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उदंती.com,   सितम्बर- 2016

 डायरीबोलती है

 डायरी लेखन:समय और तिथि से परे... 
 अनकही: मेरे बाबूजी की डायरी... 
 आपातकाल: घर से जेल तक का सफर- जिंदगी के वे अनमोल क्षण
हिरणखेड़ा सेवासदन: कुछ खट्टी- मीठी यादें
चुनावी समर में: राजनीतिक जीवन और पिताजी की बीमारी
आजादी के बाद: ...तो कश्मीर का वह हिस्सा भी हमारे पास होता
जीवन परिचय: बृजलाल वर्मा- पलारी गाँव से दिल्ली तक की यात्रा
मेरे बाबूजी: असली छत्तीसगढ़ियावही जो शोषण के विरुद्ध आवाज उठाए
कही देबे संदेश: पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म का पलारी से नाता ऐसे जुड़ा
एक गाँव की व्यथा: कहाँ गुम हो गए गाँधी के गाँव
धरोहर: ईंटों से निर्मित पलारी का सिद्धेश्वर मंदिर

तुरतुरिया: लव-कुश की जन्म स्थली  

अनकही

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मेरे बाबूजी की डायरी...
  डॉ. रत्ना वर्मा    
80केदशक में जब मैंने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया था और दैनिक नवभारत में प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में अपनी नयी पारी की शुरूआत की तो सपने तो बहुत थे पर भविष्य की कोई स्पष्ट रूपरेखा  मन में नहीं थी। उस समय मेरे लिए इतना ही बहुत था कि मैं स्वावलम्बी बन गई हूँ। समय आगे सरकता गया और पता ही नहीं चला कि अखबारों में काम करते करते जिंदगी के इतने साल कब बीत गए। एक दौर ऐसा आया जब मुझे विभिन्न समाचार-पत्रों में नौकरी करते-करते उब सी होने लगी, तब मुझे लगा कि अब स्वयं की ही पत्रिका निकालनी चाहिए, पर साहस नहीं कर पा रही थी, मन में एक भय था कि अकेले क्या यह मैं कर पाऊँगी। 2001में एक पत्रिका का शीर्षक दिल्ली से अनुमोदित होकर आ भी गया था , पर तब उसे निकाल नहीं पाई थी।  पर परिवार में सभी का सहयोग और प्रोत्साहन मिला तो हिम्मत आ गई।
और अंतत: जब 2008में जब मैं उदंती.comकी तैयारी कर रही थी तब लगा था काश मेरे बाबूजी मेरे साथ होते। हृदयघात से 1987में वे हम सबको छोड़कर चले गए। वे होते तो शायद मैं बहुत पहले ही अपनी पत्रिका निकाल चुकी होती। अकेले साहस बटोरते- बटोरते कई साल बीत गए, हाँ इतना जरूर है कि उनके आशीर्वाद से उदंती के प्रकाशन को भी आठ साल बीत गए। इन आठ वर्षों में मैंने अपने बाबूजी को हर पल याद किया। उनकी सिखाई, बताई बातें और उनके दिए संस्कारों को लेकर हमने सभी बाधाओं को पार किया और आगे बढ़ते ही चले गए।
 मुझे याद है, जब मैंने पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा , तब मैं घर में सबसे बड़ी थी। मुझसे बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी। छोटे भाई बहन तब स्कूल कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे।  माँ- बाबूजी के साथ मेरा ज्यादा समय बीतता था। तब बाबूजी मेरी प्रत्येक सप्ताह प्रकाशित होने वाली फीचर रिपोर्ट और अन्य लेखों  को बड़े ध्यान से पढ़ते और मुझे प्रोत्साहित करते, साथ ही सलाह भी देते। कई फीचर्स की तैयारी में तो उन्होंने मेरी भरपूर सहायता भी की। इसी तरह स्कूल और कॉलेज के समय में अच्छी पत्र- पत्रिकाएँ घर लाकर पढऩे- लिखने का जो चस्का उन्होंने लगाया था,वह सब आगे जाकर मेरे बहुत काम आया।  बाबूजी ने अपनी इच्छाओं को हम बच्चों पर कभी नहीं थोपा। हमें पढऩे लिखने का उचित माहौल दिया और आगे बढऩे के लिए हमेशा उत्साहित किया।
जब से होश सम्भाला है अपने बाबूजी को मैंने खादी के कपड़ों में ही देखा है। खादी का कुर्ता पाजामा हो या धोती कुर्ता, ठंड के मौसम में जैकेट या कोट, वे सब खादी की ही पहनते थे।  उनकी वह उज्ज्वल छवि आँखों में बसी हुई है। यह सब लिखते हुए मैं उन्हें महसूस कर पा रही हूँ। एक बार उन्होंने मुझसे अपने गाँव पलारी को केन्द्र में रख कर रिपोर्ताज तैयार करवाया था। मैं तभी से जान गई थी कि वे बहुत अच्छा लिख सकते हैं। राजनीति में रहते हुए उन्हें विभिन्न विषयों पर बोलते हुए तो बहुत सुना था, वकील थे तो प्रत्येक विषय पर उनकी पकड़ थी ;लेकिन उनकी लेखनी से परिचय उनके जाने के बाद हुआ ।माँ ने उनकी अलमारी से उनकी लिखी डायरी के बारे में बताया। ये डायरी उन्होंने 1975- 76में आपातकाल के दौरान जेल में रहते हुए लिखीं थीं।
26जून 1975से इंदिरा गांधी ने जब पूरे देश में आपातकाल लगाया था तब कांग्रेस विरोधी राजनैतिक दलों के प्रमुख कार्यकर्ताओं को देश भर के विभिन्न जेलों में बंद कर दिया गया। मेरे बाबूजी भी उन्हीं में से एक थे। आपातकाल में 22महीने जेल यात्रा के दौरान, जेल की एकाकीपन को खत्म करने के लिए उन्होंने डायरी लिखना आरंभ किया था ;   जिसमें उन्होंने अपने बचपन से लेकर शिक्षा, वकालत, परिवार, गाँव- घर और वहाँ के लोग तथा राजनीतिक जीवन की घटनाओं को सिलसिलेवार ऐसे लिखा है मानों बचपन से लेकर अब तक के लम्हों को वे फिर से जी रहे हों।  जाहिर है इस डायरी में राजनीति की बातें सबसे ज्यादा हैंआखिर उनके जीवन का सबसे अधिक समय राजनीति में ही तो बीता है। उनके अपने पारिवारिक और व्यक्तिगत जीवन में जो भी उतार- चढ़ाव आए ,उसे उन्होंने जैसा महसूस किया ,वैसे का वैसा अपनी सीधी- सरल और खड़ी भाषा में डायरी के पन्नों पर उतार दिया है। सही मायनों में यह जेल डायरी एक प्रकार से उनका जीवन- वृत्तान्त है।
बरसों तक उनकी लिखी ये डायरियाँ माँ के पास सुरक्षित रखी रहीं। अपने जीवन काल में बाबूजी ने भी कभी इनकी ओर पलट कर नहीं देखा और न कभी हम बच्चों से इसकी चर्चा की। उनके चले जाने के कई बरस बाद , जब माँ ने इन्हें निकाला और हम सब धीरे- धीरे एक एक डायरी पढ़ने लगे तो भौचक रह गई कि 22महीनों में उन्होंने अपने जीवन के हर पहलू को याद करते हुए बस लिखा ही लिखा है। आपातकाल की 30वीं बरसी 2008में सांध्य दैनिक छत्तीसगढ़ के संपादक सुनील कुमार जी से इस डायरी के संदर्भ में मेरी बात हुई तब उन्होंने अपनी साप्ताहिक पत्रिका इतवारी अखबार में आपातकाल की कहानी बृजलाल वर्मा की जुबानी शीर्षक से किश्तवार प्रकाशित करने की अनुमति दी। (उन दिनों मैं उक्त पत्रिका में सहायक संपादक के रुप में कार्य कर रही थी)
यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनकी इस डायरी को पढऩे और इसे संपादित करने का अवसर मिला है। मुझे अपने पर गर्व है कि मैं उनकी बेटी हूँ। उदंती के नौवें वर्ष में प्रवेश करने के अवसर पर, इस अंक को मैं अपने बाबूजी पर केन्द्रित कर रही हूँ। उनकी डायरी के कुछ अंश आप सबसे साझा करते हुए मैं अपनी आदरांजलि प्रगट कर रही हूँ। विश्वास है आप सबको यह अंक पसंद आयेगा।

                                                                                                                 

जीवन दर्शन

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 नियत से नियति तक  
 - विजय जोशी (पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक भेल, भोपाल)    
नियतजिसे अंग्रेजी में इंटेन्शन कहा जाता है उसका हमारे जीवन में बेहद महत्त्व है। दरअसल यह हमारे जीवन जीने के तरीकों की प्रतिध्वनि है। कोई भी काम करते समय हमारा जो भी इरादा या मनोभाव रहता है, वही हमारे काम करने के मार्ग तय करता है और अंतत: परिणाम में उभरता है। अच्छी नियत से किकाम के परिणाम भी सकारात्मक तथा बदनियतीसे किये गये काम के नकारात्मक और कभी कभी घातक परिणाम तक हो सकते हैं। अच्छी नियत से किये कार्य हमेशा सुखदायी होते हैं हमारे लिभी एवं दूसरों के लिभी। आइएअब इसके सोपानों पर गौर करें -
1- विचार - हमारे विचार ही हमारे जीवन की दशा और दिशा दोनों तय करते हैं। स्वस्थ एवं स्वच्छ विचारयुक्त आदमी का जीवन भी बड़ा सरल, सहज और सदाशयतापूर्ण होता है। आपके विचार ही आपको समाज में प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं. अत: अपने विचारों पर समुचित ध्यान दें, वे आपके शब्द बनेंगे।
2- शब्द - शब्द विचार का वाहक हैं. आपके विचार मस्तिष्क से शब्दों के माध्यम से ही जन मानस के समक्ष व्यक्त होते हैं। अत: इनके उपयोग एवं प्रयोग में पूरी सावधानी नितांत आवश्यक है। शब्द ही अंतत: विचार को कार्यरूप में परिणित भी करते हैं। अतएव अपने शब्दों पर समुचित ध्यान दें, वे आपके कार्य बनेंगे।
3- कार्य - कार्य ही जीवन का प्रयोजन है। कहा ही गया है कि कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहीं सो तस फल चाखा। एक बात और जैसे अच्छे कर्म का फल अच्छा होता है वैसे ही बुरे काम का बुरा नतीजा भी। सो अपने कार्यों पर समुचित ध्यान दें, वह आपकी आदत बनेगी।
4- आदत - आपने देखा ही होगा कि हर दिन एक सा काम करते करते हम उसके आदी हो जाते हैं और उस काम का शुमार हमारी आदत में हो जाता है। यही आदत शनै: शनै: हमारे आचरण में आ जाती है। अत: अपनी आदतों का आत्मविश्लेषण भी हमारी आदत का अंग होना चाहिये। अपनी आदतों पर समुचित ध्यान दें, वह आपका चरित्र बनेगी।
5-चरित्र - चरित्र जीवन में सर्वोपरि है। कहा भी गया है कि यदि धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया, लेकिन यदि चरित्र गया तो सब कुछ चला गया। आपका चरित्र ही अंतत: आपका सर्वस्व तय करता है;इसलिअपने चरित्र पर समुचित ध्यान दें, वह आपकी नियतिबनेगी।
याद रखिएक बात तो तयशुदा है कि अंतत: आपकी नियत ही आपकी नियति तय करेगी और उसके लिये अत्यावश्यक है कि न केवल आपके विचारों, शब्दों, कार्यों और आदतों में सामंजस्य हो, अपितु आपके सोच में साफ सुथरे कार्यों के प्रति ललक, लगन और लक्ष्य बोध हो। यही  जीवन का सरलतम सूत्र।
सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास) भोपाल- 462023, मो. 09826042641, Email- v.joshi415@gmail.com

प्रेरक

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 बेल्ट
82 वर्षीय वांग त्सिंग अर्जेंटीना में रहते हैं और इस उम्र में भी युवाओं को चीनी मार्शल आर्ट -ताई ची- सिखाते हैं। ताई ची एक प्राचीन मार्शल आर्ट है, जिसमें अनेक शारीरिक क्रियाएँ करते समय सांस पर नियंत्रण रखा जाता है।
वांग त्सिंग के एक शिष्य ने एक बार उनसे यह पूछा - अन्य मार्शल आर्ट पद्धतियों की भांति ताई ची में योद्धा का स्तर प्रदर्शित करने के लिए रंगीन बेल्टों का प्रयोग क्यों नहीं किया जाता?
वांग ने उत्तर दिया- यदि तुम्हारे पास धन हो तो तुम उसे हाथ में लेकर नहीं घूमते हो बल्कि उसे अपनी जेब में रखते हो। यदि तुम्हारे पास बहुत अधिक धन हो तो तुम उसे अपनी जेब में ठूँसकर नहीं रखते बल्कि तिजोरी या बैंक में रख देते हो।

-सभी को प्रत्यक्ष दिखनेवाली बड़ी सी बेल्ट पहनकर घूमने में क्या तुक है? यह सबको बता देती है कि तुम्हारे कौशल की सीमा क्या है। प्रवीण योद्धा यह भलीभाँति जानता है कि रणनीति अधिक महत्त्वपूर्ण है, प्रदर्शन नहीं। (हिन्दी ज़ेन से) 

दो लघुकथाएँ

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 1.सेतु  
 - अनिता मंडा  
कितनीबार समझाया है इनको, थोड़ा धीरज से काम लिया करो। अब बेटे की शादी हो गई है, घर में बहू है, उनका बच्चा है। वो तो अच्छा है आज विभा गोलू को नानी से मिलवाने लेकर गई हुई थी, नहीं तो क्या सोचती बाप-बेटे की लड़ाई देखकर - बाल सारे सफ़ेद हो गए हैं, लेकिन अकड़ वैसी की वैसी है। क्या फ़र्क पड़ जाता दो बात नीतिन की मान लेते।
सुशीला के मन में विचारों की रेलमपेल चल रही थी। उसे दो पल चैन नहीं पड़ रहा था, बैचेन होकर रसोई में लगी रही।
पता नहीं कब आएँगे दोनों, कुछ खाकर भी नहीं गए। नीतिन भी  पूरी अपनी चलाना चाहता है अभी से, यही नहीं कि कभी पापा की भी सुन ले। विचारों के मंथन के साथ रसोईघर से पकवानों की महक उठने लगी।
अकेला इंसान ज्यादा सोचता है, क्योंकि विचारों की शृंखला में कोई बाधा देने वाला नहीं होता। बड़ी मुश्किल से शाम हुई।
 दरवाज़े की घंटी बजी। नीतिन आया पर उसका मुँह अभी भी फूला हुआ देखकर कुछ नहीं कहा, चुपचाप उसकी टेबल पर दही-भल्ले रखकर मुडऩे लगी तो पीछे से नीतिन का स्वर आया-  सॉरी मॉम मुझे पापा से ऐसे बात नहीं करनी थी।
  पीछे मुड़कर नीतिन से बात करने की भूमिका सोच ही रही थी, इतने में दुबारा दरवाजे की घंटी बजी।
माथे में बल डाले हुए राजेश को देखकर उनसे बात करने की इच्छा नहीं हुई। दाल का हलवा चुपचाप उनकी टेबल पर रखकर मुड़ी तो हाथ थामकर बोले - सुनो मुझे लगता है नीतिन को उसके फैसले खुद लेने का मौका देना चाहिए न मुझे अब!! राजेश की बात सुनकर सुशीला आँखों के आँसू छिपाने के लिए साड़ी के पल्लू से पोंछने लगी।
टोकते हुए राजेश बोले - अरे रे! ये क्या, तुम तो हमारा सेतु हो, सेतु की बुनियाद में इतनी नमी ठीक नहीं भई।

2.ऐसा भी होता है
      पिछले महीने मेरे पति का बंगलौर से दिल्ली ट्रांसफर हो गया। यहाँ आये काफी समय तक तो आस-पड़ोस से जान-पहचान ही नहीं हुई। घर का सामान जुटाने में पूरा दिन निकल जाता। साथ वाले घर की नैय्यर आंटी शाम को पार्क जाते समय आवाज दे देती -चल रही है क्या?-
दो-तीन बार उनके साथ पार्क गई थी।
अब सर्दी थोड़ी बढ़ गई तो मन किया घर से निकल बाहर धूप सेकने चलूँ। पार्क में नैय्यर आंटी भी मिल गई। वो किसी से बतिया रही थी।
उन्होंने मेरा परिचय करवाया। ये निधि मल्होत्रा है। हाथ से  इशारा करके उनके फ्लैट का नम्बर बताया। निधि मुझे थोड़ी जल्दी में लगी, सामान्य परिचय के बाद कहने लगी, मुझे जल्दी घर जाना है, ससुर जी के लंच का समय हो गया है। जरा सा लेट होते ही आसमान सिर पर उठा लेंगे।
नैय्यर आंटी ने बताया कि वो लक्ष्मण प्रसाद जी की बहू हैं।
लक्ष्मण प्रसाद जी से मैं पार्क में दो दिन पहले ही मिल चुकी थी। उस दिन नैय्यर आंटी पार्क में नहीं आई थी, लक्ष्मण प्रसाद जी की बातें मेरे स्मृति -पटल पर चल रही थी। 
 मैंने मन ही मन सोचा, कितनी दिखावा पसंद औरत है निधि जैसे उसके जितना ख्याल तो कोई रखता ही नहीं।
लक्ष्मण प्रसाद जी की उदासी से भरे बोल मेरे कानों में गूँज रहे थे-
 - अपनी मेहनत की पाई-पाई मैंने बेटे को काबिल बनाने में होम कर दी, आज बहू के वश में हो बेटा मुझे आँखें दिखाता है, बहनजी मैं ज्यादा कुछ नहीं चाहता, बस दो वक्त की रोटी शांति से मिल जाये। इस उम्र में बीमारियाँ भी कम नहीं होती, दवा-दारू की तो क्या उम्मीद करूँ।
 मैंने अपने मन की बात नैय्यर आंटी को बतानी चाही। मैंने कहा - हमें लक्ष्मण प्रसाद जी की मदद करनी चाहिए। हम सब चंदा इकट्ठा करके उनका इलाज करवा सकते हैं या कोई वृद्धाश्रम में उन्हें रखवा सकते हैं।
मेरी बात सुनकर नैय्यर आंटी के मुख पर चौंकने के भाव के साथ मुस्कान खेल गई, और मुझे आगाह करते हुए बोली- ओह! तो तुमसे भी लक्ष्मण प्रसाद ने मदद माँगी क्या?
मेरा मुँह देखकर वो समझ गई। आगे मुझे हिदायत देती रही - उन्हें कभी पैसे दे मत देना, बहू-बेटे की बुराई करके दूसरों के मन में अपने लिए सहानुभूति जगाएँगे और फिर अपनी बीमारी का रोना रोकर मदद माँगेगे। खासकर महिलाओं को वो भावुक  मूर्ख समझते हैं, असल में उनको जुआ खेलने की लत है। इनके बेटे -बहू तो बहुत अच्छे हैं। आश्चर्य से मेरी आँखें फटी की फटी रह गई कि ऐसा भी होता है।
सम्पर्क:आई-137 द्वितीय तल, कीर्ति नगर, नई दिल्ली 110015, फोन नं. 8285851482,anitamandasid@gmail.com   

