाओ। कदाचित् तुममें ज्ञान के लिए आवश्यक श्रम और संयम न हो किन्तु मैंने तुम्हारी जीवन- गाथा सुनी। विद्या से वैर रखने के कारण, पिता-द्वारा अनेक ताडऩाओं के बावजूद तुम गंवार रहे और बाद में माता-पिता द्वारा निकाल दिये जाने पर तुम्हारे व्यथित अहंकार ने तुम्हें ज्ञान- लोक का पथ खोज निकालने की ओर प्रवृत्त किया। मैं प्रवृत्तिवादी हूँ, साधु नहीं। सैंकड़ों मील जंगल की बाधाएँ पार कर तुम काशी आये। तुम्हारे चेहरे पर जिज्ञासा का आलोक था। मैंने अज्ञान से तुम्हारी मुक्ति की। तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मेरी आत्मा को मुक्ति दिला दी। ज्ञान का पाया हुआ उत्तरदायित्व मैंने पूरा किया। अब मेरा यह उत्तरदायित्व तुम पर आ गया है। जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।
शिष्य, आओ, मुझे विदा दो।
अपने पिताजी और माँजी को प्रणाम कहना। शिष्य ने साश्रुमुख ज्यों ही चरणों पर मस्तक रखा आशीर्वाद का अन्तिम कर- स्पर्श पाया और ज्यों ही सिर ऊपर उठाया तो वहाँ से वह ब्रह्मराक्षस तिरोधान हो गया।
वह भयानक वीरान, निर्जन बरामदा सूना था। शिष्य ने ब्रह्मराक्षस गुरू का व्याघ्रासन लिया और उनका सिखाया पाठ मन ही मन गुनगुनाते हुए आगे बढ़ गया।

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उपन्यास सम्राट प्रेमचंद
31जुलाई 1880में एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे मुंशी प्रेमचंद ने प्रारंभ में उर्दू में लेखन  किया। कुछ एक वर्षों के बाद वे हिन्दी में आए और अपनी विलक्षण प्रतिभा के दम पर युग निर्माता कथाकार, उपन्यास सम्राट कहलाए। हिन्दी कथा संसार को विश्व साहित्य के समकक्ष ले जाने वाले विलक्षण प्रतिभा के धनी मुंशी प्रेमचंद ने गोदान लिखकर भारतीय किसानों के जीवन का अविस्मर्णीय महाकाव्य रच दिया। गोदान लेखन पथ से जुड़े सभी पीढिय़ों के यात्रियों के लिए दीप स्तंभ बन गया। भारतीय समाज के अद्भुत चितेरे प्रेमचंद ने महज 56वर्षों का जीवन पाया। मगर उन्होंने इतने कम समय में ही हिन्दी कथा, उपन्यास साहित्य को शिखर पर पहुँचा दिया। वे गोर्की, लू सुन और शरदचंद्र की तरह जनमन में रच बस गये। कलम की सत्ता और महत्ता को स्थापित करने वाले वे हिन्दी के प्रथम क्रांतिकारी और सर्वपूज्य कथाकार हैं।
सामंतशाही और जातीय विषमता से संचारित ग्रामीण जीवन का चित्रण प्राय: सभी भाषाओं के रचनाकारों ने किया लेकिन उत्तर भारत के किसानों के जीवन पर मुंशी प्रेमचंद ने जो कुछ लिखा उसका सच एक सदी के बाद भी आज जस का तस हमें प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। समय आगे बढ़ गया है लेकिन स्थितियाँ यथावत हैं। परतंत्र भारत में जो दशा गरीब, पिछड़े, दलितों और किसानों की थी उसमें आज भी कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। स्वतंत्र भारत में किसानों ने कहीं अधिक आत्महत्या की है। समाज पहले से और अधिक कठोर हुआ है। खाप पंचायतों की निजी अदालतों में चमकती तलवारें आधुनिक सोच का सर कलम करती चल रही हैं। मुंशी प्रेमचंद की कहानी ठाकुर का कुआं एक अमर कहानी है। प्रस्तुत है यह मार्मिक कहानी।

     ठाकुर का कुआँ

 जोखूने लोटा मुँह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आई। गंगी से बोला- यह कैसा पानी है? मारे बास के पिया नहीं जाता। गला सूखा  जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाए देती है!
गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी। कुआँ दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था। कल वह पानी लायी, तो उसमें बू बिलकुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी। जरुर कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे कहाँ से?
ठाकुर के कुएँ पर कौन चढऩे देगा? दूर से लोग डांट बताएंगे। साहू का कुआँ गाँव के उस सिरे पर है, परन्तु वहाँ कौन पानी भरने देगा? कोई कुआँ गाँव में नहीं है।
जोखू कई दिन से बीमार है। कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला- अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता। ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूँ।
गंगी ने पानी न दिया। खराब पानी से बीमारी बढ़ जाएगी इतना जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती है। बोली- यह पानी कैसे पियोंगे? न जाने कौन जानवर मरा है। कुएँ से मैं दूसरा पानी लाए देती हूँ।
जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा- पानी कहाँ से लाएगी?
ठाकुर और साहू के दो कुएँ तो हैं। क्यों, एक लोटा पानी न भरन देंगे? 'हाथ-पाँव तुड़वा आएगी और कुछ न होगा। बैठ चुपके से। ब्राह्मण देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे, साहूजी एक के पाँच लेंगे। गरीबों का दर्द कौन समझता है! हम तो मर भी जाते हैं, तो कोई दुआर पर झांकनें नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे?’
इन शब्दों में कड़वा सत्य था। गंगी क्या जवाब देती, किन्तु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया।
रात के नौ बजे थे। थके- मांदे मजदूर तो सो चुके थे, ठाकुर के दरवाजे पर दस- पाँच बेफिक्रे जमा थे मैदान में। बहादुरी का तो न जमाना रहा है, न मौका। कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं। कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक खास मुकदमें में रिश्वत दे दी और साफ निकल गए। कितनी अकलमंदी से एक मार्केट के मुकदमें की नकल ले आए। नाजिर और मोहतिमिम, सभी कहते थे, नकल नहीं मिल सकती। कोई पचास मांगता , कोई सौ। यहां बे-पैसे- कौड़ी नकल उड़ा दी। काम करने का ढँग चाहिए।
इसी समय गंगी कुएँ से पानी लेने पहुंची।
कुप्पी की धुंधली रोशनी कुएँ पर आ रही थी। गंगी जगत की आड़ में बैठी मौके का इंतजार करने लगी। इस कुएँ का पानी सारा गाँव पीता है। किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ ये बदनसीब नहीं भर सकते।
गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा- हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊँच हैं ? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं ? यहाँ तो जितने है, एक-से-एक छंटे हैं। चोरी ये करें, जाल- फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिए की भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया। इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं। काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है। किस- किस बात में हमसे ऊचे हैं? हम गली- गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे हैं, हम ऊँचे। कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रस- भरी आँख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं!
कुएँ पर किसी के आने की आहट हुई। गंगी की छाती धक् -धक् करने लगी। कहीं देख ले तो गजब हो जाए। एक लात भी तो नीचे न पड़े। उसने घड़ा और रस्सी उठा ली और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अँधेरे साए में जा खड़ी हुई। कब इन लोगों को दया आती है किसी पर! बेचारे महँगू को इतना मारा कि महीनो लहू थूकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी। इस पर ये लोग ऊँचे बनते हैं ?
कुएँ पर दो स्त्रियाँ पानी भरने आयी थीं। इनमें बातें हो रही थीं।
'खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ। घड़े के लिए पैसे नहीं है।
हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है।
'हाँ, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडिया ही तो हैं।
'लौंडिया नहीं तो और क्या हो तुम? रोटी- कपड़ा नहीं पातीं? दस- पाँच रुपये भी छीन- झपटकर ले ही लेती हो। और लौंडियाँ कैसी होती हैं!
'मत लजाओ, दीदी! छिन- भर आराम करने को जी तरसकर रह जाता है। इतना काम किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता! यहाँ काम करते- करते मर जाओं, पर किसी का मुँह ही सीधा नहीं होता।
दोनों पानी भरकर चली गईं, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएँ की जगत के पास आयी। बेफिक्रे चले गऐ थे। ठाकुर भी दरवाजा बंद कर अंदर आँगन में सोने जा रहे थे। गंगी ने क्षणिक सुख की साँस ली। किसी तरह मैदान तो साफ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ- बूझकर न गया हो। गंगी दबे पाँव कुएँ की जगत पर चढ़ी, विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ था।
उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला। दाएँ- बाएँ चौकन्नी दृष्टि से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सूराख कर रहा हो। अगर इस समय वह पकड़ ली गई, तो फिर उसके लिए माफी या रियायत की रत्ती- भर उम्मीद नहीं। अंत में देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएँ में डाल दिया।
घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता। जरा- सी आवाज न हुई। गंगी ने दो- चार हाथ जल्दी- जल्दी मारे। घड़ा कुएँ के मुँह तक आ पहुँचा। कोई बड़ा शहजोर पहलवान भी इतनी तेजी से न खींच सकता था।
गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखे कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया। शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा।
गंगी के हाथ से रस्सी छूट गई। रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हलकोरे की आवाजें सुनाई देती रही।
ठाकुर कौन है, कौन है ? पुकारते हुए कुएँ की तरफ जा रहे थे और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी।
घर पहुँचकर देखा कि जोखू लोटा मुँह से लगाए वही मैला गंदा पानी पी रहा है।

अनकही

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 समाज का दर्पण... 
- डॉ. रत्ना वर्मा
 मासिकपत्रिका उदंती का प्रकाशन 2008 अगस्त में जब प्रारंभ किया गया था तब इसकी विषयवस्तु की रूपरेखा बनाते समय उदंती को सामाजिक सरोकारों की एक विचारवान्पत्रिका के रूप में सामने लाया गया, जिसमें समाज से जुड़े विभिन्न मुद्दों के साथ मानव जीवन को प्रभावित करने वाले रोजमर्रा के विषयों को प्रमुखता से शामिल किया गया। कला, संस्कृति, पर्यटन, पर्यावरण, जैसे विषयों को मुख्य विषय बनाकर उदंती की शानदार शुरूआत हुई थी। उदंती की पहचान जब छत्तीसगढ़ से बाहर दूसरे प्रदेशों और और देश के विभिन्न हिस्सों में बनने लगीतब उदंती के पाठकों के साथ साहित्य से जुड़े मित्रों ने आग्रह किया कि साहित्य भी समाज का ही हिस्सा है और इसमें साहित्य की प्रमुख विधाओं के लिए भी कुछ जगह होना चाहिए। विचार करने पर पाया गया कि बात बिल्कुल सही हैजब साहित्य को समाज का दर्पण माना गया है, तो उदंती को इस दर्पण से विमुख कैसे रखा जा सकता है। बस फिर क्या था धीरे-धीरे उदंती में साहित्य की विभिन्न विधाओं यथा कहानी, कविता, गीत ग़ज़ल के साथ व्यंग्य,लघुकथाओं का भी समावेश किया जाने लगा। इस परिवर्तन की अच्छी प्रतिक्रिया भी मिली, इस तरह उंदती को एक सम्पूर्ण पत्रिका का दर्जा मिल गया।
जैसा कि आप सब जानते ही हैं उदंती अपने प्रकाशन के प्रारंभ से ही वेब www.udanti.comपर भी नियमित रूप से प्रकाशित हो रही है ; जिसका परिणाम यह है कि उदंती ने हिन्दी के क्षेत्र में काम करने वाले और हिन्दी साहित्य में अपनी पहचान बना चुके न सिर्फ भारत में बल्कि विदेशों में रहने वाले हिन्दी के साहित्याकर और हिन्दी के पाठकों ने उदंती को सराहा और हर बार कुछ नया, कुछ विशेष करने के लिए प्रोत्साहित किया।
इसी के साथ उदंती के अंकों में समय- समय पर विभिन्न विषयों पर विशेष स्तंभ और विशेष अंक देने की शुरूआत भी हुई। पर्व त्योहारों में दीपावली, होली आदि के समय विशेष अंक तो प्रकाशित होते ही रहे हैं, साथ में पर्यावरण, प्रदूषण, लोक कला, संस्कृति, परम्परा को लेकर भी कई अंक संयोजित किए गए।  इस बीच साहित्य के कुछ विशेष स्तंभ और अंक भी प्रकाशित हुए जैसे कालजयी कहानियों का स्थंभ, 21वीं सदी के व्यंग्यकार स्तभ, और बाल साहित्य पर विशेष अंक। इन अंकों को विशेष सराहना मिली। उदंती के अंकों के लिए वैविध्यपूर्ण रचनाओं के चयन में भिन्न- भिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों ने हमेशा ही आगे बढ़कर सहयोग किया है, सबकी आभारी हूँ और विश्वास है आगे भी उनका सहयोग और साथ बना रहेगा।
हमारे देश में कहानीकारों की एक लम्बी सूचीहै ,जिनमें से कुछ प्रसिद्ध कहानियों  को उदंती के प्रत्येक अंक में सँजोने का प्रयास किया था।विगत सौ वर्षों की बेहद लोकप्रिय एवं ऐतिहासिक महत्त्व की कहानियों में से कुछ का चुनाव बहुत कठिन है; अत: ऐसी कहानियों को चुनने का प्रयास किया;जिनका महत्त्व सब स्वीकारते हैं। सन् 2010 में  हिन्दी की यादगार कहानी के अंतर्गत कुछ प्रसिद्ध कहानियों का सिलसिलेवार प्रकाशन हुआ, जिसका संयोजन छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ कहानीकार डॉ. परदेसी राम वर्मा ने किया।  इस स्तंभ में उन्होंने देश के15 प्रसिद्ध कथाकारों की कहानियों का चयन किया था।  उदंती के इस छोटे से अंक में सभी 15 कहानियों को समेटना तो मुश्किल है ; अत: शेष बची कहानियों को आगामी किसी अंक में देने का प्रयास किया जाएगा।
प्रत्येक कहानीकार अपनी कहानी में अपने देश काल और समय के अनुसार समाज के किसी न किसी पक्ष को छूता है। इस अंक में शामिल प्रत्येक कहानी भी अपने समय को तो दर्शाती ही हैं, आज भी उनकी प्रासंगिता कम नहीं हुई है।  आशा है पाठकों को हमारा यह प्रयास भी पसंद आएगा।                                                

इस अंक में

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उदंती- दिसम्बर 2015


जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें गति और शक्ति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य प्रेम न जागृत हो, जो हममें संकल्प और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह हमारे लिए बेकार है वह साहित्य   कहलाने का अधिकारी नहीं है।                           -प्रेमचंद 


              हिन्दी की यादगार कहानियाँ
        
   अनकही:  समाज का दर्पण  -डॉ. रत्ना वर्मा
     
     


                       
                 
     
           
     
     
       

संस्मरण विशेष

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गुरु की तलाश  
- प्राण शर्मा 
जबमैं ग्यारह - बारह साल का था तब मेरी रुचि स्कूल की पढ़ाई - लिखाई में कम और फ़िल्मी गीतों को सुनने और गाने में अधिक थी। नगीना, लाहौर, प्यार की जीत, सबक , बाज़ार, नास्तिक, अनारकली,पतंगा, समाधि, महल,दुलारी इत्यादि फिल्मों के सब के सब गीत मुझ को ज़बानी याद थे। स्कूल से आने के बाद तकरीबन हर समय उन्हें रेडियो पर सुनना  और गाना मेरी आदत हो  चुकी थी। नई सड़क , दिल्ली की एक गली जोगीवाड़ा में एक हलवाई की दुकान थी। सारा दिन वहाँ रेडियो बजता था। घर से जब फुर्सत मिलती तो मैं गीत सुनने के लिए भाग कर वहाँ  पहुँच जाता था 
फ़िल्मी गीतों को गाते- गाते मैं तुकबंदी करने लगा था और उन की धुनों पर कुछ न कुछ लिखता रहता था। ` इक दिल के टुकड़े हज़ार हुए , कोई  यहाँ  गिरा कोई वहाँ  गिरा ` और ` मैं ज़िंदगी में हर दम रोता ही रहा हूँ ` जैसे फ़िल्मी गीतों के मुखड़ों को मैंने अपने शब्दों में यूँ ढाल लिया था- मुझ को तेरा प्यार मिला ऐ दोस्त मेरे ऐ मीत मेरे, मैं ज़िंदगी में खुशियाँ भरता ही रहूँगा , भरता ही रहूँगा, भरता ही रहूँगा। 
किसी ने मेरे मन में यह बात भर दी थी कि  गीत और कविता लिखने वाले भांड होते हैं और अच्छे घरानों में उन्हें बुरी नज़रों से देखा जाता है। इसीलिए मैं बाऊ जी और बी जी से लुक- छिप कर तुकबन्दियाँ करता था और उन्हें अपने बस्ते और संदूक में संभाल कर रखता था। 
      धीरे- धीरे `कवि भांड होते हैं `की भावना मेरे दिमाग़से  निकल गई।  बाऊ जी और बी जी तो कविता के प्रेमी थे। बी जी को तो अनेक पंजाब के लोक गीत याद थे -
ढेरे ढेरे ढेरे 
तेरे मेरे पियार दीयां 
गल्लां होण संतां दे डेरे 

ढेरे ढेरे ढेरे 
सोहणी सूरत दे 
पहली रात रात डेरे 

छंद परागे आइये जाइए 
छंद परागे आला 
अकलां वाली साली मेरी 
सोहणा मेरा साला 

ये कुछ ऐसे लोक गीत थे जिन्हें बी जी उत्सवों, त्योहारों और विवाहों पर अपनी सहेलियों के साथ मिल कर गाती थीं। 
फिर भी मेरे मन में गीत- कविता को ले कर उन का भय बना रहता था। मैं नहीं चाहता  था कि उन के गुस्सा का नज़ला मुझ पर गिरे और शेरनी की तरह वह दहाड़ उठें - `तेरे पढ़ने- वढ़ने के  दिन हैं या तुकबंदी करने के ?`
बाऊ जी सनातन धर्म प्रतिनिधि सभा के प्रमुख वक्ता थे। चूँकि वह मास में बीस दिन बाहर रहते थे इसलिए उन का भय मेरे मन में उतना नहीं था जितना बी जी का। 
सोलह - सत्रह साल की उम्र तक आते - आते मैंने कविताएँ लिखनी शुरू कर दी थीं। तुकबंदी को  विदा कर दिया था। कइयों की तरह मुझ में भी यह गलत फहमी पैदा हो गई थी कि  मुझ में भरपूर प्रतिभा है और अब मैं कालिदास , सूरदास या तुलसीदास से कतई कम  नहीं हूँ। मुझे मेरी हर  रची पंक्ति भी बढ़िया लगने लगी थी। लेकिन  मेरे दोस्त नाक भौं सिकोड़ते थे। मेरी हर रचना को वे कूड़ा- कचरा समझते थे और कूड़ेदान में फेंक देने का सुझाव देते थे। मैं उन के सुझाव को एक कान से सुनता था और दूसरे कान से निकाल देता था। भला रातदिन के कड़े परिश्रम से अर्जित कमाई भी कोई फेंकता है ? मुझ को बड़ा क्लेश होता था जब कोई दोस्त मेरी अच्छी कविता को भी नकारता था। मैंने एक कविता लिखी थी -
एक नदिया बह रही है 
और तट से कह रही है 
मैंने पूरी कविता दोस्तों को सुनाई। सोचा था कि ख़ूब दाद मिलेगी। सब के चेहरों पर खुशी की लहर दौड़ जाएगी और उछल कर वे कह उठेंगे- `वाह क्या बात है ! अच्छे - अच्छे कवियों छुट्टी कर दी है तूने। मान गए तेरी प्रतिभा को !`
मेरा सोचना गलत साबित हुआ।  किसी ने मुझे घास तक नहीं डाली। एक दोस्त ने  तो जाते- जाते यह कह कर मेरा मन छलनी - छलनी कर दिया था - `कविता करना तेरे बस की बात नहीं है। बेहतर है कि गुल्ली - डंडा खेला कर या गुड्डी उड़ाया कर।`
दूसरे दोस्त भी उसका कटाक्ष सुन कर मुझ पर हँस पड़े थे। 
मेरे दोस्तों के उपेक्षा भरे व्यवहार के बावजूद भी कविता के प्रति मेरा झुकाव बरक़रार रहा।  ये दीगर बात है कि कुछ देर के लिए मुझसे कविता दूर हो गई थी। कहते हैं न- `छुटती  नहीं शराब मुंह से लगी हुई। `
एक दिन कविवर देव राज दिनेश मेरे बाऊ जी से मिलने के लिए हमारे घर आये थे। मेरे सिवाय घर में कोई नहीं था। बाऊ जी से उन का पुराना मेल था। भारत के विभाजन के पहले लाहौर में हिन्दी  कवि सम्मेलनों में  उदय शंकर भट्ट,  शम्भू नाथ शेष, हरि  कृष्ण प्रेमी, देव राज दिनेश इत्यादि कवियों की भागीदारी रहती थी। प्रोफ़ेसर वशिष्ठ शर्मा के नाम से विख्यात बाऊ जी सनातन धर्म सभा से जुड़े हुए थे और पंजाब में धर्म के साथ - साथ हिन्दी  का प्रचार - प्रसार करने वालों में थे। चूँकि वह कई कवि सम्मेलनों के प्रबंधक थे इसलिए पंजाब के सभी हिन्दी  कवियों से उन की जान-पहचान थी। 
देव राज दिनेश दूर से आये थे।  वह शायद मालवीय नगर में रहते थे और हम लाजपत नगर में तब।  वह पहलवान अधिक और कवि कम दिखते थे।  खूब भारी शरीर था उन का।  वह दरवाज़े के सहारे यूँ खड़े थे कि मुझे लगा कि वह थके - थके हैं। मैंने उन्हें अंदर आने के लिए कहा। कुर्सी पर बैठते ही उन्होंने चैन की सांस ली। हिन्दी  के प्रतिष्ठित कवि देव राज दिनेश अगर मेरे गुरु बन जाएँ ,तो व्यारे - न्यारे हो जाएँ मेरे तो। इसी सोच में मेरे मन में खुशी के लड्डू फूटने लगे थे। 
उन्होंने मुझे अपनी पास वाली कुर्सी पर बैठने के लिए कहा।  मैं पुलकित हो उठा। बातचीत शुरू हुई -
- किस क्लास में पढ़ते हो ?
- जी , प्रभाकर कर रहा हूँ। 
- आगे क्या करोगे ?
- जी , अभी कुछ सोचा नहीं। 
- तुम्हारा शौक़ क्या है ?
- जी , कविता - गीत लिखता हूँ। 
- तुम भी क्या पागल बनना चाहते हो ?
- क्या कवि पागल होते हैं ?
- लोग तो यही कहते हैं। 
- अगर कवि पागल होते हैं तो मुझे पागल बनना स्वीकार है। 
वह हँस पड़े। हँसते - हँसते मुझ से कहने लगे - `चलो अब तुम अपना कोई गीत सुनाओ। `
मैंने तरन्नुम में अपना रोमांटिक गीत उन्हें गीत  सुनाया -
घूँघट तो खोलो मौन प्रिये
क्यों बार - बार शर्माती हो 
क्यों इतना तुम इतराती हो 
मैं तो दर्शन का प्यासा हूँ 
क्यों मुझ से आँख चुराती हो 
 गीत सुन कर देव राज दिनेश कड़े शब्दों में बोले- `देखो , तुम्हारी उम्र अभी पढ़ने की है। कविता - गीत तो तुम पढ़ाई ख़त्म होने के बाद भी लिख सकते हो। हाँ ,भविष्य में कोई गीत लिखो ,तो इसबात का ध्यान रखना कि वह फूहड़ फ़िल्मी गीत जैसा नहीं हो। 
छंदों का ज्ञान हो। `जाते - जाते वह कई नश्तर मुझे चुभो गए। उन की उपदेश- भरी बातें मुझे अप्रिय लगीं। 
रात भर मैं चारपाई पर करवटें लेता रहा। सोचता रहा- `मेरा गीत उन को फ़िल्मी गीत जैसा क्यों लगा ? पढ़ाई के साथ - साथ कविता क्यों नहीं की जा सकती ? मेरे गीत में लय कहाँ भंग  होती है ? आस की एक किरण मुझ में जागी थी कि देव राज दिनेश से अच्छी कविता सीखने के गुण जानूँगा, वह भी लुप्त हो गई। 
कुछ दिनों बाद मेरा मन हल्का हुआ। अचानक एक दिन लाजपत नगर की मार्किट में एक चौबीस - पच्चीस साल के एक नौजवान मिले। लम्बे - लम्बे केश थे उनके। मैंने सुमित्रा नंदन पंत का चित्र देख रखा  था। उनके जैसा ही उन का हुलिया था। मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि वह पेशेवर कवि हैं  और कई लड़के - लड़कियों को कविता की शिक्षा देते हैं। मैं उन से बड़ा प्रभावित हुआ और कह उठा - `मैं भी आपका शिष्य बनना चाहता हूँ। `उन्होने मुझे गले से लगा लिया। बोले- `अवश्य शिष्य बनाऊँगा तुम्हें ; लेकिन--`
      `लेकिन क्या ?
      `गुरु दक्षिणा देनी पड़ेगी तुमको।`
      `गुरु दक्षिणा ?
      `जी, गुरु दक्षिणा।`
      `गुरु दक्षिणा क्या लेंगे आप ?
      `देखो, तुम अभी बच्चे जैसे हो, कमाई - वमाई तो करते नहीं होगे; इसलिए तुम से पचास रूपये लूँगा। 
पचास रुपये? सुनकर मेरे पसीने छूट गए । इतनी बड़ी रकम ! कहाँ से लाऊँगा इतनी रकम? रोज़ ही बी जी से मुझे एक रुपया ही मिलता था ज़ेब खर्च के लिए। फिर भी मैंने हाँ कह दी।  पचास रूपये की रकम मुझे एक सप्ताह में ही अदा करनी थी। जैसे - तैसे मैंने रुपये जोड़े। कुछ रूपये मैंने दोस्तों से उधार लिये और कुछ रुपये बी जी से झूठ बोलकर। मैंने रुपये इकट्ठा किये ही थे कि 
उन की पोल खुल गई।  रोज़ की तरह वह मार्केट में मिले। बोले कि उन्होंने एक नयी कविता लिखी है।  मैं सुनने के लिए बेताब हो गया। वह सुनाने लगे -
पूरब में जागा  है सवेरा 
दूर हुआ दुनिया का अँधेरा 
मैंने उनको बीच में टोक  दिया‘ये कविता क्या आपकी है ?`जवाब में वह बोले  `बिलकुल मेरी है। `
जब मैंने कहा- `ये कविता तो उर्दू के मशहूर शायर हफ़ीज़ जालंधरी की है ` तो वह सुनते  ही नौ दो ग्यारह हो गए। 
उफ़ , यहाँ भी निराशा हाथ लगी। 
कहते हैं कि सच्चा गुरु भाग्य से मिलता है।  मेरा भाग्य अच्छा नहीं था,  ऐसा मुझे लग रहा था।  फिर भी हिम्मत बटोर कर गुरु की तलाश में लगा रहा। गुरु का होना अत्यावश्यक है। कबीर दास ने लिखा भी है -
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े काके लागे पाय 
बलिहारी गुरु आपने सतगुरु दिया बताय 
एक दिन बी जी को बाऊ जी से मालूम हुआ कि मैं कविता लिखता हूँ। यह बात देवराज दिनेश ने बाऊ जी को बताई थी। बी जी ने मुझे अपने पास बिठा कर बड़ी नम्रता से पूछा - ` क्या तू वाकई कविता लिखता है ? मैंने डरते - डरते हाँ में अपना सिर हिला दिया। मैंने देखा कि उन के मुख पर मुस्कराहट छा गई है। मैं भी खिल उठा।  मैंने व्यर्थ ही कविता को लेकर अपने ह्रदय में भय पाल रखा था। उन के बोल मेरे कानों में पड़े - ` लाडले , कोई भाग्यशाली ही कविता रचता है। मैं बड़ी खुश हुई थी जब तेरे  बाऊ जी ने बताया कि तू कविता लिखता है। तूने आज तक यह बात छिपाई क्यों ? तेरे बाऊ जी तुझ से बड़े नाराज़ हैं।  देवराज जी का शुक्र है कि उन्होंने तेरे बारे में बताया। अच्छा दिखा तो सही मुझे  अपनी कविताएँ , कहाँ छिपा रखी हैं तूने ? मैं अपनी सहेलियों से मान से कहूँगी कि देखो मेरे लाडले की कविताएँ। 
       बी जी की प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं था। उनके उत्साहवर्धक वचनों को सुन कर मुझे लगा कि जैसे मैंने नए कीर्तिमान स्थापित कर लिये हैं। दौड़कर मैं अपने संदूक से कविताओं की कॉपी निकालकर ले आया।  बी जी ने कॉपी को कई बार चूमा और मस्तक से लगाया।  ये सब देखकर मैं मन ही मन झूम रहा था। वह एक साँस में कई कविताएँ - गीत पढ़ गईं।  उन की ममता बोली - `मेरा बेटा कितना होनहार है 
कविताओं और गीतों की कई पंक्तियों में उन्हें दोष नज़र आया।  वह समझाने लगीं -` देख बेटे , गुरु के ज्ञान के अलावा  अच्छा कवि  बनने के लिए अध्ययन , परख और विचार - विमर्श भी आवश्यक है। तूने लिखा है - नील गगन में तारे चमके। क्या नीले गगन में भी तारे चमकते हैं। ? तारे तो रात के अँधेरे में चमकते हैं।  एक जगह तूने यह भी लिखा है- आँधी में दीपक जलता है।जब दीपक हवा में नहीं जल पाता है, तो आँधी में क्या जलेगा ? कविता भी स्वाभाविकता की माँग करती है।तनिक विराम के बाद वह बोलीं - `मुझे एक बात याद आ रही है। भारत के बँटवारे के एक - दो साल पहले वज़ीराबाद में मेरी  एक सहेली थी - रुकसाना।
फिल्म रत्न के सभी गीत लोकप्रिय हुए थे। गीत लिखे थे डी एन मधोक ने।  एक गीत था - मिल के बिछड़ गयीं अँखियाँ , हाय रामा 
मिल के बिछड़ गयीं अँखियाँ।  रुकसाना  को इस मुखड़े में आये रामा शब्द पर ऐतराज़ था।  उनका कहना था कि रामा के स्थान पर 
अल्लाह होना चाहिए।  मुझे उस को समझाना पड़ा- देख रुकसाना , कवि ने राम के दुःखकी तरह अँखियों के दुःख का वर्णन किया है। जिस तरह सीता के वियोग का दुःख  राम को सहना पड़ा था उसी तरह प्रियतमा की अँखियों को साजन की अँखियों से मिल के बिछड़ जाने का दुःख झेलना पड़ रहा है।`
मैं दो जमातें पढ़ी बी जी में एक नया रूप देख रहा था। वह रूप जिसकी मुझे तलाश थी। 