कहानी

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                दोस्त 
                       - डॉ. दीप्ति गुप्ता
आमके पेड़  का थाँवला बनाता 'गुलाब सिंह, बड़ा मगन हुआ, कुछ  गुनगुनाता सा, अपने काम में लगा हुआ था। कल से उसने लगभग सभी पेड़ों के थाँवले बनाकर, फूलों की क्यारियों की सफाई कर उनकी डौलें भी विशेष रूप से आकर देते हुए बना डाली थीं। आज आलूबुखारे के दो पेड़ों के थाँवले बनाने शेष थे। उसका जोश आसमानी पींगें भर रहा था। वह कभी बगीचे के इस कोने में कुछ सफाई करता दिखता, तो दूसरे ही पल बगीचे के दूसरे सिरे पर अंगूर की बेल को सुलझाता हुआ, आम के तने पर उसकी फुनगियों और पत्तों को ठीक से बैठाता नजर आता। कभी वह एकाएक गायब हो जाता। न इधर नजर आता, न उधर और कभी सहसा ही घनी झाडिय़ों में से पत्तों को खड़खड़ाता प्रट हो जाता। वह माली कम, पेड़ अधिक लगता था- एक चलता-फिरता, हरा-भरा, खिला-खिला, झूमता पेड़! मैंने पेड़-पौधों  का ऐसा  दोस्त, उनसे  इतना अधिक लगाव रखने वाला माली इससे पहले नहीं देखा था। पेड़, पौधों, फूलों में जैसे उसके प्राण बसते थे। इसलिए ही अक्सर मुझे वह पेड़, पौधों और फूलों का प्रतिरूप नजर आता था। खाने पीने की सुध-बुध खोए, जिस तल्लीनता से वह बगीचे में लगा रहता था, उससे वह कभी-कभी मेरे लिए खीझ का कारण भी बन जाता; क्योंकि मुझे उसकी चिन्ता सताती थी कि यदि इसी तरह वह अपनी ओर से लापरवाह रहा, तो शीघ्र ही उसका शरीर जवाब दे जाएगा। एक दिन तो मुझे उस पर इतना क्रोध आया कि मेरा मन किया कि मैं उसे बगीचे में ही एक पेड़ के पास खड़ा करके, चारो ओर थाँवला बनाकर रोप दूँ, उसे वहीं जमा दूँ। क्योंकि शाम के 5 बजे तक उसका खाना बासी होकर, चींटियों की भेंट चढ़ गया था; कपड़े में लिपटी मोटी-मोटी रोटियाँ सूखी कड़क हो गई थी। जब चम्पा किसी काम से, उसके पास गई तो पता चला कि गुलाब सिंह को रोटी खाने की सुध ही नहीं रही और खाना चींटियों की और कुछ चिड़ियों, कौवों की दावत बन गया।
गुलाब सिंह’  का नाम उसके पिता गेंदा ने बड़े चाव से रखा था। जिस दिन वह पैदा हुआ था, ठीक उसी दिन उनके झोपड़े के पीछे की बाड़ी में एक बहुत ही सुन्दर लाल गुलाब खिला था। धरती पर एक साथ दो फूल खिले थे उस दिन! इधर घर में गेंदे के प्यारे बेटे  गुलाब’  ने अपनी नन्ही-नन्ही जुगनू -सी आँखेंखोली, उधर बाड़ी में गुलाबने अपनी पँखुडिय़ाँ खोली।
बस, उस दिन से ही वह गुलाब के नाम से पुकारा जाने लगा।
  मैंने बालकनी में कॉफी पीते हुए, गुलाब सिंह की 17 वर्षीय बेटी चम्पा को इशारे से अपने पास बुलाया और खोजबीन करनी चाही कि 'बात क्या है जो गुलाब सिंह जी इतने कूदे-कूदे बगीचे में फिर रहे हैं? यूँ तो रोज ही बगीचे के लिए उसके सेवा भाव में कोई कमी नहीं रहती, पर आज तो सेवा भाव सवासेर बढ़ा चढ़ा है।
 चम्पा ने उचक कर आँखो से बापू की, बालकनी से दूरी की तहकीकात की और फिर रहस्य का पर्दाफाश करती बोली - कल दो नए फूल के पौधों –सूरजमुखीऔर डेहलिया’ - दोनों पर फूली-फूली कलियाँ जो निकल कर आईंहै, वे खिलेगीं। बापू उसी की तैयारी में लगा है।’        
 ओह सहसा ही मेरे मुँह से निकला और मैं उत्सुक्ता से भरी, वह सोचने लगी कि कल गुलाब सिंह क्या करेगा? क्योंकि उस तरह की तैयारी मेरे लिए अचरज की ही बात थी। इससे पहले, ट्रान्सफर होकर, मैं जहाँ भी गई और जो भी माली मुझे मिले, मैंने उन्हें फूलों के खिलने पर, कुछ तैयारी करते कभी नहीं देखा था। सो मेरे लिए तो गुलाब सिंहऔर उसकी तैयारियाँलगभग एक अजूबे की तरह थीं। तभी चम्पा पलट कर मेरे पास आई और मुझे सचेत करती बोली -
आप बापू से मत बोलना कि मैंने आपको कुछ बताया। बापू ने घर में भी सबको बोल रखा है कि किसी से कुछ नहीं कहना है। बस, ‘खुसीकी खबर, उसी दिन सबको मिलेगी, जिस दिन खुसीकी बात होगी। वरना सबकी नजर लग जागी पौधों को।
अच्छा ऐसा क्या? बापरे, बड़ा ज्ञानी है तेरा बापू तो’ - मेरे यह कहने पर, चम्पा गुलाबसिंह की तारीफ सुन हाँकहती, खुशी से सिर हिलाने लगी। अपने पिता के ज्ञान पर सकारात्मक रूप से सिर हिलाकर, पक्की मुहर लगाने वाली चम्पा की भोली हरकत पर, मैं खिलखिला कर हँस पड़ी। मेरे हँसने पर उस नादान को लगा कि उसने कोई बड़ी अच्छी हँसी की बात कही है तो वह भी मेरे साथ हँसने लगी। फिर तो मेरी हँसी का ठिकाना ही नहीं रहा।
अगले दिन सुबह 6 बजे क्या देखती हूँ कि गुलाब सिंह एक थाली में हल्दी, कुंकुम, धूपबत्ती, छोटे-छोटे बताशे और पेड़े रखे, मुझे प्रसाद देते हुए; प्रफुल्लता से भरा 'सूरजमुखीऔर डेहलियाके खिलने का शुभ समाचार कुछ इस अन्दाज में मुझे दे रहा था- जैसे धरती ने फूलों को नहीं, वरन् दो नन्हे मुन्ने बच्चों को जन्म दिया हो! मुझे सच में उस पर गर्व हुआ। इसे कहते हैं सम्वेदनशीलता, इसे कहते हैं निष्ठा, लगन, सच्चा प्यार! गुलाब सिंह की सम्वेदनशीलता ने तो फूलों-पौधों में मानो दुगुनी जान डाल दी थी। आज जहाँ लोग इंसान को इंसान नहीं समझते, परस्पर नारकीय व्यवहार करते हैं, वहीं उसी दुनिया में रहने वाला, भौतिक दृष्टि से विपन्न, भावों और सम्वेदनाओं से सम्पन्न, गुलाब सिंह इतना उदात्त मनस है कि फूलों का जन्मोत्सव  मनाता है। बाकायदा हल्दी, कुंकुम और अक्षत से पूजा-अर्चन कर, उनका स्वागत करता है, सबका मुँह मीठा कराता है। उसकी यह सीधी सादी मिठाई उस महँगी, सुसज्जित मिठाई से चौगुनी मीठी और पवित्र भाव पूरित है, जो बेमन से लोग खास-खास मौंकों पर एक दूसरे को  दिखावे की होड़  में देते हैं।                  
 *          *             *                                      आज दीपावली है। माधवीबाई ने घर की जम कर साज सफाई की है। बिजलीवाला घर के बाहर, दरवाजों और खिड़कियों पर नन्हे-नन्हे बल्बों की रंग बिरंगी लड़ें टाँग रहा है। मैंने गुलाबसिंह को एक अप्रत्याशित खुशी देने के लिए बगीचे की झाडिय़ों और पेड़ों पर भी बल्बों की रंगीन लडिय़ाँ लगाने का विशेष आदेश बिजली वाले को दिया है। गुलाबसिंह भी आज अपने घर की सफाई और सजावट के लिए 12 बजे तक बगीचे में सफाई करके व पानी वगैरा देकर चला गया और शाम को फिर छ- सात बजे तक घर के मुख्य द्वार पर फूलों की माला व कमरे में ताजे फूलों के गुलदस्ते सजाने आगा। उस समय रंगीन बल्बों की लडिय़ों से जगमगाते बगीचे के पेड़ों और झाडिय़ों को देखकर गुलाब सिंह के चेहरे की चमक, उसकी खुशी को वह देखना चाहती है। गुलाब सिंह को उस खुशी के रूप में मानो वह दीपावली का तोहफा देना चाहती है। लीक से हट कर ऐसा तोहफा, जो उस अनूठे इंसान के  तन-मन में उत्फुल्लता और सच्ची खुशी के दीप जला दे।          
शाम ठीक छबजे गुलाब सिंह फूलों की मालाओं के साथ हाजिर हो गया। फूलों और मालाओं से घर को सजाते-सजाते  एक घण्टे से ऊपर बीत गया। जैसे ही अँधेरा घिरना शुरू हुआ, मैंने लड़ियोंके दोनों स्विच दबा दिए। सारा घर और घर के साथ बगीचा भी झिलमिल लडिय़ों से झलमला उठा। गुलाब सिंह तो अपने प्यारे बगीचे को यूँ चकमक, लकदक खूबसूरती से भरा देख, हक्का-बक्का सा रह गया। उससे  खुशी के  मारे न  हँसते  बन पड़ा, न  ही कुछ  बोल उसके मुँह से निकले। बौराया-सा बगीचे में इस पेड़ से उस पेड़, इस क्यारी से उस क्यारी के पास, उस जगमग सौन्दर्य को निहारता घूमता रहा। किन्तु वह अपनी ओर से कुछ अजूबा न करे, भला ऐसा कैसे हो सकता था? अपने साथ लाए, मालाओं के थैले में से उसने दिए, बत्ती और सरसों के तेल की शीशी निकाली और हर क्यारी व पेड़ के पास एक-एक दिया रखकर, एक जलती हुई मोमबत्ती से उन्हें दीपित कर, बगीचे की साज सज्जा को चौगुना करने में तल्लीन हो गया। हाथ जोड़े खुशी से भरा, मेरे पास आकर, मेरे पैरों को श्रद्धा से छूता हुआ बोला -
दीदी जी, आपने तो बगिया को दुल्हिन जैसा सजा दिया। क्या सुन्दर दिख रही है बगिया! बस एक दो फोटू खिंच जाते तो, सदा के लिए याद रह जाती।मुझे उसका सुझाव भा गया। मैंने एक-दो नहीं, बल्कि उसकी कई सारी फोटो बगीचे में खींच डाली। उसके बाद से तो फोटो का विचार ऐसा उसके मन में ऐसा घर कर गया कि वह जब-तब फूल खिलने पर, फल आने पर वह अपनी फोटो खिंचवाता।
जनवरी की कड़ाकेदार सर्दी थी। मैं शॉल में लिपटी किसी काम से बाहर आई तो क्या देखती हूँ कि गुलाब सिंह एक पेड़ के नीचे बैठा रो रहा है खामोश गर्दन झुकाए, आँसू पोंछता, सुबकता, सबसे बेखबर कपड़े से मुँह ढके, चुपचुप रोए जा रहा है। मैंने तुरन्त, उसके पास पहुँच कर, प्यार से पूछा – क्या बात है गुलाब सिंह? घर में सब ठीक तो है?’
वह चौंकता हुआ, धीरे से बोला –जी हाँ दीदी।
तो फिर रो क्यों रहे हो? -  मैंने पूछा।
पहले तो खामोश रहा, फिर अपने को सम्हालते हुए, आसूँ छिपाते हुए बोला –दीदी जी, बगीचे में तीन पौधे मर गए है। हमने तो पूरी तरह उनकी देखभाल की थी, पर पाले ने उन्हें मार डाला।
मैं इधर उधर नजर दौड़ाती बोली -कहाँ है, कौन से पौधे? दिखाओ तो!
तो जवाब में मुँह लटकाए वह बोला –उन्हें तो हमने दफ़ना भी दिया। हम उन्हें उखाड़कर कूड़े कचरे की तरह नहीं फेंकते। जहाँ मिट्टी में उन्हें दबाया है, अब वहाँ कुछ दिन बाद, हम नई पौध लगायेंगे। जब तक वहाँ नए पौधे नहीं जम जाएँगे, तब तक हमें कल नहीं पड़ेगी।
मैंने एक गहरी निश्वास के साथ गुलाब सिंह को समझाने का प्रयास किया कि वह इस तरह रो-रो कर दुखी न होए। ऐसे रोने से मरे हुए पौधे जि़न्दा थोड़े ही हो जाएँगे! धैर्य रखे और खिले फूल, हरे-भरे पौधों  में अपना ध्यान बटा। फिर भी उसकी उदासी नहीं गई। वह मेरे कहने से भारी कदमों से खुरपी हाथ में लिए उठा और क्यारियों की निराई करने लगा। मैं पोर्च की सीढ़ियाँचढ़ते हुए सोचने लगी कि यह गुलाब सिंह भी सच में अनोखा ही व्यक्तित्व है, बड़ा ही भला और प्यारा इंसान है। माली तो बहुतेरे मिले, पर गुलाब सिंह जैसा न तो कभी मिला और न ही भविष्य में कहीं मिलेगा। तन, मन से प्रकृति को समर्पित! उसके आँसू, उसकी मुस्कान, उसकी उदासी, उसकी खुशी सब इन पेड़ पौधों और फूलों में समाहै। उसकी तो दुनिया इन्हीं में बसी है। कोई पौधा मर जाता है या सूख जाता है तो मिनटों में उसकी दुनिया उजड़ी, उखड़ी हो जाती है। वाह रे, भोले, सरल मनस गुलाब सिंह, तू धन्य है, महान है! मानवता का जीता जागता रूप है, प्यार की प्रतिमूर्ति है, प्रकृति के प्रति समर्पण की प्रतिकृति है, इसके प्रति अनूठे लगाव का प्रतिरूप है !
 *       *        *                                        
भीषण गर्मी ने बड़ी क्रूरता से समूची सृष्टि के मानो प्राण ही खींच लियेथे। पंछी बेजान से तपती दोपहरी में अपने घोंसलों में मुँह डाले पड़े थे। निरीह पशु बेसुध से जगह-जगह पेड़ों की, घरों की छाँह में दयनीय से बैठे थे। हरी, रेशमी घास, गर्मी की तपिश से सूखी और बदरंग नजर आने लगी थी। सभी बौराए से लगते थे। अगर नहीं बौराया था, तो वह था- फलों का राजा आम। अमरायाँ रसीले, पके आमों से लदी पड़ी थीं। तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। मैंने सोचा इस भरी दोपहर में, 1.30 पर, जब गर्मी अपने चरम पर होती है, कौन आया होगा? भला यह भी कोई आने का समय है ! न जाने कौन सिरफिरा है - मन ही मन खीझते हुए जैसे ही मैंने दरवाजा खोला तो पाया कि गुलाब सिंह फलों की टोकरी में बनारसी और दशहरी आमों की सौगात लिए  मुस्कुराता, पसीने में  तरबतर खड़ा है। मैंने आव देखा न ताव और मैं उस पर बरस बुरी  तरह  बरस पड़ी -
तुम्हें इस दोपहरी में भी चैन नहीं है? दो पल आराम के तुम्हें बुरे लगते है? लू लग गई, ताप हो गया तो, हम सबका चैन हराम करके ही तुम्हें सुकून मिलेगा क्या?’ मेरे ये ख्याल और प्यार से भरे तिक्तशब्द सुनकर शान्त भाव को ओढ़े, बिना शिकन डाले, वह बड़ी सहजता से बोला -
दीदी जी, आज ही ये आम पक कर तैयार हुए है, तो पहला भोग भगवान को लगाकर, सीधे आपके पास लेकर आए है। हम इन्हें पानी में भिगो देते है।1-2 घन्टे बाद आप इन्हें फ्रिज में रख देना। वरना ऐसे ही खा लियेतो गर्मी कर जाएँगे।
मैं फिर तड़की- अरे, हमारी गर्मी का तो तुम्हें पूरा ख्याल है, कुछ अपना भी ध्यान कर लिया करो, तुम्हें गर्मी लग गई तो ये आम, बाग- बगीचा, सब आठ-आठ आँसू रोएँगे ! क्या समझे ?’  किन्तु वह  खामोश, गर्दन झुकाए, मुस्कुराता काम में लगा रहा। 
फिर मैंने प्रश्नसूचक दृष्टि से उसे देखते हुए पूछा -
इस कड़कती गर्मी में कौन से मन्दिर में भगवान को भोग लगाकर आ रहे हो? जाने के लिए ये ही समय मिला था ? सुधर जाओ गुलाब सिंह, सुधर जाओ!
मेरे यह पूछने पर जो उसने जवाब दिया, उसे सुनकर तो मैं ऐसी निरुत्तर हुई कि मैंने तौबा कर ली कि इस महारथी महानात्मा से अब कभी कुछ न कहूँगी। इसके साथ कोई डाँट फटकार नहीं करूँगी।
इसके  सोच, इसके  मूल्य, इसके  क्रिया कलाप, सच  में, आम लोगों  से थोड़े नहीं, बल्कि बहुत हटकरहैं। गुलाब सिंह उस चिलचिलाती गर्मी में, मेरे घर से कुछ दूरी पर बने हुए उस छोटे से अनाथ आश्रम में गया था, जहाँ 100 के लगभग बच्चे रहते हैं।
उन्हें बगीचे के  पके आमों का पहला भोग लगाकर वह मानो उन अनाथ बच्चों के रूप में, भगवान को भोग लगाकर आया था। माँ- बाप के  प्यार से वंचित बच्चों को, उनकी इस उम्र में जब, उन्हें अच्छी-अच्छी स्वास्थ्यवर्द्धक चीजें मिलनी चाहिए, बल्कि यदि देखा जाए,तो यही वह उम्र है; जब बच्चों को तरह-तरह की चीजे खाने का चाव होता है, तो ऐसे अनाथ बच्चों को, हर मौसम के फलों का पहला भोग लगाना, दान करना, गुलाब सिंह अपना नैतिक कर्त्तव्यसमझता था। उसके अनुसार बगीचे के फल खाकर, वे मासूम-अनाथ बच्चे तो  तृप्त होते ही है, साथ ही फलदाता पेड़-पौधे भी मानों खुश और प्रफुल्लित होते है और गुलाब सिंह के अनुसार ऐसे दान से ही वे वृक्ष दिन दूने और रात चौगुने फलते- फूलते है। गरीब व दीन की सेवा, उनसे प्यार- भगवान की सेवा और भगवान से प्यार होता है-इस जगत् प्रसिद्ध आस्था को गुलाब सिंह ने  सिद्धांत बना कर मात्रदिल में ही नहीं सँजों रखा था, अपितु उसे चरितार्थ भी करताथा।भावों  और  सम्वेदनाओं  से  सम्पन्न  मैं तो गुलाब सिंह की  सोचउसके  दर्शनउसके उदार  नजरिएउच्च मूल्यों से  इतनी  अधिक  अभिभूत हुई कि उस दिनसे मैंने किसी पर भी अमीर- गरीब, छोटे-बड़े, शिक्षित-अशिक्षित, परिपक्व-अपरिपक्व की मुहर लगाना छोड दिया। उन्हें वर्गीकृत करना छोड दिया। केवलकिताबे पढ़ लेने से, डिग्रियाँ हासिल कर लेने से किसी की समझ और सोच जाग्रत नहीं होती। पूँजीपति होते हुए भी व्यक्ति, अनुदार और निर्बुद्धि होने के कारण  गरीब माना जा सकता है। सच्चाई और अच्छाईउदात्तता, समझदारी, दूरदृष्टिबुद्धिमत्ता और शिक्षा -धन और किताबी ज्ञान की मोहताज नहीं  होती। गुलाब सिंह इस सत्य का जीता जागता रूप था।जीवन में सब कुछ पा लेने पर भी, सारी कामनाएँ पूर्ण करने पर भी, अतृप्त रहने वाले, ‘और पाने की’  लालसा में  विघटित मूल्यों वालों के लिए गुलाब सिंह एक करारा जवाब था। समाज के लिए कुछभी न कर पाने की विवशता  जताने वालों के लिए एक ठोस उदाहरण था। अनुदार  अमीरों  को लज्जित करने वाली  उदारता था। पेड़-पौधों, पशु-पक्षी और जरूरतमन्दों का ममता और प्यार से भरा  दोस्त था। मनुष्यता की, इंसानियत की अनूठी मिसाल था। यदि समाज में  हर दूसरा आदमी गुलाब सिंह हो  जाए  तो सच  में  धरती पर स्वर्ग उतर आए।
सम्पर्कः2/ए, 'आकाशदूत' 12- ए, नार्थ एवेन्यूकल्याणी नगरपूना- 110006 (महाराष्ट्र), मो. 09890633582