लेखक परिचय: 13 जून 1937 को वजीराबाद (अब पाकिस्तान) में जन्म। दिल्ली विश्वविद्यालय से एम ए बी एड, 1965 से लंदन में प्रवास । वे यू.के. के लोकप्रिय शायर और लेखक है। यू.के. से निकलने वाली हिन्दी की एकमात्र पत्रिका पुरवाई में ग़ज़ल के विषय में आपने महत्त्वपूर्ण लेख लिखे हैं। उन्होंने लंदन में पनपे नए शायरों को कलम माँजने की कला सिखाई है। उनकी रचनाएँ युवा अवस्था से ही पंजाब के दैनिक पत्र, वीर अर्जुन एवं हिन्दी मिलाप में प्रकाशित होती रही हैं। वे देश-विदेश के कवि सम्मेलनों, मुशायरों तथा आकाशवाणी कार्यक्रमों में भाग ले चुके हैं। वे अपने लेखन के लिए अनेक पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं तथा उनकी लेखनी आज भी निरंतर चल रही है।  प्रकाशित रचनाएँ -सुराही (कविता संग्रह), पराया देश (कहानी संग्रह) ग़ज़ल कहता हूँ (ग़ज़ल संग्रह)। सम्पर्क:CRAKSTON CLOSE, COVENTRY CV25EB, UK,  Email-sharmapran4@gmail.com

संस्मरण विशेष

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ए टी एम कार्ड  

-शशि पाधा

पंजाब नैशनल बैंक में ‘ए टी एम’ कार्ड बनवाने के लिए गई थी मैं उस दिन। उस बैंक में किसी को जानती नहीं थी अत: अन्य लोगों की तरह फ़ार्म भरवाने वाले कलर्क के पास लगी कुर्सियों पर बैठ गई। पहले तो ऐसा नहीं होता था। एक उच्च अधिकारी की पत्नी होने के नाते सदा सीधे मेनेजर के कमरे में बैठने की अभ्यस्त थी मैं और सब काम आनन– फानन हो जाते थे; किन्तु इस बार मैं अपनी भारत यात्रा के दौरान सारे काम स्वयं करना चाहती थी। आठ साल तक अमेरिका में निवास करने के कारण यह सीख लिया था कि अपनी बारी आने पर ही आपको क्लर्क के पास जाना चाहिए। अमेरिका में तो लोग चुपचाप लाइन में खड़े रहते हैं, चाहे आपके आगे वाला व्यक्ति ,जितनी देर भी करे, अपने काम को निपटाने में। यहाँ कभी कहीं कोई धक्का मुक्की नहीं होती। कोई आपके काँधे के ऊपर से बाँह निकल कर अपने कागज-पत्र किसी खिड़की तक पहुँचाने की जुर्रत नहीं करता । अमेरिका के लोगों की इस आदत ने बहुत प्रभावित भी किया था मुझे । शायद इसीलिए आज ‘मैं मेनेजर को जानता हूँ , फोन कर दूँगा’ आदि सम्बल लेकर मैं बैंक नहीं गई थी। आज मैं एक आम भारतीय नागरिक की भाँति अपना काम करवाने गई थी । 
खैर! अपना फार्म भर कर मैंने क्लर्क को दे दिया। अब क्लर्क महोदय फोन पर किसी से बात करते रहे और आस पास की कुर्सियाँ भरती रहीं। उन्हें शायद घर में मित्र लोगों से बात करने का समय नहीं मिलता होगा , इसी लिए बच्चों के हाल चाल से लेकर घर बनवाने के लिए सीमेंट- बजरी का भाव -तोल सभी उसी ऑफिस की डेस्क पर बैठे चल रहा था । साथ में चाय की चुस्की भी । मुझे भी कोई और विशेष काम नहीं था और मैं भी भारत के किसी बैंक की शाखा के दृश्यों का आनंद ले रही थी । वैसे और करती भी तो क्या ?
तभी मेरा ध्यान पास बैठे एक नवविवाहित जोड़े की ओर चला गया। उनके कपड़े, बैग आदि सामान से लगा कि यह कोई मेहनत मजदूरी करके अपना जीवन निर्वाह करते हैं । लड़की थोड़ी शर्मीली- सी, सकुचाई सी बैठी थी और लड़का स्वाभिमान के साथ बैठा था । मुझे वैसे ही लोगों के चेहरे पढ़ कर कुछ लिखने का शौक- सा है सो मैं वहाँ बैठी बस यही कर रही थी । यूँ भी बोर होने से कुछ तो करना बेहतर ही है न ? 
क्लर्क महोदय फोन,चाय और किसी फ़ाइल में मग्न थे। अब उन्होंने शायद सोचा कि कुछ काम भी कर लिया जाए।  उन्होंने एक फार्म उस लड़के के सामने रख दिया और कहा यह फार्म भर दीजिए।’’ लड़का चुपचाप फार्म भरने लगा। अभी मेरी बारी नहीं थी। क्लर्क महोदय फिर किसी फ़ाइल में उलझ गए । लड़के ने फार्म भर के उन्हें दे दिया। उन्होंने एक सरसरी सी नज़र कागजों पे डाली और पूछा, ज्वाइंट अकाउण्ट करना है? लड़के ने हामी भरी। क्लर्क ने टेबल पर फ़ार्म रख कर लड़की की ओर  सरका दिया और कहा, यहाँ पर साइन कर दीजिए। अब लड़की ने बड़ी झिझक के साथ अपने पति की ओर देखा। लड़के ने बड़े सहज भाव से क्लर्क से कहा, जनाब! यह पढ़ी लिखी नहीं है। क्लर्क ने बड़े विस्मय से उन दोनों की ओर देखा और कहा, ठीक है फिर अँगूठा लगा दीजिए। यह सब देख सुन कर मैं तो सातवें आसामान से गिर पड़ी । मुझे लगा कि मैं शायद पचास वर्ष पहले की दुनिया में चली गई हूँ, क्योंकि मेरी दिवंगत माँ भी प्रभाकर पास थीं और अंग्रेज़ी भी पढ़ लेतीं थीं। उनके आस पास की सभी महिलाएँ थोड़ा -बहुत तो पढ़ ही लेतीं थी। हे प्रभु! यह कौन सा युग है और मैं क्या देख रही हूँ। लड़की ने दो बार अँगूठा लगाया और फ़ार्म क्लर्क को दे दिया।
मैं अपने को रोक नहीं पाई। मैंने बड़े स्नेह से उसे पूछा, क्या तुम बिलकुल ही लिखना नहीं जानती हो? उसने ना में बस सर हिला दिया।
क्या तुम कभी स्कूल नहीं गई ? एक और ना
मैंने पूछा, क्यों ? और उसने सर झुका लिया। शायद यही उसके पास उत्तर था।
 कारण कोई भी हो, मुझे इस बात से बहुत दु:ख हो रहा था । मानों उसके अनपढ़ होने की थोड़ी बहुत जिम्मेवारी मेरी भी थी; क्योंकि मैं भी तो इसी शहर, इसी समाज का अभिन्न अंग थी ।
अब मैं एटीएम कार्ड की बात भूल गई । मैंने उस लड़की से कहा, एक बात कहूँ। अभी भी देर नहीं हुई हैं । तुम किसी से कुछ तो पढ़ना लिखना सीख लो।
वो शून्य आँखों से मेरी ओर देखने लगी । उसके पति ने मेरी बात सुन कर कहा, जी, मैं भी यही चाहता हूँ । किन्तु झिझक और शर्म इसे छोड़ती ही नहीं । बचपन में ही किसी के घर काम काज के लिए छोड़ दी गई थी। इसे पढ़ने का अवसर ही नहीं मिला
मुझे कुछ सांत्वना हुई कि कम से कम पति तो सहमत है कि ये पढ़े ।
अब बारी मेरी थी । मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा, मेरी एक मित्र एक संस्था चलाती हैं; जहाँ अनपढ़ और असहाय लड़कियों को पढ़ना लिखना और अन्य काम धंधे सिखाए जाते हैं ,ताकि वो आत्म निर्भर हो सकें। मैंने सीधे उसकी आँखों  में देखकर कहा, मुझसे वायदा करो कि वहाँ जाओगी। वो मुस्कुरा दी और उसने हामी भरी ।
मैंने समय गँवाए बिना अपनी मित्र से फोन पर बात की और इस नए जोड़े को साथ लेकर मित्र की संस्था की ओर चल पड़ी। सोचा, आज एटीएम कार्ड नहीं बना, न सही, मुझे और भी आवश्यक काम करने हैं।
एक वर्ष के बाद पुन: मुझे भारत जाने का अवसर मिला। मैं बैंक में घटी इस घटना को लगभग भूल चुकी थी। भारत में सब सगे सम्बन्धियों से मिलने के बाद सोचा कि अपनी मित्र से भी मिल लूँ । उसने मुझे अपने घर बुला लिया।
वहाँ पहुँचते ही मित्र ने कहा, लो उमा से मिलो
कौन उमा मैंने कौतूहलवश पूछा ।
अरे वही तुम्हारी बैंक वाली लड़की । अब यह पढ़ती भी है और हमारे स्कूल के काम काज में हाथ भी बँटाती है
इतने में हँसती हुई  उमा आ गई। मैंने उसे गले लगा लिया। अब वो अँगूठा लगाने वाली शर्मीली -सी लड़की नहीं थी बल्कि  स्वाभिमान से दमकती हुई स्वावलंबी लड़की थी। मेरी मित्र ने हँसकर कहा, अच्छा बता, फिर तेरे एटीएम कार्ड  का क्या हुआ?
मैंने उमा का हाथ थामकर कहा, यह हैं न

लेखक परिचय: जम्मू नगर में जन्मजम्मू- कश्मीर विश्वविद्यालय से एम.ए हिन्दी ,एम.ए संस्कृत तथा बी एड की शिक्षा। 1967 में सितार वादन प्रतियोगिता में राज्य के प्रथम पुरस्कार से सम्मानित, 1968 में जम्मू विश्वविद्यालय से ऑल राउंड बेस्ट वीमेन ग्रेजुएट का पुरस्कार। 16 वर्ष तक भारत में हिन्दी तथा संस्कृत भाषा में अध्यापन का कार्य किया।  2002 में अमेरिका जाने से पूर्व भारत में एक रेडियो कलाकार के रूप में कई नाटकों और विचार-गोष्ठियों में भी सम्मिलित।  केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा पुरस्कृत्। समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।  यू.एस. से प्रकाशित प्रवासिनी के बोल एवं कैनेडा से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका हिन्दी चेतना में भी रचनाएँ प्रकाशित। सम्प्रति अमेरिका में नार्थ कैरोलिना विश्वविद्यालय में हिन्गी अध्यापन।  दो काव्य संकलन -पहली किरण और मानस-मन्थन एक प्रकाशनाधीन है। पिछले पाँच वर्षों से विभिन्न जाल पत्रिकाओं में प्रकाशन। सम्पर्क: 174/3 Trikuta Nagar Jammu, J&K,  सम्प्रति- वर्जिनियायू एस,  Email- shashipadha@gmail.com

संस्मरण विशेष

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एक स्वाभिमानी व्यक्तिः 
जवाहर चौधरी

- रूप सिंह चन्देल

मेरापरिचय उनके बड़े पुत्र से था।  बड़े पुत्र यानी आलोक चौधरी से। आलोक से परिचय पुस्तकों के संदर्भ में हुआ था। शब्दकार प्रकाशनजिसे उन्होंने 1967 में स्थापित किया थाउनकी अस्वस्थता के कारण आलोक ही संभाल रहे थे। जहाँ तक याद पड़ता है आलोक से मेरी पहली मुलाकात  हिन्दुस्तान टाइम्स बिल्डिंग में हुई थी- शायद दैनिक हिन्दुस्तान में- बात 1990 के बाद लेकिन 1993 से पहले की है। दैनिक हिन्दुस्तान के रविवासरीय में उसके सहायक सम्पादक आनन्द दीक्षित समीक्षाएँ देखते थे। दीक्षित जी बहुत ही आत्मीय व्यक्ति थे। उनसे मिलने जाने में जब भी मुझे लंबा समय बीत जातावह मुझे फोन करके शिकायत करते हुए कहतेआपके लिए कब से बहुत-सी अच्छी पुस्तकें संभालकर रखी हुई हैंकृ पुस्तकें संभालकर रखने से आभिप्राय समीक्षार्थ पुस्तकों से था। उन दिनों वहाँ और जनसत्ता में मैं नियमित समीक्षाएँ लिख रहा था। यह एक बीमारी की भाँति मेरे साथ जुड़ गया था। छपास और मुद्रालाभ की बीमारी कह सकते हैं। पाठकों की नजरों में बने रहने की लालसा भी उसके साथ जुड़ी हुई थी। परिणाम यह था कि कितने ही लोग मेरा पता जानकर अपनी पुस्तकें सीधे घर भेजने लगे थे इस अनुरोध के साथ कि मैं उन पर लिख दूँ उन दिनों कुछ प्रकाशकों का भी मैं चहेता बन गया था। उन्हीं दिनों आलोक चौधरी से मेरी मुलाकात हुई थी। कन्नड़ के मूर्धन्य लेखक एस.एल. भैरप्पा के हिन्दी में अनूदित उपन्यासों के अनुवाद शब्दकार ने प्रकाशित किए थे और आलोक से परिचय होने से पूर्व उनके कुछ उपन्यासों पर मैं समीक्षाएँ लिख चुका था। शब्दकार प्रकाशन के संस्थापक आलोक के पिता थेलेकिन वह जवाहर चौधरी थे यह मैं नहीं जानता था।
उस दिन मुलाकात के दौरान आलोक ने अपने पिता के विषय में बताया। जवाहर चौधरी जी से मिलने जाने की इच्छा प्रबल हो उठी। लेकिन समय दौड़ता रहा और मैं जा नहीं पाया। मैं मिलने जा तो नहीं पायालेकिन शब्दकार का जब भी नया सेट प्रकाशित होता आलोक कुछ खास पुस्तकों की दो प्रतियाँ मुझे भेज देते। बाद में फोन करके कहते कि पिता जी ने अर्थात जवाहर चौधरी ने उन पुस्तकों को मुझे भेजने के लिए कहा है। मुझे यह पता चल चुका था कि दैनिक हिन्दुस्तान या जनसत्ता में प्रकाशित मेरी हर समीक्षा ही नहीं मेरी कहानियाँ भी जवाहर चौधरी मनोयोग से पढ़ते थे।
जवाहर चौधरी से मिलने जाने का कार्यक्रम टलता रहा और तीन वर्ष निकल गए। मार्च 1993 में मैं अपने परिवार और अशोक आंद्रे और बीना आंद्रे के साथ मैसूरऊटी और बंगलुरू (तब बंगलौर) की यात्रा पर गया। हम सीधे मैसूर गए और वहाँ डी.आर.डी.ओ. गेस्ट हाउस में ठहरे। गेस्टहाउस चामुण्डा हिल्स के ठीक सामने बहुत रमणीय स्थल पर है। चामुण्डा हिल्स देखकर मुझे भैरप्पा के उपन्यास साक्षी की याद हो आयी।  कुछ दिनों पहले ही यह उपन्यास शब्दकार से प्रकाशित हुआ था। दिल्ली से ही मैंने भैरप्पा जी से मिलने के लिए दिन और समय तय कर लिया था। अगले दिन हमने सबसे पहला काम उनसे मिलने जाने का किया था। बातचीत में भैरप्पा जी ने जवाहर चौधरी की जो प्रशंसा की उसने मुझे दिल्ली लौटकर उनसे मिलने के लिए और प्रेरित किया था। भैरप्पा के हिन्दी में अनूदित सभी उपन्यास शब्दकार से ही क्यों प्रकाशित हुएमेरे इस प्रश्न के उत्तर में भैरप्पा जी ने कहा थाजवाहर चौधरी मेरे मित्र हैं। जब तक वह उपन्यास प्रकाशित करने से इंकार नहीं करेंगे- मैं उन्हें ही देता रहूँगा। वह रॉयल्टी दें या नहीं।
जवाहर चौधरी के प्रति भैरप्पा जी के ये उद्गार उनकी मित्रता की प्रगाढ़ता को  उद्घाटित कर रहे थे। मुझे बाद में मालूम हुआ  कि कमलेश्वर की कई पुस्तकें शब्दकार से प्रकाशित हुई थीं और कमलेश्वर ने भी उनसे रॉयल्टी लेने से इंकार कर दिया था। इससे इन लोगों के साथ जवाहर चौधरी की मित्रता की प्रगाढ़ता का अनुमान लगाया जा सकता है। भैरप्पा  जी के कथन ने मुझे इतना उत्साहित किया कि यात्रा से लौटकर मैं अपने को रोक नहीं पाया। एक दिन मैं गुरु अंगद नगर (जो दिल्ली के प्रसिद्ध लक्ष्मीनगर के निकट है) आलोक के घर जा पहुँचा। चौधरी परिवार उस मकान में भूतल में रहता था। दरवाजे के सामने छोटा-सा आंगन था। आंगन के पूरब की ओर दो कमरे थे। पहले कमरे में चारपाई पर उम्रदराज एक व्यक्ति लेटा हुआ था। वही जवाहर चौधरी थे। वह पक्षाघात का शिकार होकर शैय्यासीन थे। कृशकायलेकिन चेहरे पर ओज और चौतन्यता। मध्यम कदचकमती हुई आँखें और गोरा-चिट्टा चेहरा। मैंने सोचाअपनी जवानी में वह निश्चित ही बहुत ही सुन्दर और आकर्षक रहे होंगे।
जवाहर चौधरी का जन्म 7 मार्च1926 को हुआ था। गुरुअंगदनगर के जिस मकान में मैं उनसे मिला वह किराए पर था और वहाँ वह 1985 में शिफ्ट हुए थे। शिफ्ट होने के कुछ दिनों बाद ही 1986 के प्रारंभ  में उन्हें पक्षाघात का अटैक हुआ और वह एक प्रकार से शैय्यासीन हो गए थेलेकिन उस स्थिति में भी वह प्रकाशन के काम में रुचि लेते थे। वास्तव में वह बहुत ही कर्मठविद्वानसाहित्य प्रेमीमित्रजीवी और जीवन्त व्यक्ति थे।  उनके परिचितों और मित्रों से सुनी उनकी इन विशेषताओं ने भी मुझे उस नेक इंसान से मिलने के लिए प्रेरित किया था और एक मुलाकात ने ही मुझ पर उनकी जो अमिट छाप छोड़ी वह आज तक अक्षुण है।     
मुझे आया देख चौधरी साहब ने  उठने का प्रयास कियालेकिन उठ नहीं पाए। मैं उनके निकट बैठ गया। लम्बी बातें हुईकृमेरे लेखनपरिवार से लेकर नौकरीदेशसमाज और राजनीति की। उन्होंने शब्दकार  को लेकर चिन्ता व्यक्त की। चिन्ता व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर थी। पुस्तक खरीद में भारी रिश्वतखोरी को लेकर थी। उन्होंने तब कहा था कि स्थिति यदि यही रही तो अच्छा साहित्य छपना बंद हो जाएगा। स्पष्ट है कि उनकी यह चिन्ता अपने प्रकाशन की पुस्तकों की बेच से सम्बन्धित भी थी। बहुत ही उल्लेखनीय साहित्य उन्होंने प्रकाशित किया था। शब्दकार की सूची में महत्तवपूर्ण  लेखक थेलेकिन खरीद अधिकारियों को रिश्वत दे पाने की अक्षमता के कारण प्रकाशन की स्थिति अच्छी न थी। जब तक वह स्वस्थ रहे अपने प्रभाव से ठीक-ठाक काम कियालेकिन अस्वस्थ होते ही शब्दकार लडख़ाने लगा था।
यद्यपि जवाहर चौधरी लेखक नहीं थेलेकिन अच्छे साहित्य और अच्छे साहित्यकारों की उन्हें पहचान थी। उनके दौर के अनेक हिन्दी और गैर हिन्दी लेखक उनके अभिन्न मित्र थे। अक्षर प्रकाशन प्रारंभ करने से पूर्व वह कई प्रकाशकों के लिए काम कर चुके थे। कहते हैं कि भारतीय ज्ञानपीठ को बनारस से दिल्ली लाने का श्रेय उन्हें ही था। ज्ञानपीठ के दिल्ली स्थानांतरित होने पर वह उसके पहले प्रबन्धक नियुक्त हुए थेलेकिन चूंकि वह बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति थे इसलिए लम्बे समय तक भारतीय ज्ञानपीठ को उनकी सेवाएँ नहीं प्राप्त हो सकी थीं। उन्होंने रंगभूमि पत्रिका में भी कुछ दिनों तक काम किया था और 28 दिन राजकमल प्रकाशन में भी रहे थे। कुछ दिन आत्माराम एण्ड संस में भी कार्य कियालेकिन वह कहीं भी अधिक दिनों तक नहीं टिके। व्यक्ति का व्यावहारिक होना और मृदुभाषी होना अलग बात है लेकिन इन गुणों के बावजूद स्वाभिमानी व्यक्ति समझौते नहीं कर पाते. जवाहर चौधरी भी नहीं कर पाते रहे।
जवाहर चौधरी प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव भी रहे थे। अक्षर प्रकाशनजहाँ आज हंस पत्रिका का कार्यालय हैके  वह संस्थापक सदस्यों में से एक और उसके प्रथम मैनेजिंग डायरेक्टर थे.. यह बात उस दिन जवाहर चौधरी ने ही मुझे बतायी थी कि अक्षर प्रकाशन में पूंजी लगाने के लिए उन्होंने अपना 208 वर्ग गज का ग्रेटर कैलाश का प्लॉट बेच दिया था. ग्रेटर कैलाश नई दिल्ली के उन इलाकों में है जहाँ आज उस प्लॉट की कीमत करोड़ों में होती।
मैं जब जवाहर चौधरी  से मिलकर वापस लौट रहा था तब मन में एक ही बात उमड़- घुमड़ रही थी कि सहज और सरल व्यक्ति जीवन में असफल क्यों रहते हैं! जवाहर चौधरी  बहुत ही सरल व्यक्ति थे। उन्होंने मित्र बहुत बनाए लेकिन लाभ किसी से भी नहीं उठाया. परिणामतरू स्थितियाँ खराब होती गयीं और एक दिन प्रकाशन ठप होने के कगार पर पहुँच गया।
और 20 नवम्बर1999 को उनकी मृत्यु के पश्चात शब्दकार बंद हो गया। बाद में आलोक को उसे बेचना पड़ा। लेकिन अक्षर प्रकाशन हो या शब्दकारनाम लेते ही जानकार लोगों के जेहन में जवाहर चौधरी का नाम घूमने लगता है।




लेखक परिचय: 12 मार्च, 1951 को कानपुर (उ.प्र.) के गाँव नौगवां (गौतम) में जन्म, कानपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में पी- एच.डी.। अब तक 47 पुस्तकें, जिनमें 8 उपन्यास, 12 कहानी संग्रह, तीन किशोर उपन्यास, आलोचना, यात्रा संस्मरण, बाल साहित्य, लघुकथा, संस्मरण आदि सम्मिलित।  महान रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय के अंतिम उपन्यास 'हाजी मुरादका अनुवाद और  'दॉस्तोएव्स्की के प्रेमपुस्तकें संवाद प्रकाशन से प्रकाशित 'लियो तोल्स्तोय का अंतरंग संसार (तोल्स्तोय पर संस्मरण), गलियारे(उपन्यास) और 'यादों की लकीरें (संस्मरण- भाग एक) प्रकाश्य। अनेक रचनाओं के अंग्रेजी, पंजाबी, बांग्ला, गुजराती और असमिया भाषाओं में अनुवाद। सम्पर्क: बी-3/230, सादतपुर विस्तार, दिल्ली-110 094, मो. 09811365809, 08285575255,  Email- roopchandel@gmail.com, rupchandel@gmail.com