लोककथा

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          एक लोककथा पर आधारित- परिवर्तित रूप में
            चमत्कारी रात
                       - गोवर्धन यादव
शरदपूर्णिमा का दिन था। चाँद अपने पूरे यौवन के साथ आकाश पटल पर चमचमा रहा था। मौसम बड़ा सुहाना हो गया था। रात के बारह बजे सारा जंगल आराम से सो रहा था। चारों ओर शांति का साम्राज्य था।
 पेड़ की एक डाल पर बन्दर और बन्दरिया बैठे जाग रहे थे और दूसरी डाल पर तोता और मैना बैठे हुए थे। यह वह समय था जब पशु-पक्षी एक दूसरे की भाषा समझते थे।
तोता बोला- मैना, रात नहीं कट रही है। कोई ऐसी बात सुनाओ कि वक्त भी कट जाए और मनोरंजन भी हो।
मैना मुस्कुराई और बोली- क्या कहूँ आप बीती या जग बीती। आप बीती में भेद खुलते हैं और जग बीती में भेद मिलते है।
 तोता होशियार था, बोला- तुम तो जगबीती सुनाओ
 मैना ने कह- आज की रात एक चमत्कारी रात है। आज ही के दिन चन्द्रमा से अमृत बरसेगा। अमृत की कुछ बूंदे कमलताल में भी गिरेगी, जिससे इसका पानी चमत्कारी गुण?से युक्त हो जाएगा। यदि कोई प्राणी आधी रात को इस कमलताल में कूद जाए तो आदमी बन जाएगा।।
 तोता बोला, क्या सचमुच में ऐसा हो सकता है।
 मैना ने कहा -जो प्रेम करते हैं, वे सवाल नहीं पूछते, भरोसा करते हैं।
तोते ने मैना से कहा- तो फ़िर देर किस बात की।
चलो हम दोनों तालाब में कूद पते हैं और आदमी बन जाते हैं।
 मैना ने कहा,'अरे तोता, हम पंछी ही भले। अभी तू आदमी के फेर में नहीं पड़ा है, इसलिए चहक रहा है। हम अपनी ही जात में बहुत खुश हैं।
तोता-मैना की बातें बन्दर और बन्दरिया ने सुनी तो चौंक पड़े। अधीर होकर बन्दरिया ने बन्दर से कहा- साथी आओ। कूद पड़ें।
 बन्दर ने अँगडाई लेते हुए कहा- अरे छोड़ रे सखी, हम ऐसे ही खुश हैं। एक डाल से दूसरी और दूसरी से तीसरी पर छलांग मारते रहते हैं। पेड़ पर लगे मीठे-मीठे फल खाकर अपना गुजर-बसर करते हैं। न घर बनाने की झंझट और न ही किसी बात की चिन्ता। हमें क्या दुख है। अपने दिमाग से आदमी बनने का ख्याल निकाल दे।
 बन्दरिया आह भरकर बोली- ये जीवन भी कोई जीवन है? मैं तो तंग आ गई हूँ इस जीवन से। मुझे यह सब करना अच्छा नहीं लगता। आदमी की योनि में जन्म लेकर मैं दुनिया के सारे सुख उठाना चाहती हूँ। देखो, मैंने अपना मन बना लिया है और मैं अब तालाब में कूदने जा रही हूँ। यदि तुम मुझसे सच्चा प्यार करते हो तो मेरा साथ देना होगा। मैना की  बताई घड़ी बीतने वाली है, सोच क्या रहे हो, आओ पकड़ मेरा हाथ और कूद पड़ें।
 बन्दरिया की बात सुनकर बन्दर हिचकचाने लगा। बोला- तुम भी मैना की बातों में आ गयी।
 पानी में तो कूद पड़ेंगे, लेकिन किसी जहरीले साँप ने काट लिया तो मुफ़्त में जान चली जाएगी।
 बन्दरिया समझ गयी कि बन्दर साथ न देगा। घड़ी बीतने ही वाली थी। बन्दरिया चमत्कार देखने के लिए उत्सुक थी, झम्म से कमलताल में कूद पड़ी।
 आश्चर्य, बन्दरिया की जगह वह सोलह साल की युवती बन गई थी। उसके रुप से चाँदनी रात जगमगा उठी।
 डाल पर बैठे बन्दर ने जब उसका अद्भुत रूप देखा तो पागल हो उठा। उसने तत्काल फ़ैसला लिया कि वह भी कमलताल में कूदकर आदमी बन जाएगा। उसने डाल से छलांग लगाया और तालाब में कूद पड़ा, लेकिन वह शुभ घड़ी कभी की बीत चुकी थी। वह बन्दर का बन्दर ही बना रहा।
दिन निकला।
 थर-थर कांपती युवती, सूरज की गुनगुनी धूप में अपना बदन गर्माने लगी थी।
 तभी संयोग से एक राजकुमार उधर से आ निकला। उसने उस रुपवती युवती को देखा तो बस देखता ही रह गया। उसने अपने जीवन में इतनी खूबसूरत युवती इसके पहले कभी नहीं देखा थी। देर तक अपलक देखते रहने के बाद, वह उसके पास पहुँचा और अपना उत्तरीय उतारकर उसके कंधोंपर डाल दिया। फ़िर अपना परिचय देते हुए  कहा हे सुमुखी। सुलोचनी। मैं इस राज्य का राजकुमार हूँ और शिकार खेलने के लिए इस जंगल में आया हूँ। इससे पहले मैंने तुम्हें यहाँ कभी नहीं देखा। तुम्हें देखकर यह नहीं लगता की तुम इस लोक की वासी हो। हे ! त्रिलोकसुन्दरी बतलाओ, तुम किस लोक से इस धरती पर अवतरित हुई हो और तुम्हारा क्या नाम है ?
एक अजनबी और बाँके युवक को सामने पाकर वह शर्म से छुईमुई सी हुई जा रही थी। शरीर में रोमांच हो आया था।
 सोचने- समझने की बुद्धि कुंठित सी हो गई थी। वह यह तय नहीं कर पा रही थी कि प्रत्युत्तर में क्या कहे। क्या उसे यह बतलाए कि कुछ समय पूर्व तक वह बन्दरिया थी और अर्धरात्रि में इस कमलताल में कूदने के बाद एक सुन्दर-सुगढ़ युवती बन गई है? देर तक नजरें नीचे झुकाए वह मौन ओढ़े खड़ी रही थी।
राजकुमार ने दोनों के बीच पसरे मौन को तोड़ते हुए कहा-  मैं भी कितना मूर्ख हूँ, जो ऐसे-वैसे सवाल पूछ बैठा।
 मुझे यह सब नहीं पूछना चाहिए था।
 देवी माकरें। मेरी एक छोटी सी विनती है, उसे सुन लीजिए।
 तुम्हारी यह कमनीय काया जंगल में रहने योग्य नहीं है। तुम्हारे ये नाजुक पैर उबड़-खाबड़ और कठोर धरती पर रखने लायक नहीं है। फ़िर जंगल के हिंसक पशु तुम्हें देखते ही चट कर जाएँगे। मैं नहीं चाहता कि तुम उनका शिकार बनो। तुम्हें तो किसी राजमहल में रहना चाहिए। तुम कब तक इस बियाबान जंगल में यहाँ-वहाँ भटकती रहोगी। मेरा कहा मानो और मेरे साथ राजमहल में चली चलो। मैं दुनिया के सारे वैभव, सुख-सुविधाएँ तुम्हारे कदमों में बिछा दूँगा। तुम्हें अपनी रानी बनाकर रखूँगा। पूरे राजमहल में तुम्हारा ही हुक्म चलेगा। देर न करो और चली चलो मेरे साथ।
शायद सच कह रहे हैं राजकुमार, अब यह कमनीय काया जंगल में रहने लायक रह नहीं गई है। उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि अब वह बन्दरिया नहीं, एक नारी बन गई है और एक नारी को अपना तन कने के लिए कपड़े चाहिए, फ़िर तन सजाने के लिए आभूषण चाहिए। अब वह पेड़ पर नहीं रह सकती। उसे रहने को घर चाहिए और भी वह सब कुछ चाहिए,जिसकी सुखद कल्पना एक नारी करती है। यह ठीक है कि उसका मन अब भी अपने प्रिय में रम रहा है, लेकिन वह उसकी आवश्यक्ता की पूर्ति नहीं कर सकता।
 उसे तो अब चुपचाप राजकुमार का कहा मानकर उसके साथ हो लेना चाहिए इसी में उसकी भलाई है।
यह सोचते हुए उसने राजकुमार के साथ चलने की हामी भर दी थी।
 घोड़े पर सवार होने के पहले उसने अपने प्रिय को अश्रुपूरित नेत्रों से देखा और हाथ हिलाकर बिदाई माँगी।
बन्दर ने देखा कि उसकी प्राणप्रिया राजकुमार के साथ जा रही है, तो उसने उन दोनों का पीछा किया।
 कहाँ घोड़े की रफ़्तार और कहाँ बन्दर की दुड़की चाल।
 भागता भी तो बेचारा कितना भागता।
 दम फूलने लगा था। आँखों के सामने अन्धकार नाचने लगा और अब मुँह से फेनभी गिरने लगा थाआखिरकार वह बेहोश होकर गिर पड़ा।
संयोग से उधर से एक महात्मा निकल रहे थे। वे सर्वज्ञानी थे। बन्दर को देखते ही सारा माजरा समझ गए।
उन्होंने अपने कमण्डल से पानी लेकर उसके मुँह पर छींटे मारे।
बन्दर को होश आ गया।
 होश में आते ही बन्दर फफक कर रो पड़ा और उसने महात्माजी से अपना दुखड़ा कह सुनाया।
 महात्मा ने उसे धीरज बँधाते हुए कहा कि तुम्हें अपने साथी पर भरोसा करना चाहिए । यदि तुम भरोसा करते तो ये दिन न देखने पड़ते। खैर जो होना था, सो हो चुका। अब तुम किसी मदारी के साथ हो लो। कुछ दिन बाद तुम्हें तुम्हारी प्रियतमा मिल जाएगी।
संयोग से उधर से एक मदारी निकला। उसने बन्दर को पकलिया। अब वह गाँव-गाँव, शहर-शहर तरह -तरह के करतब दिखलाता घूमने लगा।
इधर, राजकुमार उस युवती से विवाह करने की जिद करने लगा। लेकिन उसका मन तो अब भी अपने प्रिय में ही लगा था।
 राजकुमार के प्रस्ताव को टालने के लिए उसने एक बहाना गढ़ दिया कि उसने कोई एक ऐसा व्रत ले लिया है कि जिसके चलते वह एक साल तक विवाह नहीं कर सकती। साल पूरा होते ही वह  विवाह रचा लेगी।
 राजकुमार मान गया, लेकिन वह हमेशा उदास बनी रहती। उसे उदासी में घिरा देखकर, राजकुमार को बहुत दुख होता, वह अपनी ओर से उसकी उदासी दूर करने का जितना भी प्रयास करता, लेकिन उसके चेहरे पर प्रसन्नता की झलक तक दिखलानहीं देती।
 एक दिन राजकुमार ने उससे कहा कि मैं ऐसा क्या करुं कि तुम खुश हो जाओ।
 बन्दरिया से कमलिनी बनी युवती ने कहा- राजकुमार, यदि आपके राज्य में कोई मदारी-कलावंत अथवा कोई संगीतकार अपनी कला का प्रदर्शन करने आए, तो उसे सबसे पहले मेरे महल में आकर अपनी कला का प्रदर्शन करना होगा।
 युवती की बात मानते हुए उसने पूरे राज्य में डौंडी पिटवा दी कि कोई भी कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करना चाहता है ,तो उसे सबसे पहले कमलिनी के सामने अपनी कला का प्रदर्शन करना होगा।
संयोग से वह मदारी उस राज्य में आ पहुँचा। नियम के मुताबिक उसे उस युवती के सामने अपनी कला का प्रदर्शन करना था। मदारी की रस्सी से बँधे बन्दर को देखते ही उसने पहचान लिया।
 उसने मदारी को कुछ अशर्फ़ियाँ देकर उसे खरीद लिया।
 अब वह दिन भर बन्दर के साथ रहती।
 पुराने दिनों की याद करती और अपना दुखड़ा रोती रहती।
एक दिन, तोता और मैना उड़ते हुए अटारी पर आ बैठे।
 इस समय कमलिनी आराम कर रही थी और बन्दर पास ही बैठा हुआ था।
 तोते ने मैना से कहा-सुनो। इस घड़ी कोई मर जाए और उसे नींबू के पेड़ के नीचे दबा दिया जातो अगले जनम में वह आदमी बन जाएगा।
 इतना कहकर वे फ़ुर्र से उड गए। बन्दर ने तोते की बात सुन ली थी। उसने उसे जगाते हुए कहा कि मैं अपने प्राण त्यागने जा रहा हूँ।
 तुम मुझे नींबू के पेड़ के नीचे दफ़ना देना। अगले जनम में मैं आदमी बन जाउँगा और तुमसे विवाह रचा, लूँगा। फ़िर हम सदा-सदा के लिए एक दूसरे के हो जाएँगे। इतना कहकर उसने अपने प्राण त्याग दिए।
 राजकुमारी अगली घड़ी का रास्ता देखने लगी।
 रात आतो उसने राजकुमार से कहा कि मेरा भी अंत समय आ गया है।
 मेरे मरने के बाद तुम मेरे शरीर को नींबू के पेड़ के नीचे दफ़ना देना।
कुछ दिनों बाद दोनों का जन्म हुआ।
 युवती ने एक ब्राह्मण के घर और बन्दर ने एक निम्न जाति के घर मे जन्म लिया।
 दोनों को अपने पूर्व जन्म का पूरा-पूरा ज्ञान था
  पड़ोस के सारे बच्चे मिलकर खेल खेलते और वह बालक अपनी देहरी पर बैठा उनके खेल देखता रहता।
 उसका भी मन होता कि वह भी बच्चों के संग खेले, लेकिन कोई उसे साथ खिलाने को तैयार नहीं होता।
 बच्चों के बीच खेलती कमलिनी उसका दर्द समझती थी, लेकिन समाज के बनाए नियमों को तोडऩे की हिम्मत उसमे न थी।
 एक दिन सारे बच्चे छिपा-छिपल्ली का खेल खेल रहे थे।
 कमलिनी को कहीं छिप जाना था और शेष बच्चों को उसे ढूँढना था।
 यह उसके लिए सुनहरा मौका था।
 उसने देहरी पर बैठे बालक का हाथ पकड़ा और पास के जंगल में जा छिपी।
 सारे बच्चे उसे दिन भर ढूँढते रहे ;लेकिन उसे कोई खोज नहीं पाया।
 वह दिन भर उसके साथ यहाँ-घूमती रही।
 ढेरों सारी बातें करती रही और अपना दुख व्यक्त करने से नहीं चूकती कि निष्ठुर समाज उन्हें कभी एक नहीं होने देगा।
शाम ढलने से पहले वह बच्चों के बीच आ पहुँची।
 सारे बच्चों को इस बात पर आश्चर्य हुआ कि आखिर वह कौनसी जगह पर जा छिपी थी।
- इस तरह दिन पर दिन बीतते रहे और वह लोगों की नजरों से छिपती-छिपाती अपने प्रिय से मिलती रही।
 लेकिन यह खेल ज्यादा दिन तक नहीं चल सका था।
 अब वह जवानी की दहलीज पर कदम रख चुकी थी।
 उसके माता-पिता ने अब उस पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए थे।
 उसका घर से बाहर निकलना तक बंद कर दिया था।
 वह दिन भर अपने घर के भीतर कैदी की भाँति रह रही थी, लेकिन उसका बावरा मन उसके अपने प्रिय के इर्द-गिर्द घूमता रहता था।
 एक दिन, मौका पाकर वह घर से भाग निकली और अपने प्रिय को लेकर जंगल की ओर निकल पड़ी।
 जंगल का एकांत उसे बड़ाप्रिय लग रहा था।
 वह उसके साथ यहाँ-वहाँ विचरती रही, ढेरों सारी बातें करती रही कि किस तरह उनका मिलन हो सकता है, पर गंभीरता से विचार-विमर्श करती रही।
 वे अच्छी तरह जानते थे कि घर से भाग जाने के बाद भी उन्हें खोज निकाला जाएगा और फ़िर उसका निर्दय समाज उनकी किस तरह की दुर्गत बनाएगा, जिसकी कल्पना मात्र से शरीर में सिहरनें होने लगती थी।
 यहाँ-वहाँ विचरते रहने के बाद वे बुरी तरह से थक गए थे और एक विशाल पेड़ के नीचे सो गए थे।
 संयोग से उधर से एक आदमी निकला जो दोनों के माता-पिता को जानता था।
 उसने उन दोनों को कई-कई बार साथ-साथ विचरते देखा था।
 दोनों को साथ सोता देखकर उसका माथा घूमने लगा था।
 उसे तो आश्चर्य इस बात पर हो रहा था कि उच्च कुल ब्राह्मण के घर पैदा हुई लड़की, एक चांडाल के लड़के के साथ आराम फ़रमा रही है।
 उसे क्रोध हो आया और वह सीधे उस ब्राह्मण के घर जा पहुँचा और जोर-जोर से चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगा- अरे सुनते हो पंडित।
घोर कलियुग आ गया है घोर कलियुग। 
घर से बाहर निकलकर पंडितजी ने पूछा- अरे यूँ ही चिल्लाते रहोगे या कुछ बतलाओगे भी।हम भी तो सुने कि आखिर माजरा क्या है?
 उस आदमी ने सारा किस्सा एक साँस में कह सुनाया और कहा कि  तुम अभी और इसी समय मेरे साथ चलो और अपनी आँखों से देखो कि तुम्हारी लड़की उस नीच के साथ क्या गुल खिला रही है।
 सुनते ही पंडित का चेहरा क्रोध में तमतमाने लगा था।
 वह उस आदमी के साथ हो लिया।
 वहाँ जाकर उसने देखा कि उस लड़के ने अपनी बाहें फैला रखी थी और उसकी बेटी उसकी बाहों पर अपना सिर रखकर आराम से सो रही थी।
 अब पंडितजी के क्रोध का पारावार देखने लायक था।
 उसने पेड़ से एक टहनी तोड़ी और दोनों को जगाते हुए बेरहमी से पीटने लगा।
 फ़िर लड़के को हिदायत देते हुए कहा कि अगर तुम दोबारा साथ दिखे तो तुम्हारे पूरे परिवार को बस्ती से बाहर निकलवा दूँगा।
दाँत पीसते हुए उसने लड़की की बाहेंपकड़ींऔर लगभग घसीटता हुआ उसे लेकर अपने घर की ओर चल पड़ा।
 उस दिन के बाद से दोनों का मिलना न हो सका। बावजूद इसके वे इस प्रयास में रहते कि किसी तरह उनका मिलना संभव हो सके।
अचानक एक दिन दोनों की मुलाकात हो गई। दोनों ने तय किया कि जंगल की ओर भाग चलें और वहाँ बैठकर जी भर के बातें करेंगे। बातों ही बातों में दिन कब ढल गया और रात हो आयी, उन्हें पता ही नहीं चल पाया।
 संयोग से उस दिन शरद पूर्णिमा थी। चाँद अपने पूरे यौवन के साथ आकाश पटल पर चमचमा रहा था। तभी तोता और मैंने कहीं से उडते हुए आए और एक डाल पर बैठ गए।
 तोता बोला- मैना, कितनी सुहावनी रात है। ऐसी अद्भुत रात में भला किसे नींद आती है।
 तुम कोई ऐसी बात सुनाओ कि वक्त भी कट जाए और मनोरंजन भी हो।
 मैना मुस्कुराई और बोली- क्या कहूँ। आप बीती या जगबीती।
 आप बीती में भेद खुलते हैं और जगबीती में भेद मिलते हैं।
 तोता होशियार था, बोला - तुम तो जगबीती सुनाओ।
 मैना ने तोते से कहा- तुम्हें याद है कभी इसी पेड़ पर एक बन्दर और बन्दरिया रहा करते थे। उस दिन भी ऐसे ही अद्भुत रात थी।
 उस दिन बन्दरिया मनुष्य योनि में जन्म लेने के चक्कर में कमलताल में कूद पड़ी थी और एक सुन्दर युवती बन गई थी।
 जब  बन्दर ने देखा कि उसकी प्रियतमा नारी बन गई है, तो वह भी आदमी बनने के लालच में कमलताल में कूद पड़ा, लेकिन तब तक वह शुभ घड़ी बीत चुकी थी। वह बन्दर का बन्दर ही बना रहा।
 किसी तरह दोनों की मुलाकात तो हो गई लेकिन अलग-अलग योनियों में जन्म लेने के कारण उनका मिलन नहीं हो सकता था।
 अगले जनम में वे मनुष्य योनि में जनमे तो सही, लेकिन जात-पात के चलते उनका दुबारा मिलना असंभव सा प्रतीत होता है।
 और भविष्य में कभी हो सकेगी, इस बात की संभावना भी दिखाई नहीं देती।
 हाँ, यदि वे अपनी पुरानी योनि में फ़िर से जनम लेना चाहते हैं , तो आधी रात के वक्त कमलताल में कूद पड़ें। यदि ऐसा वे कर सके तो उनका मिलन संभव हो सकता है।
इतना कहकर तोता और मैना फ़ुर्र से उड़ गए।
सुना। सुना तुमने, मैना क्या कह रही थी ? कह रही थी कि यदि हम आधी रात के वक्त कमलताल में कूद पड़ें तो फिर से अपनी पुरानी योनि प्राप्त कर सकते है। क्या तुम मेरे साथ देने को तैयार हो?
पिछली बार तुमने मुझसे कमलताल में कूदने की जिद की थी और मैंने तुम्हारा साथ नहीं दिया था, जिसकी सजा मैं अब तक भुगत रहा हूँ।
 अब मैं तुमसे कह रहा हूँ कि चलो कमलताल में कूद पड़ते है और फ़िर से बन्दर-बन्दरिया बन जाते हैं।अधीर होकर उस युवक ने कमलिनी से कहा।
 कमलिनी इस समय गंभीरता से कुछ और ही सोच रही थी।
 शायद इसलिए उसने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया था।
 वह तो इस समय, पिछले जनम की बातों को लेकर सोच रही थी कि कितनी स्वछन्दता के साथ वह अपने प्रिय के साथ रहा करती थी,जहाँ न तो जात-पात के बन्धन थे और न ही किसी बात पर टोका-टाकी। न मन में कोई चाहना और न ही कोई अभिलाषा। जब जी चाहा, वहाँ चले गए, और जब जी चाहा, वापिस हो लिये
 नाहक ही उसने मैंना की बातों में आकर मनुष्य बनने की चाहत पाल ली थी और कूद पड़ी थी ताल में।
 क्या मिला उसे मनुष्य योनि में जनम लेकर? सिवाय दुख और परेशानी के वह कुछ भी तो हासिल नहीं कर पाहै अब तक।
 कमलिनीअब तक अपनी सोच के घेरे से बाहर नहीं आ पाथी, उधर युवक का दिल जोरों से धड़क रहा था।
 उसे पक्का यकीन हो चला था कि वह उसका साथ नहीं देगी।
 उसने भी तो उस समय उसका साथ देने में हिचकचाहट दिखलाथी,
 यदि वह बदला लेना चाह रही है तो ठीक ही कर रही है।
 उसने किसी तरह अपने आप पर काबू रखते हुए, उसके अन्तिम फ़ैसले के बारे में जानना चाहा और उसे लगभग झझकोरते हुए पूछा- तुम कहाँ खोई हुई हो।
तुम्हें कुछ पता भी है कि मैना के द्वारा बतलागई घड़ी बीतने जा रही है और तुम हो कि अब तक फ़ैसला नहीं कर पायी।
 बोलो।  कुछ तो बोलो, आखिर क्या चाहती हो तुम।
 तुम मेरा साथ दोगी या नहीं? एक गहरी उदास भरी नजरें उसके चेहरे पर डालते हुए उसने पूछा और उसके उत्तर का इंतजार करने लगा था।
कुछ चैतन्य होते हुए उसने उस युवक का हाथ पकड़ा और तेजी से दौड़ लगाते हुए उस चट्टान पर जा खड़ी हुई, जहाँ से उसे कमलताल में छलांग लगानी थी।
सम्पर्क: 103, कावेरीनगर, छिन्दवाड़ा (मप्र) 480001
mo. 07162-246651, 09424356400

गीत

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  चल पड़े हैं
- मंजूषा मन  

चल पड़े हैं हम भँवर में
काग़जों की नाव ले।

राह में काँटे बिछे हैं
हम हैं नंगे पाँव ले।

फ़ौज तूफानों की आए
चाहे मेरे सामने,
कोई न साथी सर में
आये मुझको थामने।
अब चलो तन्हा चलें हम
आप अपने घाव ले।
चल पड़े है.....

काग़जों की कश्तियों का
क्या भरोसा हम करें,
ज़िन्दगी होती यही है
क्यों भला हम ग़म करें।
स्वप्न को नौका बना चल
हौसलों का ताव ले।
चल पड़े हैं हम भँवर में
काग़जों की नाव ले।

सम्पर्क: म्बुजा सिमेंट फॉउनडेशनग्राम पोस्ट रवान, ,   
जिला बलौदा बाजार, छत्तीसगढ़ -493331  

संस्मरण

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 ज़बान सँभाल के 
  - प्रियंका गुप्ता  
बहुतपुरानी कहावत है...ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोए...औरन को सीतल करे, आपहुँ सीतल होए...। वैसे कहावत तो ये कटु बोली के लिए कही गई है, पर अगर किसी की बोली तो मधुर हो, पर अपनी भुलक्कड़ आदत के चलते वो अक्सर गड़बड़ियाँकरता रहे, तो ऐसे में कौन सी कहावत कही जानी चाहिए...?
बात मैं यहाँ अपनी माँ की कर रही...। मेरी माँ, यानी कि प्रेम गुप्ता मानी’...उनके हिसाब से नहीं, पर मेरे और बाकी भी कइयों के हिसाब से लब्ध-प्रतिष्ठित लेखिका...। जब वो लिखती हैं, तो कुछ नहीं भूलती...पर जब बतियाती हैं ,तो अक्सर कब कहाँ, क्या भूल जाएँ...कोई भरोसा नहीं...। एक टॉपिक से शुरू हुई बात बीच रास्ते में कौन से भूले-बिसरे टॉपिक की किस मंजिल पर जा पहुँचे, इसका भी कोई भरोसा नहीं...। अक्सर उनसे बात करते समय मुझे बीच में हिसाब लगाना पड़ता है कि चीन के रास्ते पर चले थे, अचानक जापान कैसे आ गया...? जब वो अपनी यादें आपके साथ बाँटती हैं, तो तैयार रहिए...कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा...भानुमती ने कुनबा जोड़ा...कहावत को बीच-बीच में बुदबुदाते रहने के लिए...। बातों तक तो तब भी ठीक है, उन्हें आप छूटा सिरा पकड़ा दीजिए, तो वो सही दिशा में चलने लगेंगी...पर शक्लें भूलने का क्या कीजे...? जब तक वो किसी को जल्दी-जल्दी आठ-दस बार मिल न लें...हर बार उससे नए सिरे से परिचय पूछ सकती हैं...। मिलने वाला  कई बार हैरान-परेशान...। अभी तो उस दिन अपने घर में इतने अच्छे से स्वागत किया था...आज फिर...आप कौन...? यकीनन ऐसे में उसको हम आपके हैं कौनकी बड़ी याद आती होगी...? या याद करने को कोई और भी पिक्चर याद आ जाती हो...क्या मालूम...? मैने कभी पूछा नहीं...।
अमूमन सावधानीवश अब वो हर नए मिलने वाले को इस बारे में बता देती हैं...अगर अगली बार न पहचानूँ, तो प्लीज...खुद परिचय दे दीजिएगा...। अब घर का दरवाजा बाद में खोलती हैं, आने वाला खुद ही एक बड़ी- सी मुस्कराहट के साथ बोल देता है...नमस्ते, मैं फलाँ-फलाँ...। हाँ, कुछ लोग जो नहीं वाकिफ़ थे, उनकी इस बात से, वो हमेशा के लिए बुरा भी मान चुके हैं...।
चेहरा भूलना भी चलो ठीक...होता है...पर ये जो मौके-बेमौके ज़बान फिसल जाती है, उसका क्या करूँ...? जाने कौन से ग्रह हैं उनके, वो बिना सोचे-समझे अक्सर कोई ऐसी बात बोल जाती हैं जो किसी और सन्दर्भ में किसी और पर बड़े ही भयानक ढंग से फिट बैठ जाती है...। कुछ ऐसी ही बातें आज भी जब याद आती हैं तो हँसते-हँसते पेट में बल पड़ जाता है...। कुछ नमूने आपके साथ भी बाँट रहीहूँ, ताकि जब आप उनसे मिलें और ऐसे कुछ हादसे आपके साथ भी हो जाएँ, तो कृपया हँसने में हमारा साथ अवश्य दें...।
सबसे पहली घटना जो याद आ जाती है, वो तब की है जब मैं सात-आठ साल की या शायद उससे भी छोटी थी। हम लोगों ने दूसरा मकान लिया था किराए का...। उस समय मेरी तबियत बहुत खराब हो गई थी। हमारी मकान-मालकिन को जब पता चला, तो वो नीचे आई मुझे देखने, कुछ हाल-चाल लेने...। खाने में मैं वैसे ही माशाअल्लाह थी, बीमारी में तो जैसे पूरा उपवास कर लेती थी। सो आण्टीने बड़े गम्भीर भाव से कहा- इसे दूध में कच्चा अण्डा डाल कर दो...बहुत ताकत आएगी...।
माँ उनसे बात करते-करते मुझे अपने हाथ से खिलाने में भी लगी थी। उन्होंने भी उतने ही गम्भीर भाव से कहा- नहीं भाभी जी, नहीं पिएगी...। उल्टी कर देगी सब...अण्डे में लाश होती है न...।
आण्टी इस अचानक हुए करमचंदीय रहस्योघाटन से दुविधा में पड़ गई। शायद अगर उस समय करमचन्द आता होता या वो देखती होती तो पक्का वो कहती, यू आर जीनियस...। पर दुविधा बहुत गहरी थी। माँ खाने के लिए मेरा मनौना करने में लगी थी और आण्टी इस सोच में थी कि शायद माँ चूजे के लिए द्रवित हैं...। सो उन्होंने ही हल निकाला- नहीं, चूज़े वाला लाने की क्या ज़रूरत है...। फार्म वाला लाओ न...उसमें से लाश नहीं निकलेगी...।
माँ को अब तक याद भी नहीं रहा था कि क्या हुआ...। सो उन्होंने आण्टी से भी ज्यादा भौंचक तरीके से उनकी ओर देखा...। बाद में कई दिनों तक दोनों एक-दूसरे की मानसिक अवस्था को लेकर समान रूप से संशय में रही...। पर आखिरकार मामला साहुआ और ये घटना आज तक दोनों लोगों के बीच पारिवारिक मनोरंजन का साधन बनती है...।
दूसरी घटना इसके कुछ साल बाद की है...। इस बार हादसे का शिकार हुए पापा के एक सहकर्मी, जो इत्तफ़ाक से एक अच्छे समीक्षक भी हैं। यथार्थकी गोष्ठी में एक-दो बार आ भी चुके थे। पापा का एक्सीडेण्ट हुआ था, अस्पताल में ये अंकल पापा को देखने आए...। जितनी इज्जत से वो पेश आ रहे थे, उससे ज्यादा खातिरदारी (अपने स्वभाव के अनुसार) करने में माँ जुट गई थी। पर किसी को बहुत परेशान करना माँ को कभी पसन्द नहीं रहा, सो बार-बार एक बात उन्हें खटक रही थी, सो कहे बिना चैन नहीं मिला- भाई साहब, आज फिर से क्यों परेशान हुए इतनी दूर से...। कल तो आप देख ही गए थे न...।
अंकल थोड़ा सोच में पड़ गए...। उन्हें याद नहीं आ रहा था कि कहीं इस दुनिया में उनका कोई जुड़वा भी है, जिसके बारे में उनको भी नहीं पता। फिर पूरी तरह से सोच-विचारकर  उन्होंने कहा- नहीं मानी जी, मैं तो कल नहीं आया था...। वो तो सोच-विचार कर बोले, माँ ने बिना सोचे-विचारे पापा की ओर देख कर दिल के उद्गार प्रकट कर दिए- अच्छा, लेकिन ऐसे ही तो काले से थे...। 
यहाँ पर एक बात स्पष्ट कर दूँ...। माँ के दिल की इस भावना के पीछे किसी भी तरह का रंगभेद, जातिभेद या यहाँ-वहाँ का कोई भी भेदभाव नहीं था...। उस दिन वाले और उससे भी एक दिन पहले वाले, दोनो अंकल थोड़े से रंग के मामले में समान थे, और शक्ल...नाम सब भूल जाने वाली मेरी माताजी को अचानक कोई और समानता नहीं याद आई अपना ये संशय दूर करने के लिए...।
उस समय तो अंकल सनाका खा गए। अपने रंग-रूप को लेकर शायद पहले कभी उन्हें इतना नहीं सोचना पड़ा होगा, जितना उस दिन...। हाँ, यह बात और है कि वक़्त बीतने के साथ उन्हें माँ की इस आदत का पता चल गया और आज भी उनसे हम सब के मधुर और पारिवारिक सम्बन्ध हैं।
तीसरा हादसा कानपुर के कथाकार दीप अंकल के साथ हुआ। वो यथार्थकी गोष्ठियों में तो नियमित रूप से आते ही थे, पारिवारिक रूप से रविवार को आने वाले कुछ गिने-चुने लेखकों में भी वो शामिल हो चुके थे। एक दिन वो जब आए, माँ ने कचौरियाँ बनाई हुई थी। माँ की  मेहमाननवाज़ी बहुत प्रसिद्ध हुआ करती थी। सो लाज़िमी था कि दीप अंकल को भी कचौरियाँ ऑफ़र की जाती। प्लेट परोसकर उनके आग्रह पर माँ भी ड्राइंगरूम में बैठ गई...। मैं उस दिन साहित्यिक बातचीत में शामिल होने के मूड में नहीं थी, कोई मज़ेदार कॉमिक्स पढ़ रही थी शायद...। माँ ने अंकल के लिए पानी लाने को कहा, पर उम्र के हिसाब से मुझे कॉमिक्स छोडऩा गवारा नहीं था। सो उठकर बाहर बरामदे में आ गई। माँ कुछ पल तो धैर्य से प्रतीक्षा करती रही, पर जब इंतज़ार बर्दाश्त से बाहर हो गया तो बड़े ही गुस्से में उन्होंने ज़ोरदार आवाज़ लगाई- दीऽऽऽप, डिम्पल के लिए पानी लाओ...। (यहाँ बता दूँ, डिम्पल मेरा घरेलू नाम है...।) दीप अंकल बेचारे हाथ का कौर हाथ में ही थामे बैठे रह गए। उनको ज़रा भी अन्दाज़ नहीं था कि चार कचौरियों के बदले उनसे
बेगार भी करवाई जा सकती है...। बेगार भी कोई ऐसी-वैसी नहीं, सीधे बच्ची के लिए पानी लाना...उफ्फ़...। बाहर मैं भी कॉमिक्स छोड़ उछल चुकी थी। जल्दी से दौड़कर पानी ले आई। हमेशा की तरह मम्मी को नहीं पता चला कि उन्होंने आवाज़ लगाई भी तो किसे लगाई...। वो अब भी आग्रह कर रही थी- दीप जी, एक कचौरी और ले लीजिए...। पर दीप अंकल किसी तरह राज़ी नहीं हुए। चार कचौरी के बदले पानी मँगवा रही थी, ज्यादा खिलाकर जाने पूरे दिन की नौकरी न करवा लें...। बाद में फ़ुर्सत में उनसे भी मामला साफ़ किया गया...। बरसों बाद जाकर उन्होंने फिर से एक दिन खाना खाने की हिम्मत दिखाई, पर सौभाग्यवश कुछ गड़बड़ नहीं हुई...। मैंने पहले ही पानी-वानी लाकर रख दिया था।
ऐसे हादसे तो बहुत हुए, पर एक बार जो हुआ, उससे सच में एक रिश्तेदार ऐसा बुरा मान गए कि लाख कहने के बावजूद लौटकर नहीं आए आज तक...। हुआ यूँ कि एक गर्मी की भरी दोपहरी पापा के एक दूर के रिश्ते के भाई हमारे घर अचानक आ गए। उस दिन नल न आने से पानी की भयानक तंगी हो गई थी। सारा काम फैला पड़ा था। ज़रूरत वक्त के लिए माँ रसोई के एक कोने में जितने भी संभव हो पाते, उतनी चीजों में पानी का स्टॉक रखती थी। सुबह से बाकी पानी तो इस्तेमाल हो चुका था, बस एक बड़े से टब में पानी भरा था। जाने कहाँ से दुर्भाग्य का मारा एक चूहा उसमें आत्महत्या कर बैठा। माँ नाश्ता बनाने रसोई में आई ही थी कि मैंने उन्हें चूहे के अवसान की दु:खद ख़बर दे दी। सारी बुरी स्थितियों से झल्लाई माँ ने बड़ी तल्ख़ी से कहा- आज वैसे ही सुबह से पानी नहीं आया, इसको भी अभी ही आकर मरना था...।
चूहे के लिए कही गई वो बात किराये के उस छोटे मकान में गूँजती-सी मेहमान के कानों तक भी पहुँच गई थी शायद...। उन्होंने जाहिर तो नहीं किया, पर लाख आग्रह करने के बावजूद वे बिना कुछ खाए-पिए, माँ को अपने अप्रत्याशित व्यवहार से हैरान-परेशान छोड़ कर चले गए। बहुत दिन बाद जब किसी और के माध्यम से यह बात पता चली, तब भी माँ को सब याद दिलाने में मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ी थी, क्योंकि अपनी आदत से मजबूर माँ सब कुछ भूल चुकी थी।
आज हालाँकि माँ की यह आदत बहुत हद तक कम हो चुकी है, पर आज भी अगर कभी कोई नया परिचित घर आने वाला होता है या फिर किसी से उनकी फोन पर बात करवानी होती है, तो मैं पहले ही उनसे हाथ जोड़कर विनती कर देती हूँ...माते...कृपया ज़बान सँभाल के...।
सम्पर्क:एम.आई.जी.-292, कैलाश विहार,आवास विकास योजना संख्या- एक, कल्याणपुर, कानपुर- 208017 (उ.प्र.)      

छत्तीसगढ़ की महानदी

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          अति पुण्या चित्रोत्पला
                     - प्रो. अश्विनी केशरवानी
 मानवसभ्यता का उद्भव और संस्कृति का प्रारम्भिक विकास नदी के किनारे ही हुआ है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में नदियों का विशेष महत्त्व है। भारतीय संस्कृति में ये जीवनदायिनी माँ की तरह पूजनीय हैं। यहाँ सदियों से स्नान के समय पाँच नदियों के नामों का उच्चारण तथा जल की महिमा का बखान स्वस्थ भारतीय परम्परा है। सभी नदियाँ भले ही अलग अलग नामों से प्रसिद्ध हैं लेकिन उन्हें गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, महानदी, ताप्ती, क्षिप्रानदी के समान पवित्र और मोक्षदायी माना गया है। कदाचित् इन्हीं नदियों के तट पर स्थित धार्मिक स्थल तीर्थ बन गये..। सूरदास भी गाते हैं:
हरि-हरि-हरि सुमिरन करौं।
हरि चरनार विंद उर धरौं।
हरि की कथा होई जब जहाँ,
गंगा हू चलि आवै तहँ।।
जमुना सिंधु सरस्वति आवै,
गोदावरी  विलंबन लावै।
सब तीरथ की बासा तहाँ,
सूर हरि कथा होवै जहाँ।।
भारत की प्रमुख नदियों में महानदी भी एक है। इसे 'चित्रोत्पला-गंगाभी कहा जाता है। इसका उद्गम सिहावा की पहाड़ी में उत्पलेशवर महादेव और अंतिम छोर में चित्रा-माहेश्वरी देवी स्थित हैं। कदाचित् इसी कारण महाभारत के भीष्म पर्व में चित्रोत्पला नदी को पुण्यदायिनी और पाप विनाशिनी कहकर स्तुति की गहै:
उत्पलेशं सभासाद्या यीवच्चित्रा महेश्वरी।
चित्रोत्पलेति कथिता सर्वपाप प्रणाशिनी।।
सोमेश्वरदेव के महुदा ताम्रपत्र में महानदी को चित्रोत्पला-गंगा कहा गया है:
यस्पाधरोधस्तन चन्दनानां
प्रक्षालनादवारि कवहार काले।
चित्रोत्पला स्वर्णावती गताऽपि
गंगोर्भि संसक्तभिवाविमाति।।
महानदी के उद्गम स्थल को विंध्यपादकहा जाता है। पुरूषोत्तम तत्व में चित्रोत्पला के अवतरण स्थल की ओर संकेत करते हुए उसे महापुण्या तथा सर्वपापहरा, शुभा आदि कहा गया है:
नदीतम महापुण्या विन्ध्यपाद विनिर्गता:।
चित्रोत्पलेति विख्यानां सर्व पापहरा शुभा।।
महानदी कोगंगाकहने के बारे में मान्यता है कि त्रेतायुग में शृंगी ऋगीका आश्रम सिहावा की पहाड़ी में था। वे अयोध्या में महाराजा दशरथ के निवेदन पर पुत्रेष्ठि यज्ञ कराकर लौटे थे। उनके कमंडल में यज्ञ में प्रयुक्त गंगा का पवित्र जल भरा था। समाधि से उठते समय कमंडल का अभिमंत्रित जल गिर पड़ा और बहकर महानदी के उद्गम में मिल गया। गंगाजल के मिलने से महानदी गंगा के समान पवित्र हो गयी। कौशलेन्द्र महाशिवगुप्त ययाति ने एक ताम्रपत्र में महानदी को चित्रोत्पला के नाम से संबोधित किया है:
चित्रोत्पला चरण चुम्बित चारुभूमो
श्रीमान कलिंग विषयेतु ययातिषुर्याम्।
ताम्रेचकार रचनां नृपतिर्ययाति
श्री कौशलेन्द्र नामयूत प्रसिद्ध।।
17 वीं शताब्दी के महाकवि गोपाल ने भी महानदी को अति पुण्या चित्रोत्पलामाना है:
पाप हरन नरसिंह कहि बेलपान गबरीस,
अतिपुण्या चित्रोत्पला तट राजे सबरीस।
इसी प्रकार स्कंध पुराण में पुरूषोत्तम क्षेत्रकी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए महानदी को माध्यम बनाया गया है:-
ऋषिकुल्या समासाद्या दक्षिणोदधिगामिनीम्।
स्वर्णरेखा महानद्यो मध्ये देश: प्रतिष्ठित: ।।
अर्थात् पुरूषोत्तम क्षेत्र स्वर्णरेखा से महानदी तक विस्तृत रूप से फैला है, उसके दक्षिण में ऋ षिकुल्या नदी स्थित है।
महानदी के सम्बंध में भीष्म पर्व में वर्णन है जिसमें कहा गया है कि भारतीय प्रजा चित्रोत्पला का जल पीती थी। अर्थात् महाभारत काल में महानदी के तट पर आर्यो का निवास था। रामायण काल में भी पूर्व इक्ष्वाकु वंश के नरेशों ने महानदी के तट पर अपना राज्य स्थापित किया था। मुचकुंद, दंडक, कल्माषपाद, भानुमंत आदि का शासन प्राचीन दक्षिण कोसल में था। डॉ.विष्णुसिंह ठाकुर लिखते हैं: 'चित्रोत्पलाशब्द में दो युग्म शब्द है-चित्र और  उत्पल । उप्पल का शाब्दिक अर्थ है- नीलकमल, और चित्रा गायत्री स्वरूपा महाशक्ति का नाम है। चित्रा को ऐश्वर्य की महादेवी भी कहा जाता है। राजिम क्षेत्र कमल या पद्मम क्षेत्र के रूप में विख्यात् है। राजिम को श्री संगमकहा जाता है। श्रीका अर्थ ऐश्वर्य या महालक्ष्मी जिसका कमल आसन है। महानदी के तट पर श्रीसंगमराजिम में स्थित विष्णु भगवान का प्रतिरूप राजीवलोचनया राजीवनयन विराजमान हैं।  राजीव का अर्थ भी कमल या उप्पल होता है। यहां स्थित कुलेश्वर महादेवउत्पलेश्वर कहलाते हैं। शब्द कल्पदुम के अनुसार महानदी के उद्गम को पद्माकहा गया है- सा पद्मया विनिसृता राम पुराख्याग्रामात पश्चिम उत्तर दिग्गता।
मार्कण्डेय और वायु पुराण में महानदी को 'मंदवाहिनी'कहा गया है और उसे शुक्तिमत पर्वत से निकली बताया गया है। लेकिन महानदी धमतरी जिलान्तर्गत सिहावा (नगरी) से निकलकर 858 कि. मी. की दूरी तय करके बंगाल की खाड़ी में गिरती है। यह नदी छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सबसे बड़ी और प्राचीन नदी है। इस नदी के उपर गंगरेल और हीराकुंड बांध बनाया गया है। इन बाँधों के पानी से लाखों हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती है, साथ ही बुरला-संबलपुर में बिजली का उत्पादन भी होता है। महानदी के रेत में सोना मिलने का भी उल्लेख मिलता है। इस नदी में अस्थि विसर्जन भी होता है। गंगा के समान पवित्र होने के कारण महानदी के तट पर अनेक धार्मिक, सांस्कृतिक और ललित कला के केंद्र स्थित हैं। सिरपुर, राजिम, मल्हार, खरौद, शिवरीनारायण, चंद्रपुर और संबलपुर प्रमुख नगर हैं। सिरपुर में गंधेश्वर, रूद्री में रूद्रेश्वर, राजिम में राजीव लोचन और कुलेश्वर, मल्हार पातालेश्वर, खरौद में लक्ष्मणेश्वर, शिवरीनारायण में भगवान नारायण, चंद्रचूड़ महादेव, महेश्वर महादेव, अन्नपूर्णा देवी, लक्ष्मीनारायण, श्रीराम लक्ष्मण जानकी और जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा का भव्य मंदिर है। गिरौदपुरी में गुरू घासीदास का पीठ और तुरतुरिया में लव कुश की जन्म स्थली बाल्मिकी आश्रम स्थित था। इसी प्रकार चंद्रपुर में माँ चंद्रसेनी और सलपुर में समलेश्वरी देवी का वर्चस्व है। इसी कारण छत्तीसगढ़ में इन्हें काशी और प्रयाग के समान पवित्र और मोक्षदायी माना गया है। शिवरीनारायण में भगवान नारायण के चरण को स्पर्श करती हुई रोहिणी कुंडहै जिसके दर्शन और जल का आचमन करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। सुप्रसिद्ध प्राचीन साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा इसकी महिमा गाते हैं:
रोहिणि कुंडहि स्पर्श करि चित्रोत्पल जल न्हाय।
योग भ्रष्ट योगी मुकति पावत पाप बहाय।।
प्राचीन कवि बटुकसिंह चौहान ने तो रोहिणी कुंड को ही एक धाम माना है। देखिए एक बानगी:
रोहिणी कुंड एक धाम है, है अमृत का नीर,
बंदरी से नारी भई, कंचन होत शरीर।
जो कोई नर जाइके, दरशन करे वही धाम,
बटुक सिंह दरशन करी, पाये पद निर्वाण।।
भारतेन्दु युगीन रचनाकार पंडित हीराराम त्रिपाठी शिवरीनारायण माहात्म्यमें लिखते हैं:
चित्रउतपला के निकट श्री नारायण धाम।
बसत सन्त सज्जन सदा शिवरिनारायण ग्राम।।
ऐसे पवित्र नगर शिवरीनारयण, जांजगीर-चाम्पा जिलान्तर्गत महानदी के तट पर स्थित है और 'गुप्तधाम'कहलाता है। इसे छत्तीसगढ़ का प्रयाग और जगन्नाथ पुरी भी कहा जाता है। माघ पूर्णिमा को प्रतिवर्ष यहाँ भगवान जगन्नाथ पधारते हैं। इस दिन महानदी स्नान कर उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। इसी प्रकार राजिम में भगवान राजीव लोचन का दर्शन साक्षी गोपालके रूप में किया जाता है। खरौद में भगवान लक्ष्मणेश्वर का दर्शन काशी के समान फलदायी होता है। इसी प्रकार चंद्रपुर की चंद्रसेनी और संबलपुर की समलेश्वरी देवी का दर्शन शक्ति दायक होता है।
प्राचीन काल में महानदी व्यापारिक संपर्क का एक माध्यम था। बिलासपुर और जांजगीर-चांपा जिले के अनेक ग्रामों में रोमन सम्राट सरवीरस, क्रोमोडस, औरेलियस और अन्टीनियस के शासन काल के सोने के सिक्के मिले हैं। इसी प्रकार महानदी सोना और हीरा प्राप्ति के लिए विख्यात् रही है। आज भी सोनाहाराजाति के लोग महानदी के रेत से सोना निकालते हैं। सोनपुर नगर का नामकरण सोना मिलने के कारण है। संबलपुर के हीरकुंड क्षेत्र में हीरा मिलने की बात स्वीकार की जाती है। वराहमिहिर की बृहद संहिता में कोसल में हीरा मिलने का उल्लेख है जो शिरीष के फूल के समान होते हैं:- 'शिरीष कुसुमोपम च कोसलम्Ó मिश्र के प्रख्यात् ज्योतिषी टालेमी ने कोसल के हीरों का उल्लेख किया है। रोम में महानदी के हीरों की ख्याति थी।.... तभी तो पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय छत्तीसगढ़ की वंदना करते हुए लिखते हैं:
महानदी बोहै जहाँहोवै धान बिसेस।
जनमभूम सुन्दर हमर अय छत्तीसगढ़ देस।।
अय छत्तीसगढ़ देस महाकोसल सुखरासी।
राज रतनपुर जहाँरहिस जस दूसर कासी।।
सोना-हीरा के जहाँमिलथे खूब खदान।
हैहयवंसी भूप के वैभव सुजस महान।।
कहा गया है कि महानदी के जल का स्पर्श करके पितृ देवों का तर्पण करना चाहिए। ऐसा करने से उन्हें अक्षय लोकों की प्राप्ति होती है और उसके कुल का उद्धार हो जाता है। सुप्रसिद्ध कवि बुटु सिंह चौहान भी गाते हैं:
दोहा  
शिव गंगा के संगम में, कीन्ह अस पर वाह।
पिण्ड दान वहाँजो करे, तरो बैकुण्ठ जाय।।
चौपाई
वहां स्नान कर यह फल होई।
      विद्या वान गुणी नर सोई।।
एक सौ पितरन वहां पर तारे।
      पितरन पिण्ड तहां नर पारै।।
गाया समान ताही फल जानो।
      पितरन पिण्ड तहां तुम मानो।।
मानो पितर गाया करि आवे।
      पितरन भूरि सबै फल पाये।।
जो कोई जायके पिण्ड ढरकावहीं।
      ताकर पितर बैकुण्ठ सिधावहीं।।
दोहा
क्वाँर कृष्णो सुदि नौमि के, होत तहाँ स्नान।
कोढ़िनको काया मिले, निर्धन को धनवान।।
महानदी गंग के संगम में, जो किन्हे पिण्ड कर दान।
सो जैहैं बैकुण्ठ को, कहीं बुटु सिंह चौहान।।
शिवरीनारायण में महानदी के तट पर स्थित माखन साव घाट और राम घाट में अस्थि विसर्जन के लिए कुंड बने हुए हैं। माखन साव घाट में रेत के नीचे दबे चट्टान में भी एक अस्थि विसर्जन के लिए कुंड है लेकिन यह कुंड रेत के हटने के बाद दृष्टिगोचर होता है। कदाचित यही कारण है कि यहाँसज्जनोंका वास है जो सदा हरि कीर्तन में रत रहते हैं। भारतेन्दुकालीन कवि पंडित हीराराम त्रिपाठी भी गाते हैं:
दोहा
चित्रउतपला के निकट श्रीनारायण धाम।।
बसत सन्त सज्जन सदा शिवरीनारायणग्राम।। 1 ।।
सवैया
होत सदा हरिनाम उच्चारण रामायण नित गान करैं।
अति निर्मल गंगतरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरैं।
शबरी वरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरैं।
जहाँ जीव चारू बखान बसैं सहजे भवसिंधु अपार तरैं।।
महानदी से संस्कारित मेरी यह काया शिवरीनारायण और छत्तीसगढ़ का ऋणी है। जब भी मैं महानदी घाटी के ग्राम्यांचलों में चित्रित भित्ति चित्र को देखता हूँ ,तो पत्रकार भाई श्री सतीश जायसवाल की बात याद आती है। इसे उन्होंने महानदी घाटी की सभ्यता’  कहा है। कदाचित् महानदी छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सांस्कृतिक परम्परा को जोड़नेका एक माध्यम है। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा महानदी के तट पर स्थित राजिम, सिरपुर, खरौद, चंद्रपुर और शिवरीनारायण जैसे अनेक नगरों को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का निर्णय उचित और स्वागतेय है।             सम्पर्क:राघव’, डागा कालोनी, चांपा- 495671 (छत्तीसगढ़)
Email: ashwinikesharwani@gmail.com