संस्मरण विशेष

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शेक्सपियर को 
खेलते और पढ़ते हुए
- विनोद साव
वर्ष1966से 1972के बीच हम शासकीय उच्चतर माध्यमिक शाला, पाटन के छात्र थे और हमारे पिता अर्जुन सिंह साव वहाँ  के प्राचार्य थे। पिता ने हमें शेक्सपियर के नाटकों को खेलना सिखाया था। पिता में रंगमंच की कला नागपुर से आई थी। दुर्ग में जनमें और स्नातकोत्तर तक शिक्षा ग्रहण किये पिता ने नागपुर से बी.टी. और रायपुर से पी.जी.बी.टी. किया था। वे पूरी तरह से शहरी, कलाप्रेमी और आधुनिक विचारों से संपन्न व्यक्ति थे।  तब पाटन दुर्ग जिले में बसा पूरी तरह से ग्राम्य बोध से भरा एक गाँव था। उस गाँव के स्कूल में छात्रों से अंग्रेजी के नाटकों को खेलवाया जाना प्राचार्य पिता का एक क्रांतिकारी कदम था और स्कूल से संस्कारित होने वाले गाँव के दर्षकों को ये नाटक देखते समय एकबारगी अंग्रेजों के किसी गाँव में होने का अहसास हुआ था। वे अपने गाँव के बच्चों को शेक्सपियर के नाटक मर्चेन्ट ऑफ वेनिसके शैलाक, एँ टोनी और पोर्टियों जैसे चरित्रों में ढलकर उन्हें धड़ -धड़ अंग्रेजी बोलते हुए किंकर्तव्य-विमूढ़ होकर देख रहे थे।
तब पाटन स्कूल में हर साल होने वाले सोशल गेदरिंग में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बीच हिन्दी, अंग्रेजी के कुछ नाटकों का भी मंचन करवाया जाता था। इनमें शेक्सपियर का नाटक मर्चेन्ट ऑफ वेनिसऔर नार्मन मेकनिल का द बिशप्स केंडल स्टिक्सको हम छात्रोंने खेला था। द बिशप्स केंडल स्टिक्सविक्टर ह्यूगो के प्रसिद्ध उपन्यास ले मिजरेबलपर आधारित था। इसका नाट्य रुपांतर नार्मन मेकनिल ने किया था। ले मिजरेबलहमारे अंग्रेजी स्नातक के पाठ्यक्रम में था। ये दोनों नाटक उस समय स्कूल में चलने वाली किताब इंग्लिशप्रोज एवं वर्समें शामिल थे और ग्यारहवीं कक्षा के अंग्रेजी विषय को जब हमारे प्राचार्य पढ़ाया करते थे,तब शेक्सपियर के नाटकों के संवादों को वे पूरी तरह ड्रामेटिक-कॉमेडी स्टाइल में पढ़ाया करते थे और कक्षा को मंच मानकर इधर उधर तेजी से चहलकदमी करते हुए नाटक के अलग-अलग पात्रों के संवादों को मुँह घुमाकर चेहरे की भाव-भंगिमा बदलते हुए बोला करते थे। इससे अंग्रेजी विषय और शेक्सपियर को पढ़ते-सुनते समय हम सब छात्र एक अलग वायावी दुनिया में पहुँच जाते थे। प्राचार्य की इन्हीं भंगिमाओं ने छात्रों को अंग्रेजी के नाटकों को खेलने और उनके पात्रों को अभिनीत करने की साहसिक प्रेरणा दी थी।
हिन्दी और दूसरी कई भाषाओं के साहित्य में नाटक ,जहाँ  एक दरिद्र विधा रही ,वहीं अंग्रेजी में यह सबसे समृद्ध विधा रही और अंग्रेजी साहित्य के इतिहास में जो दो सबसे बड़े लेखक जाने माने गए वे शेक्सपियर और बर्नार्ड शॉ थे और ये दोनों लेखक दर्जनों की संख्या में लिखे गए अपने विलक्षण नाटकों के कारण जाने गये। बर्नार्ड-षॉ के व्यक्तित्व और जीवन शैली पर उनकी महिला सेक्रेटरी ब्लांश पैच की किताब थर्टी इयर्स विद शॉपढ़ने को मिली थी जो बेहद रोचक थी। यह मानी हुई बात है कि दुनिया की कोई दूसरी भाषा शेक्सपियर और शॅा पैदा नहीं कर सकी। यहाँ  यह उल्लेखनीय है कि बीसवीं सदी में हमारे देश में मराठी भाषा के साहित्य में जो शीर्ष स्थान के लिए नाम दिखा वह नाटककार विजय तेंदुलकर का है और उनका यह स्थान भारत की समग्र भाषाओं में रचित आधुनिक नाटकों के बीच बरकरार है।
अपने छात्र जीवन में खेले गए और टेक्स्ट बुक में पढ़े नाटकों के कारण शेक्सपियर से एक जुड़ाव तो हो ही गया था और जहाँ  भी उनकी कृतियों पर कोई चर्चा होती हम उनमें जरूर शामिल होते या कोई फिल्म बनती तो हम उन्हें जरुर देखते थे। मुझे निजी तौर पर शेक्सपियर के दो नाट्य उपन्यासों से रू--रू होने का मौका मिला - इनमें से एक द ट्वेल्थ नाइटथा और दूसराएज यू लाइक इट। ये दोनों नाटक सुखान्त नाटकों की श्रेणी में आते हैं जबकि शेक्सपियर की शख्सियत उनके दुखान्त नाटकों से है। इनमें द ट्वेल्थ नाइटकी किताब अंग्रेजी के दो रूपों में थी। उसका बॉया पृष्ठ शेक्सपियर की मूल भाषा में था जिसे शेक्सपियराना इंग्लिश कहते हैं और दाहिना पृष्ठ इंडियन इंग्लिश में रुपांतरित था।
दूसरा उपन्यास एज यू लाइक इटका हिन्दी रुपांतर पढ़ने को मिला। इसका रुपांतर प्रसिद्ध उपन्यासकार रांगेय राघव ने किया है। नाटक का मूल स्रोत फ्रांसीसी उपन्यास से लिया गया है जिसमें उपदेशात्मक रूप में बताया गया है कि भाग्य की देवी सद्गृहिणी मानी जाती थी, और वह एक चक्र निरंतर घुमाती रहती थी ; क्योंकि वह अंधी थी।यह एक प्रेमकथा है जिसमें कहा गया है कि प्रतिकार से संधि भली है और भलाई की अंत में जीत होती है।
नाटकों की सफलता उनके व्यंग्य की तीक्ष्णता में होती है। अगर संवादों में गहरे व्यंग्य हैं; तो वह जल्दी संप्रेषित होता है और दर्शकों पर गहरे प्रभाव छोड़़ता है। यह शेक्सपियर और बर्नार्ड शॉ के संवादों में खूब देखा जा सकता है। शेक्सपियर के कई नाटकों में एक विदूषक (क्लाउन) होता है जो उनके नाटक को विनोद-प्रियता से भर देता है। इस विदूषक की खासियत यह होती है कि वह मूर्खतापूर्ण हरकतों को करते समय भी बड़ी -बड़ी बातों को सहजता से कह जाता है। द ट्वेल्थ नाइटका विदूषक तो पूरे समय पाठकों- दर्शकों को बाँधे रखता है। इस नाटक का एक संवाद याद आ रहा है कि जब विदूषक अपनी अवहेलना होते देख कह उठता है बैटर ए विटी फूल दैन ए फुलिश विट।प्रेम के मामले में अपने दर्शन बघारते हुए वह एक भावुक पात्र से कहता है कि अभी मिलने वाले आनंद को भोग लो - तुम्हारे प्रेम का भविष्य अन्धकारमय है।
इस कॉमेडी नाटक के सभी पात्र मजेदार संवाद बोलते हैं। नाटक की नायिका वायला जब एक धनी सामन्त ओलिवा से मिलती है तब अपना सन्देश देना चाहती है। उसे सामन्त पूछता कि इज इट सीक्रेट?’ तब वायला बोल उठती है यस... माय मैसेज आर सीक्रेट्स लाइक द वर्जिनिटी ऑफ मेडन (मेरा संदेश उतना ही गुप्त है जितना किसी किशोरी का कौमार्य)। शेक्सपियर के इस नाटक में भारतीय रत्न की महिमा भी एक संवाद से प्रकट होती है जिसमें एक सुन्दरी को इस उपमा के साथ उत्साहित किया जाता है, ‘हाउ नाउ! माई मेटल ऑफ इण्डिया (क्या खबर लाई हो मेरी हिन्दुस्तानी सोनपरी)!
मेरे द्वारा पढ़े गए शेक्सपियर के दूसरे नाटक एज यू लाइक इटमें जो विदूषक है उसका नाम टच स्टोनहै। कोरिन नाम का चरवाहा टच स्टोन से कहता है कि सुनो! जिसे राजदरबार में शिष्टाचार माना जाता है वैसा व्यवहार गाँव वालों के बीच हास्यास्पद माना जाता है।’ (चरवाहा अंग्रेजी काव्य में ग्रीक काव्य की परंपरा की भाँति रोमांस का द्योतक है। उसका जीवन आनंदमय, चिंताहीन समझा जाता है। संभवतः यह बात दुनिया के सभी चरवाहों पर लागू होती है)।
इस नाटक में टच स्टोन अपनी राजकुमारी रोजालिंड की महिमा गाते हुए उसकी विशेषता बताता है कि वह बिल्ली की तरह अपनी स्त्री जाति की सहेलिया ही पसंद करती है। वह सुन्दर गुलाब है - जो इसे चाहता है वह उसके काँटों के लिए भी तैयार रहे।विदूषक का पात्र इस नाटक में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वह वास्तव में बड़ा चतुर व्यक्ति है। हास्य में शेक्सपियर ने दो अर्थी वाले शब्दों का प्रयोग भी किया है।
इस नाटक में राजकुमारी अपने पिता ड्यूक फ्रैडरिक के दुश्मन के पुत्र ऑरलेंडो से प्यार करती थी। पिता फ्रैडरिक उस युवक के शौर्य से बड़े प्रभावित थे ,पर जब पता चलता है कि वह उनके दुश्मन का बेटा है तो नि:श्वास भरते हुए दु:खी मन से कहते हैं किकाश... तुम किसी दूसरे पिता के पुत्र होते।तब ऑरलेंडो का मित्र आदम उससे कहता है कि कभी कभी मनुष्य के सद्गुण उसके शत्रु बन जाते हैं। आपके सराहनीय सद्गुण ही आपके साथ विश्वासघात कर रहे हैं।इस तरह शेक्सपियर के नाटकों के सिचुएशनअपने मार्मिक संवाद खुद तय कर लेते थे।
एज यू लाइक इटमें रोजालिंड ऑरलेंडों से एक जगह पूछती है सुनो... इस समय घड़ी मे क्या बजा है?’ (तब आलोचकों ने यह प्रश्न उठाया था कि जिस कालखण्ड की यह कहानी है उस समय घड़ी का आविष्कार हुआ था क्या?)। आज तो ये दशा है कि हम कितने ही पौराणिक और ऐतिहासिक धारावाहिकों में रोज रोज कालखण्डों को खण्डित होते देख रहे हैं और आज के समयानुसार उनके गहनों, वस्त्रों, केश-विन्यासों और सर्व-सुविधायुक्त महलों को दिखा रहे हैं, जिनकी हजारों साल पहले कोई प्रामाणिक उपस्थिति नहीं थी। अतः किसी ऐतिहासिक नाटक में किसी वस्तु को लेकर इस तरह से उँगली उठाने का कोई विशेष औचित्य नहीं है।
सोलहवीं सदी में जब शेक्सपियर थे, तब यह महारानी एलिजाबेथ का शासन काल था। उस समय हिन्दी  साहित्य का भक्ति काल जायसी, सूर और तुलसीदास से जगमगा रहा था। शेक्सपियर का उपहास करने वाले उनके समकालीन आलोचक सब लुप्तप्राय हो गए, पर शेक्सपियर आज भी दैदीप्यमान हैं। यह दुनिया की हर भाषा के लिए एक चुनौती रही कि अगर किसी भाषा में शेक्सपियर के नाटकों का अनुवाद नहीं हुआ ,तो इसका यह आशय है कि वह भाषा उन्नत भाषा नहीं है। उनके नाटक राजकुमारी रोजालिंड एक संवाद में यह कहती है, इसे शेक्सपियर के नाटकों के सन्दर्भ में भी देखा जा सकता है: यदि यह सत्य है कि एक अच्छी शराब के लिए किसी सिफारिश की जरुरत नहीं होती, तो यह भी सत्य है कि एक अव्छे नाटक के लिए किसी उपसंहार की आवश्यकता नहीं रहती।
रवींद्रनाथ त्यागी कहते हैं कि रूप, प्रणय और सौन्दर्य के सर्वश्रेष्ठ कवि कालिदास व जयदेव ही हैं ,पर नाटकों की दुनिया में हमारा कोई भी नाटककार विलियम शेक्सपियर की बराबरी नहीं करता। इसका कारण हमारे नाट्य-शास्त्र के वे सिद्धांत हैं; जिनके अनुसार यह अनिवार्य था कि नाटक सुखान्त ही हों; जबकि शेक्सपियर अपने दु:खान्त नाटकों में ही सबसे ज्यादा प्रभाव छोड़ कर बाजी मार ले जाते हैं।

लेखक परिचय:20सितंबर 1955को दुर्ग में जन्म। समाजशास्त्र विषय में एम.ए. हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र से हाल ही में सेवानिवृत्त हुए हैं। हिन्दी व्यंग्य के क्षेत्र में उन्होंने अपनी पहचान बनाई बाद में उपन्यास, कहानियाँ और यात्रा वृतांत लिखकर चर्चा में रहे।  उनके दो उपन्यास- चुनाव, भोंगपुर-30कि.मी.तीन व्यंग्य संग्रह- मेरा मध्यप्रदेशीय हृदय, मैदान-ए-व्यंग्य और हार पहनाने का सुख, संस्मरण- आखिरी पन्नायात्रा-वृत्तांत- मेनलैंड का आदमी व कहानियों के संग्रह सहित अब तक कुल बारह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्हें वागीश्वरी और अट्टहास सम्मान सहित कई पुरस्कार मिल चुके हैं। सम्पर्क:मुक्त नगर, दुर्ग मो. 9407984014, Email- vinod.sao1955@gmail.com

संस्मरण अंक

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डॉ. शैलेन्द्र कुमार त्रिपाठी