प्रकृति

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      पर्यावरण को सहेजना हम सबकी जिम्मेदारी है
     कोई और इसे बचाने नहीं आगा
                         - वैभव अग्रवाल  
राबर्टस्वान ने कभी कहा था कि हमारे ग्रह (पृथ्वी) को सबसे बड़ा खतरा, हमारी इस मानसिकता से है कि कोई और इसे बचा लेगा। ये कथन हमारे लिए चेतावनी के साथ साथ सलाह भी है कि हम सब मिल कर ही अपने ग्रह पृथ्वी को बचा सकते है। ये हम सब का दायित्व है कि पृथ्वी के वातावरण को बचाने में हम सब सहयोग दे,चाहे छोटा सहयोग या बड़ा। क्योंकि कहा भी गया है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।
जैसा सुकरात ने कहा है कि वो ही अमीर है जो प्रकृति के संसाधनों का कम से कम उपयोग करता हैअर्थात हमें अपनी आवश्यकता अनुसार ही प्रकृति के संसाधनों का उपयोग करना चाहिए। जैसे कि हम व्यर्थ में पेड़ ना काटें, जल व्यर्थ ना करें, वायु को कम से कम प्रदूषित करें, विद्युत् का उपयोग आवश्यकता अनुसार करे। वैसे भी कहा गया है कि प्रकृति हमार। हमारे प्राचीन ऋषि- मुनियों ने प्रकृति के महत्त्व को समझा था इसी लिए हमारे भारत में नदियों, वृक्षों, पर्वतों को देवता स्वरुप मानकर उनकी पूजा करते थे ताकि हम उन्हें गन्दा एवं अपवित्र ना करें।
आजकल हम देख रहे है कि पृथ्वी के संसाधनों का बहुत दुरुपयोग हो रहा है। आजकल दिखावे की प्रथा दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। जहाँ हम एक कार में  5-6 लोग जा सकते है ; वहीं पर हर आदमी शान के लिए अलग गाड़ी का प्रयोग कर रहा है। और तो और शहरों में लोग सैर के लिए भी शहर से दूर गाडिय़ों में जाते हैं ; क्योंकि अंधाधुँध आधुनिकरण ने शहरों में स्वच्छ वायुवाला स्थान ही नहीं छोड़ा। ज्यादा मोटर गाडिय़ों से सड़क पर यातायात अवरुद्ध हो जाता है और दुर्घटनाओं की संख्या में बहुत बढ़ोतरी हो रही हैं। पेट्रोल की खपत दिन- पर-दिन  बढ़ रही है जिससे वायू प्रदूषण बढ़ रहा है। पर्यावरण खऱाब हो रहा है जिसके कारण तरह तरह के रोग बढ़ रहे हैं ।
आजकल हम देख रहे है कि विवाह, जन्मदिन आदि समारोह में भी खाने कि बहुत ज्यादा बरबादी हो रही है। एक ही समारोह में 10-15 तरह के व्यंजन बनते है और अंतत: बहुत ज्यादा अन्न व्यर्थ जाता है। अन्न को उगाने में कितनी मेहनत, खाद, पानी, समय और बिजली आदि लगते हैं,तो किसान ही जानता है और हम उसको कितनी आसानी से बरबाद कर देते हैं। एक तरफ तो विश्व में अनेकों लोग भूख से मर रहे हैंं और एक तरफ अन्न की बरबादी बहुत ही तकलीफदेह है। भगवान कृष्ण ने भी दौपदी को अक्षय पात्र के एक चावल के दाने से अन्न का महत्त्व समझाया था। अत: हम सबको अन्न व्यर्थ ना करके उसका सदुपयोग करना चाहिए ; जिससे हमारा पर्यावरण भी सुरक्षित रहेगा।
अभी कुछ समय पहले भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत की योजना चलाई है। स्वच्छ भारत की योजना केवल सरकार के प्रयासों से सफल नहीं हो सकती। जब तक प्रत्येक नागरिक इसमें अपना सहयोग नहीं देगा तब तक ये योजना सफल नहीं हो सकती। स्वच्छता से ही हम पृथ्वी को बचा सकते है। स्वच्छता होगी तो कई बीमारियाँ तो वैसे ही समाप्त हो जाएगी जिन पर हमें और सरकार को बहुत सा धन खर्च करना पड़ता। वो ही धन अगर देश के विकास में लगे तो कितना अच्छा हो। सभी नीरोग जीवन जिएँ। स्वच्छता तब ही होगी , जब हम ठीक से कचरे का प्रबन्धनरेंगे। कम से कम कचरा पैदा करेंगे और उस कचरे का दोबारा अन्य कामों में प्रयोग करेगे। इससे हमारे पर्यावरण की सुरक्षा होगी और हमारी पृथ्वी सुन्दर होगी।
आजकल विभिन्न देशों में हथियारों की होड़ लगी हुई है। ऐसे ऐसे घातक हथियार विकसित किए जा रहे है जो पृथ्वी को नष्ट कर सकते है। एक तरफ तो हम दूसरे ग्रहों पर जीवन की संभावना तलाशते हुए घूम रहे हैं और दूसरी तरफ हम अपनी स्वर्ग से भी सुन्दर पृथ्वी को बरबाद करने पर तुले हुए हैं जो हम सबको जीवन देती है। ये कैसी विडम्बना है?
अभी पिछले दिनों देश में सूखे जैसे हालत हुए, हमने देखा कि महाराष्ट्र, बुंदेलखंड आदि जगहों पर लोगों के लिए पीने तक का पानी नहीं था और दूसरी तरफ हम पानी को व्यर्थ करते रहते हैं। ये हम सबका कर्तव्य है कि हम पानी का संरक्षण करे और उसका सदुपयोग करे;क्योकि जल ही जीवन है।
जैसे जैसे द्योगीकरण हो रहा है वायुप्रदूषण बढ़ रहा है, नदियों का पानी दूषित हो रहा है, जंगल के जंगल काटे जा रहे है। जिससे पर्यावरण को भयंकर नुकसान हो रहा है। इसका एकमात्र विकल्प है कि हम ज्यादा से ज्यादा वृक्ष लगाये।
अंधाधुध द्योगीकरण से विश्व का तापमान साल दर साल बढ़ रहा है जिसके कारण ग्लेशियर पिघल रहे है। समुद्र का जल स्तर बढ़ता जा रहा है जिससे कई द्वीप तो समुद्र में पहले ही  समा चुके है। कई जीव जंतु विलुप्त हो चुके हैं।
कुल मिलाकर देखा जाये तो स्थिति बहुत भयावह है।  अगर हम अभी भी सचेत नहीं हुए तो हमारा भविष्य अंधकारमय ही है। हम अपने ग्रह पृथ्वी को तब ही बचा सकेगे;जब हर व्यक्ति अपना कर्तव्य समझकर तथा छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देकर प्रकृति के स्रोतों की रक्षा करेगा और उनका सदुपयोग करेगा। ऐसे समय में राबर्ट स्वान का ये कथन कि हमारे ग्रह (पृथ्वी) को सबसे बड़ा खतरा, हमारी इस मानसिकता से है कि कोई और इसे बचा लेगाबहुत सार्थक लगता है। हम सबको मिलजुल कर अपने ग्रह पृथ्वी को बचाना है कोई दूसरा इसे बचाने नहीं आयेगा।
सम्पर्क-181/ lllस ला ई ट, लोंगोवाल जिला संगरूर, 148106, Email- aggarwalramnik@gmail.com

हुुनर

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        कहाँ गए माँजरी 
       और बिन्ने बुनने वाले हाथ
                        - पवन चौहान
आधुनिकजीवन शैली बहुत-सी पारंपरिक चीजों को काफी पीछे छोड़ आई है। मशीनीकरण के इस युग ने आज हर वस्तु को नए अंदाज, नए फैशन और चमक-दमक व सस्ते दाम में पेश करके हाथ से बनी वस्तुओं का जैसे वजूद ही मिटाकर रख दिया है। इसी चकाचौंध में दम तोड़ चुका है हमारे हाथों का हुनर दर्शाने वाले पारंपरिक बिन्ने’ (बैठकु) और माँजरी’ (चटाई)।
बिन्ने का प्रयोग सिर्फ एक व्यक्ति के बैठने के लिए होता है जबकि मांजरी (जिसे कई जगह पंदके नाम से भी जाना जाता है) का प्रयोग एक से अधिक लोग बैठने या फिर सोने के लिए करते है। बिन्ना बनाने के लिए मुख्यतया कोके’ (मक्की का बाहरी छिलका) का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन इसके अलावा बिन्ने को बनाने के लिए हल्दी के पत्ते या पराली का इस्तेमाल भी किया जाता है। बिन्ने को आमतौर पर गोल आकार दिया जाता है। लेकिन इसे और आकर्षक और फैशनेबल बनाने के लिए चौरस, तिकोना या अन्य आकार में भी ढाला जाता है। एक बिन्ने को बनाने में लगभग चार से पाँच घंटे तक का समय लग जाता है। बिन्ने को सुंदर व आकर्षक बनाने के लिए इसमें लगने वाली सामग्री को अलग-अलग प्रकार के रंगों में रंगकर इस्तेमाल किया जाता है। यदि कोके को रंगना न हो तो इसके बदले रंग-बिरंगे प्लास्टिक को कोके के ऊपर लपेटकर इसे तैयार किया जाता है।

माँजरी को बनाने के लिए मुख्यतया पराली, हल्दी के पत्ते तथा खजूर के पत्तों (पाठे) का इस्तेमाल किया जाता है। माँजरी के लिए कोके का प्रयोग नहीं किया जाता। माँजरी लंबी और चौरस होती है। पाठे की माँजरी में पहले पाठे के पत्तों को एक विशेष तकनीक से आपस में हाथ से बुनकर कम चौड़ी लेकिन एक माँजरी के आकार के अनुसार बराबर लम्बीपट्टी तैयार की जाती है। पराली की माँजरी को समतल जमीन पर चार खूंटियाँ गाड़ कर और उनमें सेबे या प्लास्टिक की पतली डोरियों को समान दूरी में बाँधकर फिर थोड़ी-थोड़ी पराली लेकर सेबे या प्लास्टिक की डोरी से गाँठे देकर तैयार किया जाता है। आजकल बनने वाली माँजरियों में महिलाएँ रंग-बिरंगे प्लास्टिक के रैपर लगाकर उन्हे एक नए रुप में पेश कर रही हैं। ये माँजरियाँ लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। पराली की माँजरी को बनाने में पाँच से छघंटे तक का समय लग जाता है। पाठे की माँजरी के लिए पहले पाठे की लगभग चार ईंच चौड़ी लेकिन कई मीटर लम्बी (माँजरी के साइज के अनुसार) पट्टी एक विशेष तकनीक द्वारा पाठों को आपस में बुनकर तैयार की जाती है। फि र इस पट्टी को माँजरी के आकार के अनुरूप पाठे से ही सीकर जोड़ा जाता है। पाठे की माँजरी बनाने के लिए लगभग एक सप्ताह तक का समय आराम से लग जाता है। पाठे की माँजरी पतली लेकिन पराली की माँजरी मोटी व नरम होती है। हिमाचली लोकगीतों में माँजरी का बखान बहुत ही सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। जो इस तरह से है-
आया हो नंलारिआ, जाया हो नंलारिआ
बैठणे जो देंदीओ तिजो पंद, पंद ओ नंलारिआ हो।
इस गीत के जरिए नंलारी की अमर प्रेम कहानी का बखान लोगों की जुबानी किया जाता है।
इस तरह से बने बिन्ने व माँजरी आज सिर्फ गाँव में ही देखे जा सकते हैं। लेकिन इस आधुनिक युग के आरामपरस्त माहौल के चलते इसे बनाने वाले हुनरमंद हाथ भी अब पीछे सरकने लगे हैं। वे अब इसके बजाय रेडीमेड बैठकु या कुर्सियाँ आदि खरीदना ही ज्यादा पसंद करने लगे हैं। गाँव में पहले बिन्ना व माँजरी बुनने का हुनर हर परिवार की औरतें जानती थींलेकिन अब यह हुनर कुछ एक औरतों तक ही सीमित रह गयाहै। जो इन चीजों के ज्यादा इस्तेमाल न होने के कारण जंग खाता-सा प्रतीत होता है। यह एक गंभीर चिंता का विषय है, पर बिन्ना व माँजरी बनाने में जिस मेहनत, प्यार, लगन और अपनेपन का अहसास झलकता है वह बाजार से खरीदी चीजों में कहाँ। गाँव में आज भी लड़की की शादी में घर की अन्य चीजों के साथ बिन्ने और मांजरी अवश्य ही दी जाती है।
महादेव गाँव की सौजी देवी आज भी अपने घर के लिए अपने हाथ से हर बर्ष बिन्ने व माँजरियाँ तैयार करती है। वह कहती हैं-  ‘हम चाहे मशीनों से बनी साजो-समान व आराम की कितनी भी चीजें घर में सजा लें ; लेकिन अपने हाथों से बनाई गई चीजों का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। इन चीजों को बनाने से जहाँ खाली समय आराम से कट जाता है , वहीं अपने हुनर की क्रियाशीलता भी बनी रहती है। इस तरह की चीजों से दूर होने का साफ मतलब यह है कि हम अपनेपन से दूर भाग रहे हैं।
यह बात काफी हद तक सही भी है। पहले जब भी कोई मेहमान घर आता था तो उसे बिन्ने या माँजरी पर बिठाया जाता था। लेकिन बदलते परिवेश में इन चीजों का स्थान धरती से दो फुट ऊँची कुर्सी, बैठकु या फिर अन्य चीजों ने ले लिया है। यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो बिन्ना या माँजरी में बैठकर खाने से या बैठने-उठने से शारीरिक व्यायाम हो जाता है जो स्वास्थ्य की दृश्टि से लाभदायक है। यूँ भी धरती पर भोजन करना मेज पर या खड़े होकर भोजन करने से ज्यादा बेहतर माना जाता है। तो आइए चलें, बिन्ने और माँजरी के दौर में एक बार फिर से वापिस ताकि हमारा हुनर जिंदा रह सके, स्वास्थ्य बना रहे और बची रह सकें हमारी पीढिय़ों की यादें। 
सम्पर्क:तहसील- सुन्दरनगर, जिला-मण्डीहिमाचल प्रदेश- 175018,  
मो. 098054 02242, 094185 82242, Email: chauhanpawan78@gmail.com

इमोजी

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शब्दों की जगह लेते भावचित्र 
 - संध्या राय चौधरी
 शब्दोंऔर भाषा की दुनिया में ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी को काफी मान्यता और प्रतिष्ठा हासिल है। दुनिया में सबसे ज़्यादा प्रचलित और इस्तेमाल होने वाले कुछ नए-नए शब्द इस डिक्शनरी में हर साल जोड़े जाते हैं, फिर चाहे वे विश्व की किसी भी भाषा के क्यों न हों। डिक्शनरी में जोड़े जाने वाले शब्द की चर्चा भी बहुत होती है, लेकिन वर्ष 2015 में डिक्शनरी में किसी नए शब्द को शामिल न करके जब एक इमोजी को स्थान दिया गया, तो तहलका मच गया था। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में स्थान पाने वाला यह इमोजी है 'फेस विथ टियर्स ऑफ जॉय
और अब खबर यह है कि यह प्रतिष्ठित डिक्शनरी शायद इस साल भी कोई शब्द न चुनकर किसी ग्राफिक या अन्य किसी माध्यम को चुन सकती है। वैज्ञानिकों के अध्ययन के मुताबिक लोगों को शब्द से ज़्यादा लगाव किसी संकेत, भाव या चित्र से होता है।

दरअसल, 2015 में ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने शब्द के स्थान पर एक चित्र (चित्र समूह) को जगह दी थी और उसे वर्ड ऑफ द ईयरभी घोषित किया था। यह चित्र एक इमोजी था। इमोजी वास्तव में जापान में प्रचलित हँसते हुए स्माइली में से एक है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने ऐसे इमोजी का उल्लेख किया है, जिसमें हँसते हुए स्माइली की आँखों से आँसू निकल रहे हैं। इस इमोजी को वर्ड ऑफ द ईयरघोषित करते हुए डिक्शनरी के प्रकाशकों ने कहा था कि यह इमोजी वर्ष 2015 में दुनिया के लोगों के मूड को बेहतर ढंग से व्यक्त करता है, इसीलिए इसे डिक्शनरी में शामिल किया गया है। एक इमोजी को विश्व की सबसे लोकप्रिय डिक्शनरी में शामिल करने पर लोग अचम्भित हुए थे। ऑक्सफोर्ड ने 2014 में अंग्रेजी के चार अक्षरों से बने शब्द वेप’ (VAPE) को चुना था।
शब्दचित्र की नई कड़ी
कहने को तो इमोजी एक जापानी शब्दचित्र है। यह मनुष्य की भावनाओं को व्यक्त करने वाले इमोटिकॉन्स की तरह का ही एक चित्र है। जिस तरह स्माइली का ज़्यादातर इस्तेमाल मोबाइल फोन और इंटरनेट पर किया जाता है, उसी तरह इमोजी जापानी फोन से निकल कर अब पूरी दुनिया में छा गए हैं। इमोजी का एक शाब्दिक अर्थ भी है। इस में प्रयुक्त का मतलब है इमेज यानी चित्र और मोजीका मतलब है लिपि-संकेत। इस प्रकार इमोजी वास्तव में एक चित्रलिपि है।
जिस दौर में दुनिया में स्माइली का प्रचलन शुरू हो रहा था, लगभग उसी दौर में एक जापानी इंजीनियर शिगेताका कुरीता ने कई लोगों की भावनाओं को व्यक्त करते हुए करीब 180 अलग-अलग इमोजी बनाए थे। वर्ष 1998-99 की बात है जब कुरीता और उनकी टीम ने एक दूरसंचार कंपनी एनटीटी डोकोमो की मोबाइल व इंटरनेट सेवाओं के लिए खास तरह के संकेतों के आविष्कार का काम हाथ में लिया था। इमोजी को ईजाद करते समय उनकी टीम ने मौसम की भविष्यवाणी करने वाले संकेतों और शेयर बाज़ार के भावों को प्रकट करने वाले संकेतों पर विचार किया। जैसे मौसम की भविष्यवाणी करते समय बादलों, बारिश, बर्फबारी या सूर्य का चित्र बनाया जाता है, उसी तरह उन्होंने इंसान के मूड यानी हंसी, खुशी, क्रोध आदि भावों को व्यक्त करने वाले इमोजी बनाए।
नए किस्म के इमोटिकॉन्स
जिस प्रकार इमोजी दो शब्दों और मोजीसे मिल कर बना है, उसी प्रकार इमोटिकॉन्स भी इमोशन (भावना) और आइकन (चित्र-संकेत) से मिल कर बना है। इमोटिकॉन्स की तरह इमोजी भी भाव संकेत हैं। वैसे इमोटिकॉन्स दुनिया में डेढ़ सदी से प्रयोग में आ रहे हैं। बताते हैं कि पहली बार न्यूयार्क टाइम्स ने वर्ष 1862 में अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का भाषण छापते समय स्माइली का प्रयोग किया था। इसके बाद पत्र-पत्रिकाओं में स्माइली का इस्तेमाल होने लगा। कंप्यूटर के साथ स्माइली ज़्यादा प्रचलन में आए।
कंप्यूटरों पर स्माइली लाने का श्रेय अमेरिका की कार्नेगी मिलान युनिवर्सिटी के प्रोफेसर स्कॉट फालमैन को जाता है। 1982 में उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक संकेतों के रूप में कुछ स्माइली बनाए थे। इसके बाद सैकड़ों स्माइली बनाए गए - चिढ़ाते, मुस्कराते, गुदगुदाते, रोते चेहरों वाले स्माइली का आज पूरी दुनिया में स्मार्टफोन्स और कंप्यूटर पर इंटरनेट के ज़रिए इस्तेमाल हो रहा है।
फैलता जापानी इमोजी
इमोजी को 1997 में जापानी शब्दकोशों में पहली बार जगह दी गई थी। पर ये तब ज़्यादा मशहूर हुए ,जब जापान की डोकोमो कंपनी ने इमोजी को टेक्स्ट मेसेज में इस्तेमाल करने की सहूलियत दी थी।
हाल ही में एपल द्वारा किए गए एक सर्वे के मुताबिक एपल के आईफोन में ही दो करोड़ बार ये इमोजीस डाउनलोड किए गए। अन्य कई स्मार्टफोन्स में तकरीबन 720 स्माइली आईकॉन उपलब्ध हैं। इनमें स्वीट स्माइली फेस वाले सिंबल से लेकर डरावने और चुलबुले फेस सिंबल तक मौजूद हैं। ऐसे ही इमोजी को स्कैन करने वाली साइट emoji-scanner-wirdहर ट्वीट का इमोजी स्कैन करती है। इसके मुताबिक रेड हार्ट यानी लाल दिल वाला सिंबल पहले पायदान पर है जिसका इस्तेमाल ट्वीट्स के दौरान 24 करोड़ 20 लाख बार हुआ है। दूसरे स्थान पर हैप्पी क्राइंग सिंबल यानी खुशी के आँसुओं वाला सिंबल (15 करोड़ 30 लाख बार) और तीसरे स्थान पर माईलिंगस सिंबल है (8 करोड़ 60 लाख बार)।
1998 तक स्माइली वेब जगत में शामिल हो चुके थे। फिर इन्हें फ्री में डाउनलोड करने की सुविधा भी वर्ष 2000 में शुरू कर दी गई और इन पर एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई। लगभग 1000 इमोजी ऐसे हैं;जिन्हें लगभग सभी डिजिटल माध्यमों में इस्तेमाल किया जा सकता है। वैसे यह पता नहीं है कि कुल कितने इमोजीस हैं; क्योंकि हर दिन नए-नए इमोजीस जुड़ते रहते हैं। पहले इमोजी किसी वाक्य में 1-2 जगह पर इस्तेमाल होता था पर धीरे-धीरे अलग-अलग इमोजी जोड़ कर पूरे-पूरे वाक्य बनाए जाने लगे। जापान में तो इमोजी का प्रयोग कई रूपों में हो रहा है। जापानी नूडल्स, डैंगो, ओनिगिरि, जापानी करी या खुशी को व्यक्त करने वाले इमोजी भी वहाँ प्रचलित हैं।
इमोजी उपन्यास और फिल्में

इमोजी कितनी तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं, इसकी एक मिसाल यह है कि एक उपन्यास मोबी डिक का तो इमोजी में ही अनुवाद किया गया है। असल में एक-एक इमोजी को जोड़कर पूरा वाक्य बनाया जाता है और जो लोग इमोजी में अपनी बात कहने-सुनने के आदी हैं, वे बड़ी आसानी से इमोजी जोड़ कर बनाए गए वाक्य का अर्थ समझ जाते हैं। सिर्फ उपन्यास ही नहीं, अब तो इस पर पूरी फिल्म बनाने की बात भी हो रही है। हॉलीवुड की कंपनी सोनी पिक्चर्स एनिमेशन ने यह घोषणा की है कि वह इमोजी पर आधारित एक एनिमेशन फिल्म बनाने की योजना पर काम कर रही है।
नया ज़माना, नई भाषा
वैसे तो शब्दों के समर्थक कह रहे हैं कि चित्रों को भाषा का माध्यम बनाना गलत है, पर यह एक सच्चाई है कि जिस तरह से स्मार्टफोन पर शब्दों की बजाय कोई बात चित्रों के ज़रिए कह दी जाती है, उसमें भाषा का खो जाना स्वाभाविक है। कोई बात कहने के लिए अब यह ज़रूरी नहीं रह गया है कि एक लंबा वाक्य ही कहा जाए। जैसे धन्यवाद कहने या आभार प्रकट करने के लिए उठा हुआ अँगूठा बना दिया जाता है या शाबाशी देने के लिए ताली बजाते हाथों का संकेत बना दिया जाता है। अन्य भाव भी चित्रों से आसानी से व्यक्त हो जाते हैं। इसलिए पूरी संभावना है कि निकट भविष्य में स्माइली की तरह इमोजी भी पूरी दुनिया पर छा जाएँगे। जैसे ऑक्सफोर्ड और एक अन्य कंपनी स्विफ्टकी ने अपने सर्वेक्षणों के आधार पर आकलन किया है कि इमोजी का ब्रिटेन में 20 फीसदी और अमेरिका में 17 फीसदी मेसेजिंग में इस्तेमाल हो रहा है। यही नहीं, 2014 के मुकाबले 2015 में इमोजी का तीन गुना ज़्यादा इस्तेमाल हुआ और अनुमान है कि 2016-17 में पूरे विश्व में

लगभग 42 फीसदी मेसेजों में इनका इस्तेमाल होगा। हो सकता है कि जल्द ही इमोजी मनोरंजन की भाषा न रह कर कामकाज की भाषा भी बन जाए। वॉट्सएप, स्नैपचैट, फेसबुक ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर सैकड़ों इमोजीस हर जगह मौजूद हैं। इंटरनेट, नॉर्मल टेक्स्ट मेसेजिंग अथवा चैटएप्स पर चैटिंग के दौरान इन इमोजीस का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया जाता है। यहाँ तक कि फेसबुक, ट्विटर पर कमेंट के रूप में भी इनका इस्तेमाल किया जाता है। यानी औपचारिक भाषा के शब्दों के बगैर लोग केवल एक इमोजी पर ही पूरा संदेश लिखने लगे हैं।
टीयर्स ऑफ जॉय का चयन
सैकड़ों इमोजीस में सिर्फ टीयर्स ऑफ जॉय चुनने की वजह बताई गई थी इसका ज़्यादा लोकप्रिय होना। एक रिसर्च के मुताबिक अमेरिका में इस्तेमाल होने वाले सारे इमोजीस में से 20 फीसदी इस इमोजी का प्रयोग किया जाता है। यूके में 17 फीसदी लोग इसका प्रयोग करते हैं। इसी आधार पर इसे वर्ड ऑफ द ईयर का खिताब दिया गया है।
अन्य लोकप्रिय इमोजीस में हैप्पी क्राइंग फेस, बीटिंग हार्ट, किसिंग फेस, झूमता और बंद आंखों वाला चेहरा, स्लीपी फेस, स्माइलिंग फेस विथ ओपन माउथ, परियां, चाँ, हैमबर्गर, केक, कैंडल, और नमस्कार की मुद्रा वाले इमोजीस का भी भरपूर इस्तेमाल किया जा रहा है।
बनाएँ अपना इमोजी
अब आप चाहें, तो अपनी शक्ल को भी इमोजी में चेंज कर सकते हैं। इसके लिए ऑनलाइन सॉफ्टवेयर मौजूद हैं। ऐसी कुछ वेबसाइट्स भी हैं जो आपकी शक्ल को इमोजी में बदल देंगी और आप इन्हें ट्विटर या फेसबुक जैसी सोशल साइट्स पर शेयर भी कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

समाज

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वे, जो आदि संस्कृति को बचाए हुए हैं...
- डॉ. आरती स्मित
भारतीयप्रायद्वीप के मूलनिवासी, जिन्हें आदिवासी/जनजाति के रूप में समाज रेखांकित करता है और संविधान अनुसूचित जनजाति/आदिम जनजाति के रूप में।  इनके प्रकृति-प्रेम, प्रकृति- साहचर्य और प्रकृति को जीवन मानने की बात जितनी प्राचीनकाल में सच थी, उतनी ही आज भी सच है। आज भी जो जनजातियाँ जल,जंगल और ज़मीन को अपना संबंधी मानती हैं और अपनी आदि संस्कृति को बचाए हुए हैं, सभ्य समाज उन्हें असभ्य, आदि मानव, जंगली, बर्बर आदि विशेषणों से अलंकृत करता है। गोंड जाति का इतिहास यह सिद्ध करता है कि वे अविभाजित धरा के मूलनिवासियों की संतति हैं।
   वैदिक व महाकाव्य साहित्य के साथ ही प्राचीन व मध्यकालीन साहित्य में भील, किरात, किन्नर, मत्स्य, निषाद, वानर आदि जनजातियों का वर्णन मिलता है। जनजाति एक सजातीय स्वावलंबी इकाई थी। सुरक्षा की दृष्टि से सबल और युद्ध - निपुण व्यक्ति मुखिया बनता था। इसी प्रक्रिया ने गणराज्यों एवं राज्यों की व्यवस्था को जन्म दिया।
   वर्ष 2011 की रिपोर्ट के अनुसार, अनुसूचित आदिवासी जनजातियों की संख्या 583, अपरिगणित आदिवासी जनजातियों की संख्या 254, घुमंतू आदिवासी जनजातियों की संख्या 198 तथा अर्ध घुमंतू जनजातियों की संख्या 13 है। अर्ध घुमंतू जनजातियाँ केवल राजस्थान में पाई गईं। देश के आठ राज्यों के कुछ प्रमुख जिलों के अंतर्गत अनुसूचित क्षेत्र रेखांकित किए गए हैं। राज्यों व जिलों के नाम निम्नोल्लिखित हैं -
 राज्य                      जिला        
आंध्र प्रदेश- महबूबनगर, आदिलाबाद, वारंगलविशाखापटनम,  पूर्वी गोदावरीपश्चिमी गोदावरी
बिहार- सिंहभूम, पलामू
झारखंड-राँची, संथाल परगना
गुजरात- सूरत, भड़ोच, डांग, वलसाड, पंचमहल, वडोदरा,  साबरकाँठा
हिमाचल प्रदेश-किन्नौर, लाहौल और स्पीति, चंबा
मध्य प्रदेश- झाबुआ, मंडला, सरगुजा, बस्तर, धार, खरगौन (पश्चिमी निमाड़),  खंडवा (पूर्वी निमाड़), रतलामबैतूल, सिवनी, बालाघाट, होशंगाबाद,   शहडोल, सीधी, मुरैनाछिंदवाड़ा
छत्तीसगढ़- रायगढ़, बिलासपुर, दुर्ग, राजनांदगाँव, रायपुर,
महाराष्ट्र- ठाणे, नासिक, धुलिया, अमरावती, चंद्रपुरजलगाँव  नांदेड़
उड़ीसा- मयूरभंज, सुंदरगढ़, कोरापुत, संबलपुर, केऊंझर, बौध-माल,  गंजामजिला, कालाहांडी, बालासोर
राजस्थान-बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर
छठे अनुच्छेद में जिन राज्यों के जिन जि़लों को जनजातीय अनुसूचित क्षेत्रों के रूप में घोषित किया गया है, वे हैं -
असम- उत्तरी कछार पहाड़ी जिला, कर्वी आंगलोंग जिला
मेघालय- खासी, जयंतिया, गारो पहाड़ी जिला
मिजोरम- चकमा, लाई, मारा जिला
त्रिपुरा- त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र (उत्तरी, दक्षिणी, पश्चिमी त्रिपुरा जिला) स्वायत्त जिला

 भारत में ये आदिवासी जनजातियाँ तमाम कठिनाइयों के बावज़ूद जीवित हैं। इनमें से सात प्रमुख जनजातियाँ हैं जिनकी आबादी दस लाख या उससे अधिक है। ये हैं- भील, गोंड, संथाल, उरांव , मीणा, मुंडा और खोंड। 45 अन्य ऐसी जनजातियाँ हैं जिनकी आबादी एक से पाँच लाख के बीच है तथा 1991 की जनगणना के अनुसार 47 ऐसे आदिम जनजातीय समूह हैं, जिनकी आबादी लगभग तेईस लाख है। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि वन और प्रकृति को जीवन-सहचर मानने वाली ये जनजातियाँ अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा के लिए निरंतर संघर्षरत हैं। कई जनजातियाँ विलुप्तप्राय हैं। कारण, कृषि- कार्य की पुरानी तकनीक और अशिक्षा।
   इतिहास कई स्थलों पर जनजातियों के प्रति चुप्पी साधे है। इतना स्पष्ट है कि आदिवासी सीधे- सादे, ईमानदार, कर्मठ और प्रकृति- प्रेमी रहे हैं। आक्रमणकारियों, आततायी शासकों, समाज के शोषक वर्गों  द्वारा निरंतर शोषित होने के बावज़ूद इन्होंने राष्ट्र का विखंडन कभी नहीं चाहा। आज भी इनकी अर्थव्यवस्था कृषि (झूम खेती/ परिवर्तनीय खेती व साधारण खेती), पशुपालन, लघु वनोपज, मछली पकडऩे एवं हथकरघा उद्योग पर आधारित है। 1981 के बाद आदिवासी कृषकों के प्रतिशत में तेजी से ह्रास हुआ है। उन्हें खेतिहर से मजदूर बनना पड़ा। महिलाएँ लघु वनोपज चुनने, कपड़े बुनने और मज़दूरी का कार्य करती हैं। वर्तमान में आबादी विस्फोट और पूँजीवादी नीतियों के कारण झूम खेती की पद्धति का लोप हो रहा है। बहु फसली प्रथा भी लोप पर है। नकदी फसल और बागवानी को प्राथमिकता दी जा रही है।
महिलाओं का हथकरघा कौशल अब बाजार के दबाव में दम तोडऩे लगा है। पूँजीपति व्यापारी प्रवासी स्त्रियों से कपड़ा बुनवा रहे हैं। कर्नाटक के राजगोंड आर्थिक रूप से विपन्न हैं, औषधीय पौधे उनके जीवनाधार हैं। वे विंध्य, सतपुड़ा आदि क्षेत्रों से अब जड़ी- बूटी / पौधे खरीदने को विवश हैं ,जिनकी दवाएँ बनाकर वे सड़क किनारे बेचते हैं, यही कारण है कि उनकी दवाओं का न तो सही मूल्य मिलता है,न उनके ज्ञान को महत्ता। इनके ज्ञान का लाभ उठाकर वन विभाग से मिले ठेकेदार इनसे संग्रह का काम करवाते हैं और आर्थिक लाभ उठाते है। इसी प्रकार, हैदराबाद, कर्नाटक के आदिवासी आज भी विभिन्न टुकड़ों में बँटे होने के कारण सरकारी सहायता और सुविधाओं से वंचित और उपेक्षित हैं। मुंडाओं में साक्षरता की प्रतिशतता अधिक है और उराँवों में इसका विकास हो रहा है। मीणा व पहाडिय़ा जनजाति का  शौर्यपूर्ण इतिहास आज धूल-धूसरित है। संथालों में साक्षरता की कमी रही, किन्तुअब उनमें जागरूकता बढ़ी है फिर भी स्थितियाँ संतोषजनक नहीं कही जा सकतीं। इन जनजातियों के पिछड़ेपन का मूल कारण इनकी सहजता और अशिक्षा है। बाहरी लोगों  द्वारा इनकी उपजाऊ जमीनों को धीरे -धीरे हड़पने की नीति, राज्य- सम्पदा के नाम पर वन विभाग एवं ठेकेदारों की मिलीभगत से लघु वनोपज को इनके अधिकारों से छीनना और इन्हें इनकी ही सम्पदा के भोग से वंचित रखना, औद्योगिक, बाँध, बिजली एवं अन्यान्य परियोजनाओं को लागू करने के नाम पर हजारों को विस्थापन का दंश देना, पुनर्वास में अनियमितता, अव्यवस्था, साहूकारों का शोषण, खनिज तत्वों का व्यापारिक लाभ पाने हेतु स्वार्थी तत्त्वोंकी घुसपैठ नीति आदि कई कारक तत्त्वोंने इनके जीवन में अँधेरा भरने का काम किया। भू-हस्तांतरण की प्रक्रिया से प्रभावित आदिवासियों की संख्या बड़ी है। भू- हस्तांतरण कानून होने के बावज़ूद आदिवासी भूमि का गैर- आदिवासियों को हस्तांतरण जारी है। ठेकेदारों द्वारा महिलाओं का यौन-शोषण आम बात है। देश- विकास के नाम पर आदिवासी समाज ने अपनी सामूहिक पहचान और ऐतिहासिक- सांस्कृतिक विरासत ही खोई है। गरीबी, कुपोषण, मृत्यु-दर में वृद्धि, अशिक्षा, बेरोजग़ारी ही उनके हिस्से में आई। वैश्वीकरण एवं निजीकरण ने उन्हें उनकी ज़मीनों से बेदखल किया। आदिवासी कल्याण एवं विकास हेतु निर्मित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य डॉ.डी.स्वामीनाथन द्वारा तैयार प्रारूप पत्र के आरम्भमें यह स्वीकारोक्ति है-  निश्चित रूप से विगत अर्से में आदिवासियों की स्थिति में सुधार हुआ है लेकिन गैर आदिवासियों की तुलना में इनकी हालत हर क्षेत्र में खराब ही हुई है। प्रख्यात विद्वान एवं चिन्तक लेवी अपने जीवन के अन्तिम दिनों में इस संभावना से आशंकित और दु:खी थे कि - भूमंडलीकरण और सांस्कृतिक एकरूपीकरण का अजगर जल्द ही जनजातियों के छोटे- छोटे समुदायों को निगल जाएगा (ईश्वर दोस्त; जनसत्ता 2009)।
   