तब नहीं पता था उनसे वह अंतिम भेंट होगी

-सुधेश

शान्ति निकेतन के विश्वभारती विश्व विद्यालय के हिन्दी भवन में हिन्दी के प्रोफ़ेसर और विभागाध्यक्षडा शैलेन्द्र त्रिपाठी का निधन 27 जनवरी 2015 को गोरखपुर में हो गया। यह दु:खद समाचार पाकरमेरा दुखी होना स्वाभाविक थाक्योंकि वे मेरे अच्छे मित्र थे। वे विगत एक वर्ष से रक्त कैन्सर सेपीड़ित थे। इलाज के बावजूद उन को बचाया नहीं जा सका। अब क्या किया जा सकता है उन्हें श्रद्धांजलि देने के सिवा और उन की यादों में खो जाने के सिवा।
उन से मेरा परिचय लगभग एक दशक पहले उन के द्वारा सम्पादित त्रैमासिक पत्रिका सरयू धाराके माध्यम से हुआ। न जाने कैसे सरयू धारा का कोई अंक मेरे हाथ लग गया। उसमें अन्य सामग्रीके साथ कविताएँ प्रचुर मात्रा में थीं और कुछ श्रेष्ठ कविताएँ थीं। मुझे लगा कि कविता को हाशियेपर धकेले जाने के युग में बंगाल से एक पत्रिका निकल रही है, जो मुझे कविता प्रधान लगी। मैं नेअपनी कुछ कविताएँ उन्हें भेज दींजो अगले अंक में सम्पादक की टिप्पणी के साथ छपीं। फिरत्रिपाठी जी से पत्राचार का सिलसिला शुरू हो गया।
एक पत्र में उन्होंने लिखा कि वे लोक साहित्य पर विशेषांक निकालना चाहते हैं और उस केलिए मैं कोई लेख भेजूँ। उन दिनों मैं कुल्लियाते नज़ीर अकबराबादीजो उर्दू लिपि में हैपढ़ रहाथा। सोचा कि नज़ीर की कविता में लोकतत्त्व या लोकचेतना पर लिखूँ। मैं ने नज़ीर पर वह लेखलिखकर उन्हें भेज दिया। एक दो महीनों के बाद त्रिपाठी जी का टेलीफ़ोन आया। उन्होंने कहाकि लोकसाहित्य पर सामग्री पर्याप्त मात्रा में एकत्र नहीं हो पाईलोकसाहित्य विशेषांक बादमें निकालेंगे अगला अंक प्रेमचन्द पर होगाजिसके लिए काफी सामग्री उनके पास आ गई है। उनका सुझाव था कि मैं प्रेम चन्द के किसी पक्ष पर एक लेख उन्हें भेज दूँ। मैंने गोदान कोदूसरी या तीसरी बार पढ़ा और उस में दलित चेतना की खोज की। दलित लेखक प्रेम चन्द कोअपना लेखक नहीं मानते; लेकिन मैंने गोदान में दलित पात्र और दलित चेतना को पाया। अन्ततः गोदान में दलित चेतना शीर्षक एक लेख लिखकर त्रिपाठी जी को भेज दिया। वह विशेषांकमेरे लेख के साथ छपा जिसमें अनेक आलोचकों के लेख भी थे। लगभग दो सौ या ढाई सौपृष्ठों का विशेषांक निकालना आसान नहीं था।
सन् 2007 के किसी महीने उनका फ़ोन आया कि विश्वभारती से मुझे कोई पत्रमिला होगाजिस के द्वारा आप को यहाँ मेरे शिष्य दुष्यन्त कुमार की मौखिक परीक्षा के लिएबुलाया गया है। शीघ्र अपनी स्वीकृति भेजिए। मैं उस शोधप्रबन्ध पर अपनी रिपोर्ट पहले भेजचुका था और उन का फ़ोन सुनकर मैं ने मौखिक परीक्षा के लिए अपनी स्वीकृति भी भेज दी।औपचारिकताओं के बाद मैं मार्च 2007 के अन्तिम सप्ताह में दिल्ली से कोलकाता के लिएएयर सहारा के विमान से सवेरे वहाँ  के हवाई अड्डे पर उतरा। मेरी हवाई यात्रा का प्रबन्ध त्रिपाठीजी के प्रयत्न से हो गया था। हावड़ा के रेलवे स्टेशन से एक एक्सप्रेस गाड़ी लेकर मैं  शाम कोलगभग साढ़े छह बजे के लगभग बोलपुर स्टेशन पर उतरा। विचित्र लगा कि स्टेशन का नामबोलपुर है शान्ति निकेतन क्यों नहीं; लेकिन तब बोलपुर ही था। स्टेशन पर गाड़ी से उतरते हीलाउडस्पीकर  पर घोषणा सुनी कि डा सुधेश अमुक जगह पर आ जाएँ ,जहाँ आप को दुष्यन्तमिलेंगे। मैं उनके साथ रिक्शा द्वारा विश्वभारती के अतिथि गृह में पहुँचा, जहाँ दुष्यन्त औरउन के मित्र अनिल कुमार सिंह मुझे सीधे कैन्टीन में ले गए जहाँ चायपान के बाद वे चले गएऔर यह कह कह गए- आपके रात के भोजन का प्रबन्ध भी इसी कैन्टीन में है।
       अगले दिन सवेरे त्रिपाठी जी कैन्टीन में आए । तब उनसे मेरी पहली भेंट हुई। नाश्ते केबाद वे मुझे पहले अपने आवास पर ले गएजो हिन्दी भवन के पास ही है। बातचीत में पताचला कि वे उसी आवास में रहते हैं,जहाँ कभी हज़ारी प्रसाद द्विवेदी रहते थे। आवास के पीछेएक बग़ीचा हैजिसमें अनेक फूल वाले पौधों के साथ एक अशोक वृक्ष भी हैजिस परलाल फूल आते हैं। यह वही अशोक वृक्ष है जिस के लाल फूलों पर मुग्ध होकर द्विवेदी जी नेअशोक के फूल नामक प्रसिद्ध  निबन्ध लिखा था। द्विवेदी जी का लगाया एक नीम का पेड़भी त्रिपाठी जी ने मुझे दिखाया।
पता चला कि द्विवेदी जी पर जब कोई वृत्तचित्र दिल्ली के एन सी आर टी द्वारा बनाया जारहा थातो प्रोड्यूसर और कैमरा टीम के साथ उन के पुत्र मुकुन्द द्विवेदी भी उस घर कोफ़िल्माने आए थेजिसमें तब शैलेन्द्र जी रह रहे थे। मैं ने उनसे चुटकी ली कि आप एकऐतिहासिक घर मे हैंजहाँ हज़ारी प्रसाद जी की स्मृतियाँ बसी हुई हैं। शैलेन्द्र जी का उत्तर था-तो मैं भी एक ऐतिहासिक व्यक्ति हूँ। तब बात हँसी में उड गई थीपर अब तो सचमुच वे इतिहास कीवस्तु होगए हैंजब उन के मित्र और प्रशंसक उन के दुखद वर्तमान के साथ उन के प्रकाशमानइतिहास की भी खोज करेंगे।
कुछ देर बाद शैलेन्द्र जी मुझे डिप्टी रजिस्ट्रार के दफ़्तर में ले गये, जहाँ कुछ काग़ज़ों परमेरे हस्ताक्षर लिये गये। औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद हम दोनों उस कमरे में गए जोमौखिक परीक्षा के लिए था। शोधार्थी दुष्यन्त कुमार वहाँ पहले से बैठे थे। मैंने उन से जो प्रश्नपूछे उन के उत्तर सन्तोषजनक थेजिनसे मुझे लगा कि वे अपने विषय में पारंगत हैं। उन्होंने गोविन्द मिश्र की कहानियों पर अपना शोधप्रबन्ध लिखा था।
उस दिन दोपहर के भोजन के लिए दुष्यन्त बोलपुर के एक होटल रसना में ले गए। उनसे मित्र अनिल सिंह भी वहाँ आए। हम तीनों ने वहाँ शाकाहारी भोजन किया। उस के बाद दुष्यन्त जी ने मुझे अपनी मोटर साइकिल द्वारा अतिथि गृह में छोड़ा।
लगभग  चार बजे वे दोनों मित्र फिर वहाँ आये और मुझे उत्तरायणसंगीत भवन और कला भवन दिखाने के लिए ले गये।उस दिन मुझे विश्वभारती के परिसर में घूमने काअवसर मिला। वहाँ विश्वविद्यालय के विभाग को भवन कहा जाता है, जैसे हिन्दी भवन, कला भवनअंग्रेज़ी भवनइतिहास भवन आदि। कला भवन बड़ा रोचक और कलात्मक लगा। अनेक मूर्तियाँऔर कलात्मक दृश्य मेरे सामने थे। एक वृक्ष की उलझी हुई डालियों को इसतरह जोड़ा गया था कि उस में कोई आकृति झाँकनें लगी थी। एक किनारे पर विशाल पत्थरको इस तरह तराशा गया था कि उस में डाँडी में नमक सत्याग्रह के लिए मार्च करते महात्मागाँधी की प्रतिमा नज़र आती है । इस प्रकार की आकृतियाँ वहाँ के वातावरण को कलात्मकबना रही हैं। शान्तिनिकेतन की यात्रा पर मैं ने दिल्ली लौटकर एक लेख लिखा थाजोदिल्ली की पत्रिका साहित्य अमृत  में छपा। वही लेख महाराष्ट्र के शिक्षा विभाग द्वारासंचालित स्कूल बोर्ड की आठवीं कक्षा के हिन्दी के पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया।उस की रायल्टी मुझे कई वर्षों तक मिलती रही। इस का श्रेय मैं शैलेन्द्र त्रिपाठी जी को देता हूँ क्योंकि उन्हीं के कारण मेरी वहाँ की यात्रा हुई थी।
       उस दिन रात को त्रिपाठी जी मुझे भोजन के लिए अपने आवास पर ले गये। उनसे खूब बातेंहुईं। पता चला कि वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय मे पढ़े थे और वहीं से उन्होंने डीफिल उपाधि प्राप्तकी थी। वे जगदीश गुप्त और सत्य प्रकाश मिश्र के शिष्य रहे। वहाँ की छात्र राजनीति में भी वे सक्रिय रहे । तब वे वामपन्थी थे पर बाद में वाम पन्थियों से उन का मोह भंग हो गया । किस कारणउन का वाम पन्थियों से मोह भंग हुआ यह उन्हों ने नहीं बताया । इस विषय में उन्हें कुरेदना मैंने उचित नहीं समझा। हाँ मुझे यह आभास अवश्य हुआ कि त्रिपाठी जी एक चिन्तन शील और सक्रियव्यक्ति थे।
उन्होंने बताया कि शान्तिनिकेतन में उन की नियुक्ति तत्कालीन विभागाध्यक्ष सिया रामतिवारी की इच्छा के विरुद्ध हो गई थी। उन्होंने कई प्रसंग सुनाए जिनसे यह प्रकट होता है किवे तिवारी जी की विद्वत्ता के प्रति आश्वस्त नहीं थे। फिर भी तिवारी जी की अध्यक्षता के कालमें उन्होंने तिवारी जी को अपना पूर्ण सहयोग दिया। इस से प्रकट होता है कि त्रिपाठी जी झगड़ालू क़िस्म के व्यक्ति नहीं थे। वे अध्ययनशील व्यक्ति थे और अपने कर्तव्य के प्रति सचेत थे।
त्रिपाठी जी ने शान्तिनिकेतन में रहते हुए स्वाध्याय से बंगला सीखी और उस में इतनाकौशल प्राप्त कर लिया कि बंगला से हिन्दी में अनुवाद करने लगे। वे हिन्दी और भोजपुरी में  कविताएँ लिखते थे और हिन्दी का एक त्रैमासिक सरयू धारा नाम से कई वर्षों तक सम्पादित एवं प्रकाशितकरते रहे। यह उन की सृजनशीलता और कर्मठता का परिचायक है ।उनकी बातों से मुझे लगा कि वे शान्ति निकेतन से सन्तुष्ट नहीं हैं और वाराणसी के हिन्दूविश्वविद्यालय मे प्रोफ़ेसर हो कर जाना चाहते हैं। उनकी असन्तुष्टि के कारण का मुझे पतानहीं चला पर अनुमान कर सकता हूँ कि शायद उन्हें लगता था कि वहाँ उन की पदोन्नति नहीं हो सकेगी। अगले दिन शान्तिनिकेतन से मैं रेलगाड़ी द्वारा कोलकाता गया,जहाँ दो दिनों तक रुकने के बाद दिल्ली लौट आया।
शैलेन्द्र जी ने विश्वभारती विश्वविद्यालय से मेरे पास एक दूसरा शोधप्रबन्ध भिजवाया,जो मोती बीए के भोजपुरी साहित्य को योगदान पर केन्द्रित था। मैं ने उसे जाँचकर उस पर अपनी रिपोर्ट समयानुसार विश्वविद्यालय को भेज दी। कुछ समय बाद त्रिपाठी जी ने फ़ोन पर कहाकि दूसरे शोधार्थी की मौखिक परीक्षा के लिए यदि आप को बुलाया जाए, तो अपनी स्वीकृतिभेज दीजियेगा। संयोग ऐसा हुआ कि मुझे नहीं बुलाया गया अन्यथा शान्तिनिकेतन की दूसरी यात्रा हो जाती
      
       शैलेन्द्र जी से मेरी दूसरी भेंट ओडिसा के ब्रह्मपुर नगर में 20जून सन 207 में हुई, जहाँ के  विश्वविद्यालय में वे मेरी एक शिष्या निवेदिता साहू की मौखिक परीक्षा लेने गये थे और मैंदिल्ली सेब्रह्मपुर गया था। मैं ब्रह्म पुर के भुवनेश्वरी लाज में ठहरा था। उस दिन मेरी शिष्या निवेदिता साहू मुझे होटल में नाश्ता कराकर शैलेन्द्र त्रिपाठी की अगवानी के लिए स्टेशन चली गई।उन्हों ने वहाँ के विश्वविद्यालय के कार्यालय में जा कर निवेदिताकी मौखिक परीक्षा ली।उस दिन एक होटल में भोजनकरते हुए त्रिपाठी जी से अनेक विषयों पर बात हुई। उन्होंने बतायाकि विदिशा (म प्र) के राम कृष्ण प्रकाशन ने उन की कई पुस्तकें छपी हैं। वे बंगला से हिन्दी मेंकिए गए अपनेअनुवाद छपवाना चाहते थे। उन के बाबा एक स्वतन्त्रता सेनानी थेजिन  के अनेक संस्मरण त्रिपाठी जी ने लिखे थे। उन्हें वे पुस्तक रूप में छपवाना चाहते थे। वे कहने लगे कि अपनी कुछ कविताएँ भेजिए। वे सरयू धारा का कविता विशेषांक निकालनाचाहते थे। उन्होंने उसका कहानी विशेषांक भी निकाला था। वे स्वयम् हिन्दी और भोजपुरी मेंकविताएँ लिखते थे। उनकी कुछ हिन्दी  और भोजपुरी कविताएँ मैंने फेसबुक पर देखी हैं । कहनहीं सकता कि उन की कविताओं का संकलन प्रकाशित हुआ या नहीं। पर उन के पास कईयोजनाएँथी। एक योजना थी  सरयू धारा का लोकसाहित्य विशेषांक निकालनाजिसके लिए मैं ने उन्हें नज़ीर अकबराबादी की शायरी में लोक तत्त्व विषय पर एक लेख भेजा था।
उन्हें उसी दिन शाम की गाड़ी से कोलकाता लौटना था। वे स्टेशन जाने की तैयारी करनेलगे। मै ने उन्हें अपनी दो पुस्तकें भेंट कीं और शान्तिनिकेतन के पुस्तकालय के लिए भेंट स्वरूपअपनी सात पुस्तकें दीं। उसी दिन किसी गाड़ी से वे ब्र्ह्मपुर से कोलकाता वापस चलेगए। मैंदिल्ली लौट आया। उस दिन क्या पता था कि वह मेरी उन से अन्तिम भेंट होगी।