आदिवासी समाज देश के तथाकथित रक्षक खाकी वर्दीधारी से अधिक त्रस्त है, चाहे वह झारखंड, बुंदेलखंड, मणिपुर का जनजातीय समाज हो या किसी अन्य राज्य का। इनके लिए खाकी वर्दीधारी का अर्थ है - अराजक और शोषक तत्त्व। जिन्होंने आवाज बुलंद की वह सरकारी हथकंडे में उलझकर तबाह हो गया। कई बार तो निरीह ग्रामीण इन सुरक्षाकर्मियों की नृशंस क्रूरता के शिकार होते हैं। कोई सुनवाई नहीं होती, झारखंड की सोनी सूरी पर हुए खाकी वर्दीधारियों के ज़ुल्म और मणिपुर की 15 वर्ष पहले हुए  अत्याचार के विरुद्ध आज तक न्याय माँगती इरोम चानु शर्मिला के संघर्ष को हमारा देश अभी भूला तो न होगा। राम दयाल मुंडा लिखते हैं - अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए जब भी आदिवासी खड़ा हुआ तो देश ने उसे विकास विरोधी करार दिया। किसी देश के उस समुदाय को, जो अपने को देश का प्रथम नागरिक और देश-रक्षा में खड़ा होनेवाला प्रथम सैनिक मानता है, जब देश- विरोधी करार दिया जाता है तो उस समुदाय के लिए इससे बड़ी अपमानजनक और कष्टदायक बात क्या हो सकती है!  डॉ. केदार प्रसाद मीणा मानते हैं, - आज़ादी के बाद सरकारों ने आदिवासियों को ख़ास सहूलियतें नहीं दी हैं- सिवाय आरक्षण की संवैधानिक सुविधा के, और इस सुविधा का लाभ भी कितने आदिवासी समुदायों को मिला है, यह भी सोचे जाने वाली बात है। अधिकांश आदिवासी समुदाय अपनी मेहनत से ही अबतक अपना अस्तित्व बचाए रख सका है। भारत के ताकतवर समुदायों ने, जिनमें कुछ आदिवासी समुदाय भी कुछ हद तक शामिल हुए हैं, ने आदिवासी संसाधनों को हमेशा लूटा और इनके समर्थन से बनी सरकारों ने ऐसे लुटेरे समुदायों का ही हमेशा साथ दिया है।
   आए दिन की खबरों से उजागर है कि किस तरह कुछ आदिवासी नेताओं ने कॉर्पोरेट के साथ मिलकर अपनी ही जनजाति को बदहाली में धकेला। झारखंडप्राकृतिक संपदा और उद्योगों से समृद्ध होते हुए भी, वहाँ के मूलनिवासियों की स्थिति नारकीय बनी हुई है। लड़कियाँ दलाल के हाथ पड़कर बेची जा रही हैं; भाषाएँ, कलाएँ, प्रकृति से सम्बद्ध ज्ञान लोप की कगार पर है और ये दुर्दशा महज झारखंड ही नहीं अन्य कई राज्यों की भी हैअनुसूचित जनजाति के आम लोग आज भी पीड़ा के दलदल में धँसे हैं। आदिवासी कवि जवाहर लाल बाकरा की पंक्तियाँ क्या कुछ नहीं कहतीं -
   हालात ने किया है कितना क्रूर मजाक
   अपनी ही जमीन पर तू रह गया कितना अकेला,
   कहाँ गए बंदोबस्ती के कानून
   और वो धाराएँ संविधान की!
   आज समय आ गया है उन कानून को लागू कराने की एक सार्थक मुहिम शुरू होनी चाहिए।    
कविता की ये पंक्तियाँ इस ओर भी इंगित करती है कि सोई चेतना अब जगने लगी है, मुट्ठी भर ही सही, लोग अब अपनी पीड़ा को शब्द देने लगे हैं। जहाँ जागरण हो ,वहाँ विकास सुनिश्चित है। पहले से जल, जंगल और जमीन के लिए संघर्षरत ये जनजातियाँ अब संविधान में वर्णित, सरकार द्वारा प्रदत्त सुविधाओं के कार्यान्वयन की माँग को लेकर उठ खड़ी होती दिख रही हैं - यह अलख वहीं जगा, जहाँ शिक्षा की ज्योत जली। शिक्षित आदिवासियों ने अपने आसपास की बदहाली देखी, महसूसा, उसे अभिव्यंजित कर दिया- कभी साहित्य को माध्यम बनाकर तो कभी जन आन्दोलन छेड़कर। वर्तमान आदिवासी साहित्य में, युगों से आजीवन झेली गई उपेक्षाओं के दंश की मार्मिक व्यंजना हुई है, वह चाहे निर्मला पुतुल की रचना हो या ग्रेस कुजूर की। सभ्य समाज के बर्ताव के प्रति आक्रोश और तथाकथित विकास के प्रति असहमति के स्वर ही फूटे हैं।
विकास की अनिवार्य सीढ़ी है - विविध विषयों का शैक्षिक व व्यावहारिक ज्ञान। और आरम्भिक शिक्षा के लिए यह आवश्यक है कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में दी जाए, फिर क्षेत्रीय या प्रान्तीय भाषा में। विद्यालय आदिवासी क्षेत्रों में हो, शिक्षक उनके बीच का शिक्षित व्यक्ति या उनकी भाषा- संस्कृति को अच्छी तरह जानने वाला हो। बच्चों के लिए पौष्टिक आहार की यथासंभव व्यवस्था हो; इन क्षेत्रों में शिशु-सदन, शिशु केंद्र, बालवाड़ी की उत्तम व्यवस्था जरूरी है ताकि गरीब मजदूर माँ- बाप के बच्चे अपने छोटे भाई- बहनों की देखरेख के लिए घर पर रुके रहने को विवश न हों। कई भाषाओं की अपनी लिपि नहीं, ऐसे में मौखिक एवं लिखित- भाषा के दोनों रूपों की सुरक्षा पर ध्यान देना अनिवार्य है। भाषा उनकी परंपरा, उनकी लोक- संस्कृति की वाहक है। भाषा नष्ट होती गई तो धीरे- धीरे वे अपनी पहचान खो देंगे, जैसा कि चाय बागानों में काम करने वाली उरांव जनजाति के साथ हो रहा है। यों भी विस्थापन की प्रक्रिया ने उन्हें अपनी परंपरा और संस्कृति से भी विस्थापित करने का कार्य किया है।
  यह बेहतर संकेत है कि अब सैंकड़ों आदिवासी लेखक/कवि अपनी मातृभाषा में साहित्य सृजन कर रहे हैं और अपनी पीड़ा -अपने आक्रोश को वाणी दे रहे हैं। खासी जनजाति की भाषा के पास अपनी लिपि हाल के वर्षों में ही आई; मलतो, असुर, बिरहोर आदि की मातृभाषाएँ विलुप्ति की कगार पर है। स्थानीय भाषा में शिक्षा के प्रचार- प्रसार से ही उन भाषाओं की रक्षा संभव है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 350 पर तब प्रश्नचिह्नलगता है जब उसके लागू होने के इतने वर्षों बाद भी स्थितियाँ मुँह चिढ़ा रही होती हैं, यदि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने की सुव्यवस्था होती ; तो उनका लोप क्योंकर होता? शहरीकरण और औद्योगीकरण की आँधी में उखड़ी जनजातियाँ अपनी संस्कृति से कटती जा रही हैं, लड़कियाँ अधिक संख्या में अशिक्षित हैं। आर्थिक,पारिवारिक और सामाजिक दबाव में इनका सर्वांगीण विकास नहीं हो पा रहा। विगत कई वर्षों से आदिवासी भाषा और उनकी लोक कला, पुरातन संस्कृति, व कला- कौशल को बचाने हेतु राज्य एवं केंद्र सरकार के अतिरिक्त प्रथम बुक्स, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, साहित्य अकादेमी, रमणिका फाउंडेशन आदि कई संस्थाएँ इस दिशा में बेहतर कार्य कर रही हैं।
भारत के संविधान में अनुसूचित जनजातियों के शैक्षणिक एवं आर्थिक हित तथा सामाजिक अन्याय एवं सभी प्रकार के शोषणों से उसकी रक्षा के लिए विशेष प्रावधान है। इनमें भू-हस्तांतरण कानून, लघु वनोपज पर अधिकार एवं साहूकारी/ ऋण माफी पर कानून/ विनियमन पारित किए गए, जिनसे आदिवासी जनजातियों/ घोषित अनुसूचित जनजातियों को आम नागरिक की अपेक्षा विशेषाधिकार दिए गए। किन्तुवस्तुस्थिति कुछ और है। जमीनें परियोजनाओं के नाम पर तो कभी अस्थायी रिहायशी मकान के नाम पर आज भी छीनी जा रही हैं। आज भी कम मजदूरी पर ये महिलाएँ काम कर रही हैं और शोषण की शिकार हो रही हैं, कहाँ जाएँ, किनसे फरियाद करे! कथाकार मैत्रेयी पुष्पा ने अपने उपन्यास अल्मा कबूतरीमें कबूतरा समाज की जीवन-व्यथा को उजागर किया है।
    कुछ क्षेत्रों में आदिवासी स्त्रियाँ सशक्त रूप में नजर आने लगी हैं, जैसे नोंगपोह, मिजोरम में स्त्रियाँ बड़ी दुकानें और कारोबार संभालती दिख सकती हैं। कुछ स्थलों पर पंचायतों में भी उन्हें स्थान दिया जाने लगा किंतु आमतौर पर ये स्त्रियाँ अपने पति या रिश्तेदार के निर्णय पर ही मुहर लगाती हैं, अपवाद में केवल एक नाम उभरता है - समाज कल्याण मंत्री अगाथा संगमा का। एक उम्मीद जगी है लेकिन अब भी उनमें जागरूकता लाना शेष है। पारंपरिक ज्ञान- कौशल एवं आधुनिक समाज से सामंजस्य की स्थिति ही जनजातीय सशक्तीकरण को सही रूप में परिभाषित करेगी।
    आवश्यकता भाषण या आश्वासन का नहीं, नींव से सुधार का है और इसके लिए जनजातियों को उनके मूल से जोडऩा, अर्थव्यवस्था सुदृढ़ करना, शिक्षा का प्रचार - प्रसार और उनके जीवन को प्रकृति के साथ जुड़ा रखते हुए आधुनिक विज्ञान एवं तकनीक से जोडऩा है; भाषा, परंपरा और लोक -संस्कृति की रक्षा करती है - उनकी कार्यकुशलता को महत्त्व देते हुए उन्हें देश के विकास से जोडऩा है, तभी देश वास्तव में धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राष्ट्र कहलाने का हकदार होगा।
संदर्भ -       
1 भारतीय जनजातियाँ -रूपचंद्र वर्मा, प्रकाशन विभाग
2 भारतीय आदिवासी जीवन- निर्मल कुमार बोस, अनुवादक- श्याम परमार; राष्ट्रीय पुस्तक न्यास 
3 आदिवासी लोक -संपा. रमणिका गुप्ता
4 भारतीय दलित आंदोलन का इतिहास - मोहनदास नैमिशराय
5 दलित अल्पसंख्यक सशक्तिकरण- संपा. संतोष भारतीय
6 कृति कल्प - आदिवासी विशेषांक, वॉल्यूम 3, जनवरी- जून 2015
सम्पर्क:डी -136, तीसरा तल, गली न. 5, गणेशनगर पांडवनगर कॉम्प्लेक्स, दिल्ली - 110092, email- dr.artismit@gmail.com

अनकही

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            नोटबंदी और आम आदमी...
                                  - डॉ. रत्ना वर्मा
देशइस समय बेहद उतार- चढ़ाव के दौर से गुजर रहा है। नोटबंदी ने जैसे सबको हिला कर रख दिया है।  काला धन कमाने वाले तो अपना काला सफेद करने की जुगत में दिन रात एक किए हुए हैंपर जिनके पास न काला है, न सफेद। वे भौचक हो इस परिवर्तन के दौर को देख रहे हैं। बैंक के आगे लाइन में खड़े होकर वे सोच रहे हैं कि मेरे पास तो ये हजार पाँच सौ के कुछ नोट हैं, उन्हें बदल कर अपनी रोजी रोटी का इंतजाम तो कर लूँ। नगद बेचने और नगद खरीदने वालों की मुसीबत बढ़ गई है। बाजार में सन्नाटा-सा पसर गया है। लोग खर्च के मामले में किफ़ायत बरत रहे हैं। वहीं चीज़ेंखरीद रहे हैंजो जीने के लिए ज़रूरी हैं। व्यापारियों के लिए बेहद मुश्किल का समय है।
कुल मिलाकर पिछले कुछ दिन से जैसे लोगों की दुनिया ही सिमटकर नोट तक आकर रुक गई है। पर जिंदगी फिर भी नहीं रुकी है। पैसा नहीं है,पर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ तो किसी तरह हो ही जाता है। जिन्हें करोड़ों अरबों की शादी करनी है ; वे शादी भी कर रहे हैं। लेकिन मेहनत कर कमाने वाला आम आदमी, जिन्हें बेटी की शादी के लिए जेवर कपड़े लेने हैं, शादी की रस्में निभानी हैं ;वे चिंतित हैं कि जो पुराने नोट निकाल लिए हैं;उन्हें कैसे खर्च करें, जमा करने के लिए भी बैंक में लाइन लगाने का समय नहीं है और एक बार में दो- चार हजार निकालने से कैसे काम चलेगा, वह यह सोच- सोचकर वह कुढ़ रहा है कि फिर भी कुछ लोग कैसे अरबों -खरबों वाली शादी कर गए !!!
एक तरफ विपक्ष हल्ला मचा रहाहै ;तो दूसरी तरफ काला धन छुपाकर रखने वाले बेचैन हैं कि कैसे सालों की इस मेहनत को पानी में बह जाने दें!!! चारो तरफ अफरा- तफरी मची है। काले को सफेद करने वाले, ऐसे लोगों को तलाश रहे हैं;जो उनका काला धन अपने अकाउण्टमें रख कर सफेद कर दें। खबर तो यह भी है कि इसके लिए वे तीस- पैतीस प्रतिशत तक कमीशन देने को तैयार हैं। नोटों से भरे ट्रक इधर से उधर दौड़ रहे हैं। ऐसे में कुछ ऐसे भी निकले ;जिन्होंने अपना काला धन चुपचाप सामने रख दिया कि टैक्स देने के बाद कम से कम आधा तो बचेगा। काश ऐसा सब कर पाते। 
आर्थिक विषयों के कुछ विशेषज्ञ ,जहाँ सरकार के इस कदम को शुभ संकेत मान रहे हैं;तो कुछ का मानना है कि फैसला सही है ;पर जल्दबाजी में बगैर तैयारी के ले लिया गया है, पहले जनता की परेशानियों से निपटने का इंतजाम कर लेना था, उसके बाद नोटबंदी जैसा कदम उठाना था। इसके साथ ही यह भी सवाल उठ रहा है कि हमारे देश में कैशलेस पेपेंट कितना सार्थक हो पागा। कितने लोग नेट बैंकिंग, वालेट मनी या ऑनलाइन पेमेंट कर पाएँगे। हिन्दुस्तान की सवा करोड़ जनता इसे कितनी जल्दी अपना पागी। तो एक जवाब इसका यह भी हो सकता है कि जब मोबाइल जैसा संचार साधन देखते- देखते देश के हर कोने में पहुँच गया है और क्या पढ़ा-लिखा आदमी ,क्या अनपढ़ सबको इसका इस्तेमाल करना आसानी से आ गया है, तो फिर कैशलेस पेमेंट तो पैसे का मामला है,इसे तो वह और भी जल्दी सीखेगा। भई मानव स्वभाव का विज्ञान तो यही कहता है!
तो सवाल तो कई उठ रहे हैं बावजूद इसके आम आदमी बैंकों में सुबह से शाम तक लाइन में खड़े होकर आपस में अपने आप को समझाने की कोशिश भी कर रहा है। सरकार ने यह बड़ा निर्णय लिया हैतो कुछ तो अच्छा ही होगा। कमा- कमाकर, गरीबों का खून चूसकर, जो धन्नासेठ बने बैठे हैं वे हमारी खून-पसीने की कमाई से ऐश कर रहे हैं। जरूर उनपर लगाम कसने की जुगत होगी यह सब कसरत। जाहिर है काले धन के कारण उनकी जिंदगी में जो कमियाँउत्पन्न हो गईं हैं ,उनकेसब दूर होने की एक उम्मीद बन गई है.... काला धन बाहर आगा ,तो जनता के हित में काम होंगे ,आम जनता की अर्थव्यवस्था में सुधार होगा, उसके स्वास्थ्य में, उसके जीवन स्तर में, उसके बच्चों की शिक्षा में, उसके गाँव की गली- मोहल्लों में, सड़क में, पानी में, खेती में, रोजगार में, खान- पान की वस्तुओं में, क्या इन सबमें कुछ सुधार होगा? और सबसे बड़ी बात यह कि बात-बात में हर विभाग में चपरासी से लेकर बाबू तक और उससे भी ऊपर बैठे आकाओं तक घूस लेने की अघोषित परम्परा का अंत होगा? इसमें कोई दो मत नहीं कि देश की अर्थव्यवस्था में सुधार की दिशा में नोटबंदी एक सार्थक कदम हो सकता है यदि साथ- साथ कैंसर की तरह जड़ जमा चुके भष्टाचार को भी समाप्त किया जाए।
कुल मिलाकर हमें तो यही लगता है कि आम आदमी की यह सोच और सरकार की सोच यदि मिल जाए तो बदलाव आने में देर नहीं लगेगी। संभवत: इसी दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर मोदी सरकार ने इतना बड़ा निर्णय लिया है।  यदि उसकी नियत में सच्चाई है, दम है तो जनता को थोड़ा सब्र से काम लेना होगा। इतिहास गवाह है कि जब भी कोई बड़ी उपलब्धि हासिल करनी होती है तो इम्तिहान तो देना ही पड़ता है। यह हमसब के लिए इम्तिहान की घड़ी है। एक सर्वेक्षण के अनुसार तो 80प्रतिशत जनता नोटबंदी के पक्ष में बताई गई है।
फिर भी सवाल अभी भी वहीं का वहीं है  कि जोजनता हर प्रकार का कष्ट झेलती हुई उम्मीद की आस लगाए सरकार की ओर देख रही है, क्या उसके सपने साकार होंगे? क्या काला धन बाहर आएगा? क्या आम आदमी के शोषण से निचोड़ा गया धन जन-कल्याण कार्यों में लगेगा या फिर घूम-फिरकर कुबेरों के तहख़ाने में दफ़्न हो जाएगा !जवाब तो एक ही होना चाहिए कि सरकार की भी मंशा अंतत: भ्रष्टाचार को नकेल डालने की ही होनी चाहिएउसे जनता के सपनों को साकार करना होगा, अन्यथा जनता को अपनी ताकत दिखाना आता है। 

इस अंक में

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उदंती.com   नवम्बर 2016
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जीवन में किसी की निंदा मत कीजिए। अगर आप किसी की मदद कर सकते हैं, तो उसकी तरफ मदद का हाथ बढ़ाइ। अगर आप किसी की मदद नहीं कर सकते तो अपने हाथ जोड़िए, शुभकामनाएँ दीजिए और उन्हेंअपने लक्ष्य पर जाने दीजिए।                        - स्वामी विवेकानंद

श्रद्धांजलि

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अनुपम सचमुच
अनुपम हैं
- राकेश दीवान
अनुपममिश्र की किताब आज भी खरे हैं तालाबशायद दुनिया की सबसे ज़्यादा पढ़ी जाने वाली किताबों में से एक है। इसमें सिर्फ पानी की बातें नहीं हैं बल्कि जगह-जगह के स्थानीय समाज और उनकी ज्ञान पद्धतियों का पक्ष भी है। अनुपम जी जहाँ भी तालाब की बात करने के इरादे से जाते तो बातें वहाँ से निकलकर कृषि, उद्योग, भाषा और समाज तक चली जातीं। वे कहते हैं कि हमने कभी भी अपने स्थानीय ज्ञान और पुराने अनुभवों का सम्मान नहीं किया और उन्हें सिरे से नकारा। एक ओर राजस्थान के वे इलाके जिन्हें पिछड़ा माना जाता है उन्होंने अपने स्थानीय पूर्व ज्ञान और उपलब्ध संसाधनों का उपयोग कर अपनी पानी की समस्या को दूर किया है। वहीं दूसरी ओर, ज़्यादातर शहरों ने अपने पुराने संसाधनों को बर्बाद कर पानी की समस्या खुद खड़ी की है।
भोपाल में हज़ारों की संख्या में तालाब मौजूद थे लेकिन अब ज़्यादातर छोटे तालाब गायब हो चुके हैं और होशंगाबाद की नर्मदा से यानी 75कि.मी. दूर से पानी लाकर शहर की प्यास बुझा रहे हैं। इंदौर शहर में भी पानी की विकराल समस्या रही है और उसके लिए कभी नर्मदा तो कभी अन्य बांधों से पानी दूर से लाना पड़ता है।
सोलहवीं शताब्दी का एक वाकया है कि एक बार होलकर राजघराने का एक छोटा जहाज़ सिरपुर तालाब में सैर करते वक्त डूब गया तो उसे खोजने के लिए बाहर से कई गोताखोर बुलवाए गए थे। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वहाँ अथाह पानी था। आज की स्थिति यह है कि वह एक इतिहास बनकर रह गया है।
जबआज भी खरे हैं तालाबकिताब निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी तब अलग-अलग स्वस्फूर्त लोगों के समूहों ने विभिन्न राज्यों से सूचनाएँ भेजी थीं। इन जानकारियों को संकलित कर 120पेज की यह किताब निकाली गई। इसके लिए भेजी गई सामग्री बहुत अधिक मात्रा में मिली थी। अनुपम जी किताब इतनी मोटी नहीं करना चाहते थे जिसे पढऩा ही मुश्किल हो जाए। वे इसमें कोई तकनीकी शब्दावली या तकनीकी विश्लेषण का इस्तेमाल नहीं करना चाहते थे। इसके पीछे का एक किस्सा मुझे याद आता है कि किताब का हर हिस्सा तैयार कर वे उसे अपनी अम्मा को पढ़वाते थे। उनका मानना था कि यह किताब हर वह आम आदमी पढ़ सके जो पढऩा भर जानता हो। उन्होंने कई ऐसे शब्द बदले जो अम्मा को कठिन लगे थे। किताब के शब्दों का साइज़ और लाइनों के बीच की दूरी भी अधिक रखी गई ताकि अम्मा जैसा हर पाठक इसे पढ़ सके। दिलीप चिंचालकर जी ने फिर इसे इसी तरह की किताब का स्वरूप दिया।
किताब को छापने से पहले ही इसकी लागत के मुताबिक प्रतियाँ तय कर ली गई थीं ताकि लागत निकाली जा सके। लेकिन इसके बाद तो कमाल ही हो गया हर बार इसकी कई नई प्रतियाँ छपती गईं। कई महीनों तक किताब ने गाँधी पीस फाउंडेशन के लोगों का वेतन भी निकाला। लोगों ने अपने प्रयासों से मराठी, बंगाली और पंजाबी में अनुवाद कर छापे भी। मराठी में ही पाँच तरह के अनुवाद चलते हैं। बंगाली में भी दो-तीन अनुवाद हैं।
फिर अंतत: अलग-अलग भाषाओं में किताब की माँग और प्रचार को देखते हुए एनबीटी ने 18भारतीय भाषाओं में छापा। अंतत: अनुपम जी ने इस किताब को समाज को लोकार्पित कर दिया। इसका न तो कोई कॉपीराइट है और न ही किसी का मालिकाना हक। उनकी यह जन किताब है, जन अर्पित है।
शायद यही ऐसी किताब होगी जिसे पढ़कर लोग इतने प्रेरित हुए कि देश के अलग-अलग हिस्सों में इस किताब को पढ़कर तालाबों पर काम भी किया।
गुजरात के कच्छ इलाके के एक अखबार के मालिक इस किताब के हिस्सों को लगातार क्रमश: अपने अखबार में छापते भी रहे और साथ ही इतने प्रेरित हुए कि वहाँ के लोगों के साथ मिलकर हज़ारों छोटे तालाबों का जीर्णोद्धार किया। लगभग इसी तरह बिहार, मराठवाड़ा, पश्चिम बंगाल सहित कई हिस्सों में लोगों ने इस किताब से प्रेरित होकर तालाबों पर काम किया।
हाल के दिनों में कैंसर से जूझते हुए 19 दिसम्बर 2016 को उन्होंने अंतिम साँस ली। (स्रोत फीचर्स)

यात्रा वृतांत

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सन् 1977में अनुपम मिश्र का लिखा
एक यात्रा वृतांत

  क्या हम इस
 शिलालेख को पढऩे
 के लिए तैयार हैं?