लेखक परिचय:  जन्म- 6जून 1933दिल्ली में सन् 1975 से निवास। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से हिन्दी के प्रोफ़ेसर पद से सेवानिवृत्त। 11 काव्य कृतियाँ11 आलोचनात्मक पुस्तकें3 यात्रा वृत्तान्त2 संस्मरण संग्रह1 उपन्यास1 व्यंग्य संग्रह1 आत्म कथा। अनेक पुरस्कार एवं सम्मान- मध्यप्रदेश  साहित्य अकादमी का भारतीय कविता पुरस्कार  2006भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय का भारतेन्दु हरिश्चन्द़ पुरस्कार 2000लखनऊ के राष्ट़्रधर्म प्रकाशन का राष्ट्रधर्म गौरव सम्मान 2004आगरा की नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा सार्वजनिक अभिनन्दन  2004दिल्ली की संसदीय हिन्दी परिषद विविधभारती परिषद परिचय साहित्य परिषद के संयुक्त तत्वावधान में वर्ष 2015 का राष्ट्रगौरव सम्मान। सम्पर्क: 314 सरल अपार्टमैन्ट्सद्वारिकासैक्टर 10 दिल्ली 110075 फोन 09350975120Email- dr.sudhesh@gmail.com

संस्मरण विशेष

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धोबी-धोबिन का संसार

-सुधा भार्गव

जब मैं छोटी थी धोबी गंदे कपड़े लेने आता था और धोबिन उन्हें देने आती। वे दादी-बाबा के समय से कपड़े धोते थे। दोनों ताड़ की तरह लंबे और काले थे। पर कालू होने पर भी मुझे बहुत अच्छे लगते थे।
मुझे अच्छी तरह याद है -धोबी कान में चाँदी के कुंडल और हाथ में कड़ा पहने रहता था। धोबिन के तो क्या कहने--- चमकदार छींट का घेरदार लहँगा –ओढ़ना पहने , चाँदी के गहनों से लदी फदी जब आती तो मैं उसके पैरों की तरफ देख गिनती गिनना शुरू कर देती 1—2—3-लच्छे,पायजेब ,बिछुए। फिर हाथों को देखती और शुरू हो जाती 1—2—3—चूड़ी,कड़े,पछेली। कभी गले को देख बुदबुदाती –हँसली,मटरमाला नौलड़ीबताशे वाला हार! घूँघट के कारण उसके कान- नाक नहीं देख पाती थी।हाँ माथे पर बँधा बोर(एक गहना) उठा -उठा सा देखने से उसका पता लग जाता था। भारी से लहँगे पर भारी सी तगड़ी पहनकर चलती तो कमर लचक -लचक जाती । एक हाथ से हल्का सा घूँघट सँभालती और दूसरे हाथ से सिर पर रखी कपड़ों की गठरी --धीरे धीरे आती,अम्मा से कहती –बहूरानी राम राम। वह तो मुझे सच में बहुत-बहुत अच्छी लगती थी।
कमरे में दादी की एक बड़ी सी फोटो थी। मैंने उन्हें देखा तो नहीं था पर वे तो  धोबिन से भी ज्यादा जेवर पहने हुए थीं। दादी ने चार जगह से कानों को छिदा रखा था । उनमें लम्बे- लम्बे- झुमके बालियाँ पहने थीं । नाक में भी तीन तीन जगह छेदन—दोनों तरफ दो लौंग और बीच में मोती वाली झुमकी। धोबिन में मुझे दादी की झलक मिलती थी; इसलिए आसानी से कल्पना कर बैठी कि हो न हो धोबिन ने भी दादी की तरह कान -नाक में पहन रखा होगा। पर हाय राम नाक -कान में इतने छेद कराने में तो बड़ा दर्द हुआ होगा। मैंने तो एक छेद कराने में आसमान सिर पर उठा लिया था। एक बार नायन काकी ने सुई में काले धागे को पिरोकर मेरे कानों में आर -पार उसे भोंक दी थी। कितना रोई चिल्लाई थी। सरसों का तेल और हल्दी से सेक करकर मुझे परेशान कर दिया था। बहुत दिनों तक जैसे ही मैं घर में उस काकी को देखती कुटकुटाती– माँ, इसे क्यों बुलाती हो।
एक दिन अम्मा बोलीं-मुन्नी तू हमेशा धोबिन को घूरती रहती है यह आदत ठीक नहीं।
-माँ उसे देख मुझे दादी की याद आती है। वह दादी की तरह ही हाथों-पैरों में खूब सारे जेवर पहनती है।
-बेटा तुम्हारी दादी तो सोने के पहनती थीं और धोबिन चाँदी के पहनती है। चाँदी के जेवर छोटी जात के पहनते हैं। हम लोगों में नहीं पहनते है।
-क्यों माँ?
क्योंकि सोना महँगा होता है । इसे छोटी जात नहीं खरीद नहीं सकती। 
-क्यों माँ!
क्योंकि ये गरीब बेपढ़े- होते है ,इनके पास ज्यादा पैसा नहीं होता।  
-ये पढ़ते –लिखते क्यों नहीं माँ?
-क्यों की बच्ची! भाग यहाँ से मेरा खोपड़ा खाली कर दिया।
मैं माँ के डर के मारे चुप हो गई।पर मुझे लगा –माँ मुझसे कुछ छिपा रही है। बहुत समय तक अपने सवाल का जबाव ढूँढती रही। एक दिन मेरे सवाल का जबाव मिल ही गया।
जग्गी, धोबी का बेटा  कभी कभी अपनी माँ के साथ हमारे घर आया करता था। उसकी माँ ज्यादतर अपनी परेशानियाँ माँ को बताने बैठ जाती । ऐसे में मैं और जग्गी बतियाने लगते। वह भी कल्लू था मगर कपड़े पहनता एकदम झकाझक सफेद।
एकदिन मैंने पूछा –जग्गी इतने सफेद कपड़े पहनता है । गंदे हो जाते होंगे । माँ से खूब डाँट पड़ती होगी।  
-हँसकर बोला-ये मेरे कपड़े थोड़े ही हैं,दूसरों के हैं।
मैं पूछती-जग्गी तेरे बाल हमेशा खड़े रहते है। तेल लगाकर काढ़ता क्यों नहीं?
वह फिर हँसता और कहता-मैंने आजतक कभी तेल नहीं लगाया।
-तेरे पास तेल लगाने को पैसे नहीं हैं क्या?मैं तुझे तेल ला दूँगी।
-वह फिर हँसता-मुझे तेल से बू आती है।
उसकी बात पर मैं भी हँस देती।
हम दोनों के बीच ऊँच–नीच की कोई तलवार नहीं लटकती थी । बस दो मासूम दिल खोलकर हँसते थे।
लेकिन उस दिन जब जग्गी आया मुझ पर अपने सवाल का जवाब खोजने का भूत सवार था। उस पर  बंदूक सी दाग बैठी-ओ जग्गी तू स्कूल पढ़ने क्यों नहीं जाता? तू गरीब है क्या?
एकाएक वह उदास हो गया । बोला-इतना गरीब भी नहीं हूँ कि स्कूल की फीस न दे सकूँ। पर कोई पढ़ने दे तब न !
-तू मुझे बता कौन है वह, मैं उसकी शिकायत पिता जी से कर दूँगी।
-मैं छोटी जात का हूँ ; इसलिए स्कूल में कोई घुसने नहीं देगा। उसने बहुत घीरे से मरियल -सी आवाज में कहा।
उसकी जात वाली बात तो मैं नहीं समझ सकी ,पर मैंने उसे दुखी कर दिया था यह सोचकर मैं भी दुखी हो गई। 
धोबी के मरने के बाद धोबिन का रूप-रंग बदल गया। उसने सारे जेवर उतारकर रख दिए। मैंने सोचा गहने चोरी हो गए हैं। मेरा दुख और बढ़ गया। लेकिन एक दिन मैंने उसे माँ से कहते सुना –बहू,सारे गहने उतारकर घर में ही कच्चे फर्श के नीचे दबा दिए थे। न जाने कब -कब में बड़ा छोरा तगड़ी निकालकर ले गया और बेच खाई। उसे कपड़े धोना पसंद नहीं। निठल्ले ने बाप की कमाई पर नजर रखने की कसम खा ली है। तीन -तीन बच्चों की शादी करनी है।अब तो ये गहने ही मेरा सहारा है। बड़े से तो कोई उम्मीद नहीं। 
माँ ने क्या कहा यह तो नहीं मालूम पर अगले दिन वह आई और एक मिट्टी की हाँडी माँ के हवाले करके चली गई। मुझमें कौतूहल जागा- इसमें क्या हैअम्मा से पूछने की हिम्मत नहीं हुई। कमरे से लगी एक कोठरी थी, जिसमें बड़ी सी लकड़ी की अलमारी थी। उसी में अम्मा ने हाँडी रख दी। यह तो अंदाज लग गया कि इसमें कीमती सामान है,पर क्या है?पहेली ही बनकर रह गया। इस पहेली को सुलझाने की कतरब्योंत दिमाग में चलती रहती। आते जाते कोठरी में ताक- झाँक बनी रहती कब चुपके से अंदर जाऊँ और हाँडी में झाँकूँ।
एक दिन मैं दबे पाँव कोठरी में घुस गई। अंदर अँधेरा था लेकिन आपजानकर लाइट नहीं जलाई। जरा -सा शक होने पर माँ आ धमकतीं और मेरी  खोज अधूरी रह जाती। चोरों की तरह धीरे से अलमारी खोली –कहीं चूँ –चूँ न कर पड़े,हाँ डी में हाथ डाला। अँगुलियों की टकराहट से खनखन करके सिक्के बज उठे। हिम्मत करके उँगलियाँ गहराई में घुसाई। मुट्ठी में भरकर सिक्के हाथ ऊपर किए। मुट्ठी खोली- चाँदी की चमक से सिक्के अँधेरे में साफ नजर आ गए-बाप रे इतने सारे सिक्के ---अरे यह तो विक्टोरिया का हैजार्जपंचम– एडवर्ड! इन्हीं के बारे में तो पिताजी बातें करते हैं। पूरे ब्रिटिश साम्राज्य की सैर मिनटों में कर ली।
नन्हें से दिमाग ने अँगड़ाई ली –धोबिन कितनी तकदीर वाली है इसके समय चाँदी के सिक्के चलते थे। न जाने अब सब कहाँ गए। मेरे पास तो एक भी सिक्का नहीं है। बस पीतल,ताँबे के हैं।हाँडी में सिक्कों की तो भरमार है। अरे, यह तो अठन्नी है। यह चुहिया- सी है चवन्नी! अपना हाथ और नीचे घुसाया-लो मिल गई हँसली—जरा पहनकर देखूँ ।ओह यह तो मेरे गले में घुसती ही नहीं। पायल- यह तो बड़ी भारी है।धोबिन तो बड़ी अमीर है। फिर कपड़े न जाने क्यों धोती है। मेरी अँगुलियाँ मटकी में घूमती रहीं और सिक्के मेरे दिमाग को घुमाते रहे। न जाने कब तक यह चलता अगर ज़ोर से खट की आवाज न हुई होती। मैं भागी कोठरी से कि अम्मा आ गई। तभी सामने से मोटे से चूहे को भागते देखा हँसी फूट पड़ी –धत तेरे की –चूहे से डर गई मैं तो ।  
अपने बापू के मरने के बाद जग्गी ही गंदे कपड़े लेकर जाता। ढेर से कपड़ों की गठरी सिर पर रखता तो उसका चेहरा दिखाई ही नहीं देता था। मुझसे पहले की तरह बातें भी नहीं करता और हँसता भी नहीं था। हमेशा जल्दी में रहता।
एक दिन मैंने पूछा –जग्गी तुझे बहुत काम रहता है?
-हाँमाँ अकेली पड़ गई है।उसको तो देखना ही होगा। धीरे धीरे बापू का काम मैं करने लगूँगा। उसे कुछ नहीं करने दूँगा।
जग्गी मेरे बराबर का था पर मुझे लगा वह मुझसे बहुत बड़ा हो गया है।
उसके बापू के मरने का दुख अम्मा –पिताजी को भी बहुत था।  उन्होंने कपड़ों की धुलाई के पैसे भी बढ़ा दिए थे। पर जग्गी  पिताजी से बहुत डरता था। कभी मैंने उसे सिर उठाकर बात करते नहीं देखा। हमेशा नजर नीचे किए खड़ा रहता या जमीन पर बैठता। पिताजी सफेद कमीज और सफेद धोती पहनते और शानदार रूमाल रखते। एक बार कमीज के कॉलर पर ठीक से प्रेस नहीं हुईबस उनका पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। ज्वालामुखी से फट पड़े- और जड़ दिया  उसके चाँटा। मुझे बहुत बुरा लगा। अपने बच्चे को तो डाँटते- मारते मैंने देखा था पर पिता जी तो दूसरे के बच्चे को मार रहे थे। न उसने अपना बचाव किया और न पिताजी ने अपना हाथ रोका। बस सिर नीचा किए आँसू बहाने लगा। ऐसा लगा मानो पिताजी को मारने का अधिकार था और चोटें सहना जग्गी का काम।
जग्गी को मैं बहुत दिनों तक नहीं भुला पाई और माँ की बात बहुत दिनों के बाद समझ में आयी कि वह छोटी जात का है और हम है ऊँच जात के इसी कारण उन्हें सताने की हिम्मत होती थी।पढ़ लिखकर कहीं छोटे लोग ऊँच जात से आगे न बढ़ जाएँ इसीकारण उनके बच्चों को स्कूल  में पढ़ने नहीं दिया जाता था। जग्गी तभी अनपढ़ रहा।
अब भी जब अखवार की सुर्खियों में दलित -दलनदलित- दहन  के बारे में पढ़ती हूँ, तो जग्गी की याद ताज़ा हो उठती है। न जाने कब ऊँच-नीच का भेद भाव मिटेगा। भारत देश तो उनका भी है फिर उनके साथ ऐसा दुर्व्यवहार क्यों?

लेखक परिचय: जन्म 8 मार्च1942 को अनूपशहरबुलंदशहर (उत्तर प्रदेश) में। बी.ए.बी.टी.विद्याविनोदिनीविशारद की उपाधियाँ ।  हिन्दी भाषा के अतिरिक्त अंग्रेजीसंस्कृत और बांग्ला पर भी अच्छा अधिकार।  बिरला हाईस्कूलकोलकाता में 22 वर्षों तक हिन्दी शिक्षक। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। परिषद भारतीकविता सम्भव-1992कलकत्ता-1996 आदि संग्रहों में भी आपकी रचनायें संगृहीत हैं। बाल कहानियों पर तीन पुस्तकें- अंगूठा चूसअहंकारी राजा व जितनी चादर उतने पैर पसार।  काव्य-संग्रह- रोशनी की तलाश में। रचनायें रेडियो से भी प्रसारित।  डॉ. कमला रत्नमराष्ट्रीय शिखर साहित्य सम्मान तथा प.बंगाल के राष्ट्र निर्माता पुरस्कार से सम्मानित।
सम्पर्क:  जे. 703स्प्रिंग फील्ड्स17/20 अम्बालिपुरा विलेजबल्लान्दुर गेटसर्जापौरा रोडबंगलौर 560102फोन- 09731552847Email- subharga@gmail.com

संस्मरण विशेष

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भुलाए नहीं भूलती

अबूझमाड़ की 

वह पद यात्रा

-गिरीश पंकज

ज़िंदगी भर न भूल पाने वाली सौ किलोमीटर की पद यात्रा है वो. 26  जनवरी से शुरू हुई और 30जनवरी को ख़त्म हुई. सन 2014 की बात है। बस्तर का अबूझमाड़जहाँ  आम लोग घुसने की हिम्मत नहीं करते। पुलिस को भी बड़ी तैयारी के साथ जाना पड़ता है। कई बार वो भी विफल हो जाती है। अबूझमाड़ हजारों एकड़ में फैला हुआ है। और अब तक उसे बूझने की कोशिश जारी है। वहीं  छिप कर रहते हैं नक्सली। क्योंकि उनके लिए वह सुरक्षित जगह है। कहीं नाले हैकही गड्ढे हैं, कही चढ़ाई है। कोई बड़ी गाड़ी तो वहाँ जा ही नहीं सकती। मेरे सुझाव पर कांकेर के पत्रकार कमल शुक्ल ने कुछ पत्रकारों को राजी किया कि वे अबूझमाड़ के घने जंगल में जाकर नक्सलियों से बात करें कि  आखिर वे निर्दोष लोगो की हत्याएँ क्यों कर रहे हैंउस समय तक नक्सलियों ने दो पत्रकारों की हत्याएँ भी कर दी थीं। फेस बुक में जब कमल ने अबूझमाड़ जाने के लिए देश भर के पत्रकारों को निमंत्रित किया तो शुरू-शुरू में सौ से ज्यादा लोगों ने उत्साह दिखाया। पर जब जंगल में जाने का दिन आया तो बड़ी मुश्किल से पंद्रह लोग राजी हुए। पटना से आए एक युवा पत्रकार ने रात को मुझसे कहा-''पहले  मैं जाने से डर रहा थापर आपको देखा तो हिम्मत जागी. मैं भी चलूँगा आपके साथ''. मुझे  खुशी हुई। लग रहा थाइन पत्रकारों में मैं ही सबसे बड़ा हूँ मगर नारायणपुर में हरी सिंह सिदार भी हमारे साथ शामिल हो गएउनकी उम्र सत्तर पार कर गयी थी; वे सामाजिक कार्यकर्ता हैं.सारे पत्रकारों ने उनका स्वागत किया। और बड़ा आश्चर्य यह रहा कि रास्ते में वे ही सबसे आगे नज़र आते थे। मैं चढ़ाई में थक जाता थातो मेरे साथ दो-चार साथी रुक जाया करते थेमगर सिदार जी सबसे आगे नज़र आते थे।
25 जनवरी 2014 की शाम सब नारायणपुर सीमा में रुके।  पुलिस ने हमें रोकाऔर समझाया कि अंदर जाना खतरे से खाली नहींलेकिन हम लोग सर पर कफ़न बाँध कर आए थे।  नक्सलियों से मिलेंगे और उनसे पूछेंगे कि पार्टनरतुम ही बताओं कि तुम्हारी पोलिटिक्स क्या है? 26 जनवरी की सुबह हम पैदल निकल पड़े अबूझमाड़ के जंगल में. अभी ने अपनी-अपनी पीठ पर अपने-अपने बैग लादे और बढ़ चले आगे। मुझे सुविधा मिल गई कि मेरा बैग किसी अन्य साथी ने उठा लिया। हमारे साथ बस्तर के ही दो-तीन सहयोगी थे। दो युवा आदिवासी ऐसे भी थे जो भीतर के रास्ते से भलीभाँति परिचित थे. उनके मार्ग दर्शन में हम आगे बढ़ते गए.हम सब घंटो पैदल चलते और शाम होने के पहले किसी गाँव में विश्राम करते। स्कूल हमारी शरणस्थली थे। कच्चे स्कूल. पक्के भवनो को नक्सलियों ने विस्फोट से उड़ा दिया था। उसकी जगह झोपड़ीनुमा घरों में स्कूल चल रहे थे। हम लोग वही रुक जाते। वहीं स्कूल के शिक्षक दाल- भात का इंतजाम  सब्जी भी नहींबस दाल-भात और वही हमे पंचतारा जैसा स्वादिष्ट भोजन लगता।
हम लोगों की पदयात्रा की भनक फेसबुक आदि माध्यमों से नक्सलियों को लग चुकी थी। हमको  ये संकेतभी  मिल रहे थे कि आगे किसी गाँव में माओवादी हमसे  मिलेंगे और  बात करेंगे. यह भी पता चला कि वे कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी पेश कर सकते हैंमगर वह दिन नहीं आया. पाँच दिन की हमारी यात्रा खत्म हो गई मगर अबूझमाड़ में छिप कर रहने वाले नक्सली हमसे नहीं मिले; तो नहीं मिले। हालाँकि हमारे अनेक मित्रों के मन में भय था कि कहीं नक्सली हमारा अपहरण न कर लेएक ने कहा- ''कहीं दूर से ही हमे गोली मार दी तो?'' मैंने मुस्कराते हुए कहा- ''एक  दिन तो सबको मरना है. यहाँ मरे तो शायद शहीद ही कहलाएँगे।'' लेकिन इसकी नौबत नहीं आयी। वैसे  मैंने तो यह मान ही लिया था कि अब शायद वापसी संभव नहीं इसलिए मैंने अपनी समस्त जमापूँजी के बारे में एक जानकारी घर की डायरी में लिख दी थी. कुछ हो गया तो घर वालों को वे पैसे मिल जाएँ। लेकिन हम लोगोंने अबूझमाड़ की पाँच दिनों की यात्रा बिना किसी व्यवधान के पूर्ण कर ली।
 पहली बार मैंने अबूझमाड़ की इतनी लम्बी यात्रा की. वहाँ मैंने नक्सलियों के कथित शहीदस्तम्भ देखे; जिन्हें तोड़ा न  जा सका था। वहाँ हमने घोटुल देखा। यानी वह जगह जहाँ अविवाहित युवक-युवतियाँ मिलजुलकर रतजगा करते हैं और आनन्द मनाते हैं। अगर कोई युवा-युवती आपस में शादी कर लेते हैं, तो वे घोटुल में नहीं आते.घोटुल की संस्कृति आज भी दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। हमे आगे जाना थावरना हो सकता हैहम घोटुल को भी जीवंत देख पाते। पैदल चलते-चलते सभी थक  जाते थेपर मैं कुछ ज्यादा ही थक जाता था। एक दिन हम चलते रहे और शाम हो गयीकोई गाँव ही नहीं मिला. साथ चल रहे आदिवासी युवको ने कहा,''बस थोड़ी दूर बाद एक गाँव पडेगा'' हम लोग थक चुके थे फिर भी रुके नहींक्योंकि गाँव पहुँचकर ही आराम करेंगे. रात घनी हो गयी थी। चारों तरफ भयावह सन्नाटा था। हमारे पास सर्च लाइट थी। उसके सहारे आगे बढ़ रहे थे। कहीं नाला पार करतेतो कहीं झाड़ियाँ  हटाकर रास्ता बनाते। लेकिन गाँव का नामोनिशान नहीं था। हालत ये हुई कि मेरी हिम्मत ज़वाब दे गयी. मैंने कहा,'' भाईअब यही रुक जाते हैं। अब चलना मुश्किल हो रहा है।''  मुझे देखकर कुछ और साथी भी जमीन पर ही  बैठ गएलेकिन इस बार फिर दोनों युवको ने कहा, ''अब कुछ ही देर बाद हम गाँव में होंगे।'' मुझमें हिम्मत तो नहीं थीमगर उनके के कहने पर मैं खड़ा हो गयाबाकी साथी भी आगे बढ़े और आधे घंटे बाद दूर रौशनी नज़र आई. सब खुशी से झूम उठे की गाँव आ गया। गाँव क्या दो-चार घर थे बस। हम जहाँ  पहुँचेवो एक स्कूल ही था. झोपड़ी नुमा। ठण्ड का समय थापर कई घंटो की पदयात्रा के कारण पूरा शरीर गर्म हो चुका था। इसलिए ठण्ड का अहसास ही नहीं हो रहा था। स्कूल में कुछ बच्चे पढ़ते थेवे वही रहते भी थेइसलिए  वहा गद्दे-चादरो को व्यवस्था थीदो-तीन खटिया भी नज़र आ गई. मैं चावल-दाल खाकर सीधे खटिया पर  पसर गया। एक-दो घंटे बाद ठण्ड लगने लगी तो अपनी ऊनी चादर निकाल  ली.जिसे जहाँ जगह मिलीवहीं चादर बिछा कर लेटगया। सुबह उठा तो मैं देख कर दंग रह गया कि जिस झोपड़ी में मैं सोया थाउसकी तो छत ही नहीं थी। गहरी थकान के कारण खुली छत से आने वाली ठण्ड का बिलकुल ही अहसास  न हुआ।
चौथा दिन भी खत्म हो गया,मगर  नक्सली नहीं मिले। हम निराश हुए। लगा अपना आना बेकार गया. लेकिन संतोष था कि उस अबूझमाड़ को हमने देखा ;जिसे देखने के लिए लोग तरसते हैं। वहाँ  किसी को जाने की इज़ाज़त ही नहीं मिलती। हमने अबूझमाड़ के गाँव देखे, आदिवासी भाई-बहनो को देखा। वे लोग अपने खाने-पीने के सामान की व्यवस्था करने के लिए सौ-सौ किलोमीटर पैदल चलते हैं। घर से निकलते  हैं और रात होने पर किसी गाँव में रुक जाते हैं। यह दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि आज़ादी के सात दशक बाद भी हमारा बस्तर-अबूझमाड़ इस हालत में है। खैरमेरे जीवन का एक रोमांचक संस्मरण है अबूझमाड़ की पद यात्रा।  बहुत-सी बाते हैंविस्तार से बता पाना अब सम्भव नहीं क्योंकि पत्रिका की जगह सीमित हैऔर स्मृति की भी अपनी सीमा है। हम पत्रकार साथी 30 जनवरी को दोपहर इन्द्रावती नदी को पार कर बीजापुर पहुंचेवहाँ  हमारी यात्रा सम्पन्न हुई। लौटते वक्त मैं सोच रहा थाकाशनक्सली भाई मिल जाते, तो उनसे कुछ बात करते। हिंसा का रास्ता छोड़ने का निवेदन करते। मगर वे नहीं मिले। उन्हें सामने आना ही चाहिएबात करना था। वे अपना पक्ष भी रखतेमगर वे नहीं  आए.खैरइसी बहाने हमने आदिवासी बंधुओं के जीवन को निकट से देखा.किन विषम परिस्थितियों में वे रह रहे हैइसे समझा. नक्सल समस्या का समाधान हो तो अबूझमाड़ को सड़कों से जोड़ा जाए। जंगल में जो गाँव बसे हैंवहा अनाज की दुकाने खुलेताकि वहाँ  रहने वालों को सौ-सौ किलोमीटर पैदल  न चलना पड़े। वहाँ से  लौटने  के बाद  मेंने रायपुर सांध्य दैनिक  तक यात्रा-वृत्तांत लिखा। संस्मरण लिखने के बाद फ़ौरन एक संस्मरण यह भी जुड़  गया  कि उसे पढ़कर सबसे  पहला फोन मुझे जो आया, वह था मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का, उन्होंने इस साहसिक यात्रा के लिए मेरी प्रशंसा की और बताया कि ''हमने  भी कईबार अबूझमाड़ की यात्रा की कोशिश की थीपर सफल  न हो  सके। क्योंकि नक्सलियों ने हमारे साथ चल रहे टॉवर दूर हमला करके नष्ट कर दिया था।''  उन्होंने मेरे विश्वास केसाथ अपने विश्वास को भी शामिल किया कि बहुत जल्दी नक्सल समस्या ख़त्म होगी।


लेखक परिचय: एम.ए (हिन्दी)पत्रकारिता (बी.जे.) में प्रावीण्य सूची में प्रथमलोककला संगीत में डिप्लोमा,  पैतीस सालों से साहित्य एवं पत्रकारिता में समान रूप से सक्रिय। पूर्व सदस्यसाहित्य अकादमीनई दिल्ली (2008-2012), 6  उपन्यास, 14  व्यंग्य संग्रह सहित 44  पुस्तकें। सम्प्रतिसद्भावना दर्पण (भारतीय एवं विश्व साहित्य की अनुवाद-पत्रिका का सम्पादन) सम्पर्क: जी-31, नया पंचशील नगररायपुर-492001 छत्तीसगढ़, मोबाइल-09425212720, Email- girishpankaj1@gmail.com
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