उत्तराखंड में हिमालय और उसकी नदियों के तांडव काआकार प्रकार अब धीरे-धीरे दिखने लगा है।लेकिन मौसमी बाढ़ इस इलाके में नई नहीं है।

सन् 1977की जुलाई का तीसरा हफ्ता। उत्तरप्रदेश के चमोली जिले की बिरही घाटी में आज एक अजीब-सी खामोशी है। यों तीन दिन से लगातार पानी बरस रहा है और इस कारण अलकनंदा की सहायक नदी बिरही का जल स्तर बढ़ता जा रहा है। उफनती पहाड़ी नदी की तेज आवाज पूरी घाटी में टकरा कर गूँभी रही है। फिर भी चमोली-बदरीनाथ मोटर सड़क से बाईं तरफ लगभग 22किलोमीटर दूर 6,500फुट की ऊंचाई पर बनी इस घाटी के 13गाँवों के लोगों को आज सब कुछ शांतसा लग रहा है।
आज से सिर्फ सात बरस पहले ये लोग प्रलय की गर्जना सुन चुके थे, देख चुके थे। इनके घर, खेत व ढोर उस प्रलय में बह चुके थे। उस प्रलय की तुलना में आज बिरही नदी का शोर इन्हें डरा नहीं रहा था। कोई एक मील चौड़ी और पाँच मील लंबी इस घाटी में चारों तरफ बड़ी-बड़ी शिलाएँ, पत्थर, रेत और मलबा भरा हुआ है, इस सब के बीच से किसी तरह रास्ता बना कर बह रही बिरही नदी सचमुच बड़ी गहरी लगती है।
लेकिन सन् 1970की जुलाई का तीसरा हफ्ता ऐसा नहीं था। तब यहाँ यह घाटी नहीं थी, इसी जगह पर पाँच मील लंबा, एक मील चौड़ा और कोई तीन सौ फुट गहरा एक विशाल ताल था: गौना ताल। ताल के एक कोने पर गौना था और दूसरे कोने पर दुरमी गाँव, इसलिए कुछ लोग इसे दुरमी ताल भी कहते थे। पर बाहर से आने वाले पर्यटकों के लिए यह बिरही ताल था, क्योंकि चमोली-बदरीनाथ मोटर मार्ग पर बने बिरही गाँव से ही इस ताल तक आने का पैदल रास्ता शुरू होता था।
ताल के ऊपरी हिस्से में त्रिशूल पर्वत की शाखा कुँवारी पर्वत से निकलने वाली बिरही समेत अन्य छोटी-बड़ी चार नदियों के पानी से ताल में पानी भरता रहता था। ताल के मुँह से निकलने वाले अतिरिक्त पानी की धारा फिर से बिरही नदी कहलाती थी। जो लगभग 18किलोमीटर के बाद अलकनंदा में मिल जाती थी। सन् 1970की जुलाई के तीसरे हफ्ते ने इस सारे दृश्य को एक ही क्षण में बदल कर रख दिया।
दुरमी गाँव के प्रधानजी उस दिन को याद करते हैं – तीन दिन से लगातार पानी बरस रहा था। पानी तो इन दिनों हमेशा गिरता है, पर उस दिन की हवा कुछ और थी। ताल के पिछले हिस्से से बड़े-बड़े पेड़ बह-बह कर ताल के चारों ओर चक्कर काटने लगे थे। ताल में उठ रही लहरें उन्हें तिनकों की तरह यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ फेंक रही थीं। देखते-देखते सारा ताल पेड़ों से ढंक गया। अँधेरा हो चुका था, हम लोग अपने-अपने घरों में बंद हो गए। घबरा रहे थे कि आज कुछ अनहोनी हो कर रहेगीखबर भी करते तो किसे करते? जिला प्रशासन उनसे 22किलोमीटर दूर था। घने अँधेरे ने इन गाँव वाले को उस अनहोनी का चश्मदीद गवाह न बनने दिया। पर इनके कान तो सब सुन रहे थे।
प्रधानजी बताते हैं- रात भर भयानक आवाजें आती रहीं फिर एक जोरदार गडग़ड़ाहट हुई और फिर सब कुछ ठंडापड़ गया।ताल के किनारेकी ऊँची चोटियों पर बसने वाले इन लोगों ने सुबह के उजाले में पाया कि गौना ताल फूट चुका है, चारों तरफ बड़ी-बड़ी चट्टानों और हजारों पेड़ों का मलबा, और रेत-ही-रेत पड़ी है।
ताल की पिछली तरफ से आने वाली नदियों के ऊपरी हिस्सों में जगह-जगह भूस्खलन हुआ था, उसके साथ सैकड़ों पेड़ उखड़-उखड़ कर नीचे चले आए थे। इस सारे मलबे को, टूट कर आने वाली बड़ी-बड़ी चट्टानों को गौना ताल अपनी 300फुट की गहराई में समाता गया, सतह ऊँची होती गई, और फिर लगातार ऊपर उठ रहे पानी ने ताल के मुँह पर रखी एक विशाल चट्टान को उखाड़ फेंका और देखते ही देखते सारा ताल खाली हो गया। घटना स्थल से केवल तीन सौ किलोमीटर नीचे हरिद्वार तक इसका असर पड़ा था।
गौना ताल ने एक बहुत बड़े प्रलय को अपनी गहराई में समो कर उसका छोटा सा अंश ही बाहर फेंका था। उसने सन् 1970में अपने आप को मिटा कर उत्तराखंड, तराई और दूर मैदान तक एक बड़े हिस्से को बचा लिया था। वह सारा मलबा उसके विशाल विस्तार और गहराई में न समाया होता तो सन् 70की बाढ़ की तबाही के आकड़े कुछ और ही होते। लगता है गौना ताल का जन्म बीसवीं सदी के सभ्यों की मूर्खताओं से आने वाले विनाश को थाम लेने के लिए ही हुआ था।
ठीक आज की तरह ही सन् 1893तक यहाँ गौना ताल नहीं था। उन दिनों भी यहाँ एक विशाल घाटी ही थी । सन् 1893में घाटी के संकरे मुँह पर ऊपर से एक विशाल चट्टान गिर कर अड़ गई थी। घाटी की पिछली तरफ से आने वाली बिरही और उसकी सहायक नदियों का पानी मुँह पर अड़ी चट्टान के कारण धीरे-धीरे गहरी घाटी में फैलने लगा। अंग्रेजों का जमाना था, प्रशासनिक क्षमता में वे सन् 1970के प्रशासन से ज्यादा कुशल साबित हुए। उस समय जन्म से रहे गौना ताल के ऊपर बसे एक गाँव में तारघर स्थापित किया और उसके माध्यम से ताल के जल स्तर की प्रगति पर नजर रखे रहे।
एक साल तक वे नदियाँ ताल में भरती रहीं। जलस्तर लगभग 100गज ऊँचा उठ गया। तारघर ने खतरे का तार नीचे भेज दिया। बिरही और अलकनंदा के किनारे नीचे दूर तक खतरे की घंटी बज गई। ताल सन्1894में फूट पड़ा, पर सन् 1970की तरह एकाएक नहीं। किनारे के गाँव खाली करवा लिए गए थे, प्रलय को झेलने की तैयारी थी। फूटने के बाद 400गज का जल स्तर 300फुट मात्र रह गया था। ताल सिर्फ फूटा था, पर मिटा नहीं था। गोरे साहबों का संपर्क न सिर्फ ताल से बल्कि उसके आसपास की चोटियों पर बसे गाँवों से भी बना रहा। उन दिनों एक अंग्रेज अधिकारी महीने में एक बार इस दुर्गम इलाके में आकर स्थानीय समस्याओं और झगड़ों को निपटाने के लिए एक कोर्ट लगाता था। विशाल ताल साहसी पर्यटकों को भी न्यौता देता था। ताल में नावें चलती थीं।
आजादी के बाद भी नावें चलती रहीं। सन् 1960के बाद ताल से 22किलोमीटर की दूरी में गुजरने वाली हरिद्वार बदरीनाथ मोटर-सड़क बन जाने से पर्यटकों की संख्या भी बढ़ गई। ताल में नाव की जगह मोटर बोट ने ले ली। ताल में पानी भरने वाली नदियों के जलागम क्षेत्र कुँआरी पर्वत के जंगल भी सन् 1960से 1970के बीच में कटते रहे। ताल से प्रशासन का संपर्क सिर्फ पर्यटन के विकास के नाम पर कायम रहा। वह ताल के ईर्द-गिर्द बसे 13गाँवों को धीर-धीरे भूलता गया।
मुख्य मोटर सड़क से ताल तक पहुँचने के लिए (गाँवों तक नहीं) 22किलोमीटर लम्बी एक सड़क भी बनाई जाने लगी। सड़क अभी 12किलोमीटर ही बन पाई थी कि सन् 1970की जुलाई का वह तीसरा हफ्ता आ गया। ताल फूट जाने के बाद सड़क पूरी करने की जरूरत ही नहीं समझी गई। सन् 1894में गौना ताल के फटने की चेतावनी तार से भेजी थी, पर सन् 1970में ताल फटने की ही खबर लग गई।
बहरहाल, अब यहाँ गौनाताल नहीं है। पर उसमें पड़ी बड़ी-बड़ी चट्टानों पर पर्यावरण का एक स्थायी लेकिन अदृश्य शिलालेख खुदा हुआ है। इस क्षेत्र में चारों तरफ बिखरी ये चट्टानें हमें बताना चाहती हैं कि हिमालय में, खासकर नदियों के पनढ़ालों में खड़े जंगलों का हमारे पर्यावरण पर क्या असर पड़ता है। ऐसे हिमालय में, देवभूमि में हम कितना धर्म करें, कितना अधर्म होने दें, कितना विकास करें, कितनी बिजली बनाएँ- यह सब इन बड़ी-बड़ी चट्टानों, शिलाओं पर लिखा हुआ है, खुदा हुआ है।
क्या हम इस शिलालेख को पढऩे के लिए तैयार हैं ?
( गाँधी मार्ग से साभार )

कल, आज और कल

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पुरखों से संवाद
- अनुपम मिश्र
मृतकोंसे संवाद और पुरखों से संवाद, ये दो अलग बातें हैं।
इस अंतर में जीवन के एक रस का भास भी होता है।
जो कल तक हमारे बीच थे, वे आज नहीं हैं। आज हम हैं और यह हमारा अनुभव है कि जो कल तक हमारे बीच थे, वे आज नहीं हैं। यह आज, कल और परसों भी आज के रूप में था और उससे भी जुड़े थे उसके कल और उसके परसों। बरसों से काल के ये रूप पीढिय़ों के मन में बसे हैं, रचे हैं। कल, आज और कल- ये तीन छोटे-छोटे शब्द कुछ लाख बरस का, लाख नहीं तो कुछ हजार बरसों का इतिहास, वर्तमान और भविष्य अपने में बड़ी सरलता से, तरलता से समेटे हुए हैं।
बहुत ही सरलता से जुड़े हैं ये कल, आज और कल। हमें इसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता। बस हमें तो यहाँ होना पड़ता है। यह होना (या कहें न होना भी) हमारे बस में नहीं है। फिर इन तीनों कालों में एक सरल तरलता भी है। इन तीनों के बीच लोग, घटनाएँ, विचार, आचार, व्यवहार अदलते-बदलते रहते हैं।
इस अदला-बदली में जीवन और मृत्यु भी आते और जाते रहते हैं। सचमुच हम चाहें या न चाहें, जो कल तक हमारे बीच थे, वे आज नहीं हैं। किसी के होने का भाव न होने में बदल जाता है, एक क्षण में। फिर उस भाव के अभाव से हम सब दु:खीहो जाते हैं। अपनों के इस अभाव से, हमारा यह भाव भी अभाव में बदल जाता है। दु:ख का अनुभव करने वाला हमारा यह मन, यह शरीर भी न जाने कब उसी अभाव में जो मिलता है, जिसके भाव को याद कर हम दुखी हो जाता है।
तब स्मरण और विस्मरण शायद एक हो जाते हैं। बाकी क्या बचता है, बचा रह जाता है, यह मुझे तो मालूम नहीं। कभी इसे जानने-समझने का मौका ही नहीं मिला। जो कुछ भी सामने है, सामने आता जाता है, उसी को ज्यादातर मन से, एकाध बार शायद बेमन से भी, पर करता चला गया। इसलिए इसके बाद क्या होता है, जीवन का भाव जब विलीन होता है तो जो अभाव है, वह क्या है, मृत्यु का है?
जो उस खाने में जा बैठे हैं, जीवन के बाद के खाने में, मृत्यु के खाने में, उन मृतकों से मेरा कभी कोई संवाद नहीं हो पाया है। आज मैं कोई इकसठ बरस का हूँ। जो संवाद अभी तक नहीं हो पाया, वह बचे न जाने कितने छिन-दिन हैं, उसमें क्या हो पाएगा, यह भी ठीक से पता नहीं है।
मृतक और मृत्यु शायद दोनों ही संज्ञा हैं, पर बिलकुल अलग-अलग तरह की। मृतक को, मृतकों को, अपने आसपास से बिछड़ चुके लोगों को, अपनों को और तुपनों को भी मैं जानता हूँ। पहचानता भी हूँ। पर वे जिस मृत्यु के कारण मृतक बन गए हैं, उस मृत्यु को तो मैं जान ही नहीं पाया। सच कहूँ तो उसे जानने की जरूरत ही नहीं लगी। इच्छा भी नहीं हुई। इसलिए कोई ढंग की कोशिश भी नहीं की।
नचिकेता की कहानी तो बचपन में ही पढ़ी थी। जिसे जवानी कहते हैं, उसी उमर में फिर से पढ़ी थी यह कहानी। तब पढ़ते समय यह लगा था कि चलो मृत्यु से बिना मिले उस जवानी में ही अपने को फोकट में वह ज्ञान मिल जाने वाला है, जिसे जान लेने की इच्छा में न जाने कितने बड़े लोगों ने, तपस्वियों, संतों ने न जाने कैसी-कैसी यातनाएँ अपने शरीर को दी थीं।
लेकिन नचिकेता ने कोई तप नहीं किया था। अपने पिता के क्रोध के कारण वह यम के दरवाजे पर भूखा-प्यासा दो-तीन दिन जरूर बैठा रहा था। क्या पता उसने यम के दरवाजे पर आने से पहले अपने पिता के घर में हुए उत्सव में एक बालक के नाते थोड़ा ज्यादा ही पूरी-हलवा खा लिया हो!
यम जितने भयानक बताए जाते हैं, उस समय तो वैसे थे नहीं। हमारा मृत्यु का यह देवता तो तीन-दिन के भूखे-प्यासे बैठे बच्चे से घबरा गया! आज तो मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री आदि तीस-चालीस दिनों के झूठे तो छोडि़ए, सच्चे अनशनकारियों से भी नहीं घबराते।
यम उसे पूरी दुनिया की दौलत, सारी सुख-सुविधाएँ देने को तैयार थे, ऐसी भी चीजें, जिनकी शायद यम को जरूरत हो पर उस बालक को तो थी ही नहीं। कीमती हीरे, मोती, अप्सराएँ आदि लेकर वह बालक करता क्या। यह भी बड़ा अचरज है कि नचिकेता वायदों के इन तमाम पहाड़ों को ठुकराता जाता है। वह डिगता नहीं, बस एक ही रट लगाता रहता है कि मुझे तो वह ज्ञान दो जिसमें मैं मृत्यु का रहस्य जान जाऊँ।
सच पूछें तो मैं उस किस्से को इसी आशा में पढ़ता गया कि लो अब मिलने वाला है वह ब्रह्मज्ञान। यह उपनिषद् कुछ हजार बरस पुराना माना गया है। श्रद्धा भाव है तो फिर इसे अपौरुषेयभी माना गया है। तब तो इसके लिखने का समय और भी पीछे खिसक जाएगा। तब से यह उपनिषद् बराबर पढ़ा और पढ़ाया भी जाता रहा है।
कितनों को इससे मृत्यु का ज्ञान मिल गया होगा, मुझे नहीं मालूम। पर यह कठोपनिषद् मेरे लिए तो बहुत ही कठोर निकला। मैं इससे मृत्यु को जान नहीं पाया। मृतकों को तब भी जाना था और आज तो उस सूची में, उस ज्ञान में वृद्धि भी होती जा रही है। फिर इतना तो पता है किसी एक छिन या दिन इस सुंदर सूची में मुझे भी शामिल हो जाना है। उस सुंदर सूची को पढऩे के लिए तब मैं नहीं रहूँगा। फिर वह सूची मेरे बाद भी बढ़ती जाएगी। यह सूची मेरे जन्म से पहले से न जाने कब से लिखी, पढ़ी और फिर अपढ़ी बन जाती है।
इस सुंदर सूची को लिखने वालों में और सूची में लिख गए लोगों के बीच क्या कुछ बातचीत, संवाद हो पाता है? होता है तो कैसा? आज के टी.वी. चैनलों जैसा? ‘जब आपको मृत्यु मिली तो आपको कैसा लगा?’ ऐसा तो शायद नहीं!
जीवन से परे ही तो होगी मृत्यु। मुझे ब्रह्म का कोई ज्ञान नहीं है। फिर भी यह तो कह ही सकता हूँ कि जीवन में वह मृत्यु है। पर मृत्यु में यह जीवन नहीं है। मृत्यु में यदि जीवन होगा भी तो जो जीवन हम जानते हैं, जिसे हम मृत्यु तक जीते हैं, वैसा जीवन तो वह होगा नहीं। यदि वैसा ही जीवन है मृत्यु के पार तो फिर इन दो जीवनों के बीच मृत्यु भला काहे को आती। ऐसे में जीवन और मृत्यु का, आज के जीवितों का, कल के मृतकों से संवाद कैसा होता होगा, कैसे होता होगा? मैं कुछ कह नहीं सकता।
दुनिया के बहुत से समाजों में नीचे गिने गए कई तरह के जादू-टोनों से लेकर बहुत ऊपर बताए गए आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म की गूढ़ चर्चाएँ इस संवाद के तार जोडऩे की बात करती हैं। इसके अलावा साधारण गृहस्थों के भी खूब सारे अनुभव हैं। खासकर संकट के मौकों पर लोग बताते हैं कि दादा ने, काकी ने, नानी ने सपने में आकर ऐसा बताया, वगैरह। पर ये अनुभव प्राय: एकतरफा होते हैं- उनने बतायाबस।
उसमें हमने पूछा या कहाप्राय: नहीं होता। फिर भी यदि यह संवाद है तो चलता चले। मृतकों से मिली शिक्षा से जीवितों का कुछ लाभ हो जाए तो अच्छा ही होगा। पर यदि यही संवाद है तो फिर यह एक तरह से स्वार्थ को पूरा करने का ही तरीका निकला। ऐसा संवाद तो जीवित का जीवित से भी हो सकता है। पर आज एक बड़ी दिक्कत है।
जीवित लोगों का जीवितों से ही संवाद टूट चला है। शहरों में ऐसा दृष्य कभी भी देखने को मिल जाएगा! रेलवे स्टेशनों पर, बस अड्डों पर, हवाई अड्डों पर तो खासकर, चार-पाँच लोग कान में मोबाइल फोन लगाए कहीं दूर, दो-पाँच सौ किलोमीटर दूर किसी से बातचीत कर रहे हैं। पर उनका आपस में कोई संवाद नहीं हो पाता। ये चार-पाँच जिन दूर के चार-पाँच से बात करते हैं, वहाँ भी इनमें से हरेक संवादी के आसपास ऐसे ही चार-पाँच संवादी होंगे, जिनका आपस में कोई संवाद नहीं हो पाता।
इस तरह आज के समाज में अपने आसपास को न जानना, अपने पड़ोसी को न जानना ज्ञान की नई कसौटी है। यह घरों से लेकर देशों तक पर लागू हो चली है। हम जीना भूल गए हैं, इसलिए हमें अब जीवन जीने की कला सिखाने वालों की शरण में आँख मूँद कर जाना पड़ रहा है।
लेकिन जहां इस नए संवाद के तार या कहें बेतार नहीं बिछ पाए हैं, उन इलाकों में आज भी अपने मृतकों से हर क्षण संवाद बना हुआ है। आज की सरकार और आज के बाजार से अछूता एक बड़ा भाग आज भी ऐसा है, जहाँ आज का जीवित और जीवंत समाज, उसका हर सदस्य अपनी पीढ़ी के लिए, आगे आने वाली पीढ़ी के लिए वही सब करता चला जा रहा है, जो उसके पहले की पीढिय़ों ने किया था।
जैसलमेर जैसे मरुप्रदेश का उदाहरण देखें। वहाँ आज नए समाज के सबसे श्रेष्ठ माने गए लोगों ने पोखरण में अणु बम का विस्फोट किया है। पर उसके पास के गाँव खेतोलाई को जरा देखें। वहां का सारा भूजल खारा है, पीने योग्य नहीं है। वहाँ लोग आज भी अपने खेत में छोटी-सी तलाई बनाते हैं। जहाँ सैकड़ों वर्षों से देश की सबसे कम वर्षा होती है, वहाँ लोग बम नहीं फोड़ते, वर्षा का मीठा जल जोड़ते हैं। तालाब बनाते हैं। क्यों, कोई पूछे उनसे, तो उनका जवाब होगा, हमारे पुरखों ने बताया था कि तालाब बनाते जाना। जो बने हैं, उनकी रखवाली करते जाना।
पुरखों से उनका शायद संवाद नहीं होता। पर पुरखों ने बताया है, इसलिए वे तालाब बना रहे हैं। समाज के लिए तरह-तरह के छोटे-बड़े काम कर रहे हैं। उनके मन में, उनके तन में, उनके खून में, उनकी कुदाल-फावड़े में पुरखे बसे हैं। वे उन्हें गीतों में, मुहावरों में, आचार में, व्यवहार में बताते चलते हैं। ये अपने पुरखों की बताई बातों को सुनते, और उससे भी ज्यादा करते चलते हैं।
यहाँ मृतकों से नहीं, पुरखों से संवाद होता है। मृतक हमें मृत्यु तक ले जाते हैं। फिर वहाँ संवाद नहीं रह जाता। पुरखे हमें जीवन में वापस लाते हैं। हमारे जीवन को पहले से बेहतर बनाते हैं।  (mansampark.in)

अनपूछी ग्यारस

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नींव से शिखर तक
- अनुपम मिश्र

आजअनपूछी ग्यारस है। देव उठ गए हैं। अब अच्छे-अच्छे काम करने के लिए किसी से कुछ पूछने की, मुहुर्त दिखवाने की जरूरत नहीं है। फिर भी सब लोग मिल-जुल रहे हैं, सब से पूछ रहे हैं। एक नया तालाब जो बनने वाला है।...
पाठकों को लगेगा कि अब उन्हें एक तालाब के बनने का- पाल बनने से लेकर पानी भरने तक का पूरा विवरण मिलने वाला है। हम खुद ऐसा विवरण खोजते रहे पर हमें वह कहीं मिल नहीं पाया। जहाँ सदियों से तालाब बनते रहे हैं, हजारों की संख्या में बने हैं- वहाँ तालाब बनाने का पूरा विवरण न होना शुरू में अटपटा लग सकता है, पर यही सबसे सहज स्थिति है। तालाब कैसे बनाएँके बदले चारों तरफ तालाब ऐसे बनाएँका चलन चलता था। फिर भी छोटे-छोटे टुकड़े जोड़ें तो तालाब बनाने का एक सुंदर न सही, काम चलाऊ चित्र तो सामने आ ही सकता है।
...अनपूछी ग्यारस है। अब क्या पूछना है। सारी बातचीत तो पहले हो ही चुकी है। तालाब की जगह भी तय हो चुकी है। तय करने वालों की आँखों में न जाने कितनी बरसातें उतर चुकी हैं। इसलिए वहाँ ऐसे सवाल नहीं उठते कि पानी कहाँ से आता है, कितना पानी आता है, उसका कितना भाग कहाँ पर रोका जा सकता है। ये सवाल नहीं हैं, बातें हैं सीधी-सादी, उनकी हथेलियों पर रखी। इन्हीं में से कुछ आँखों ने इससे पहले भी कई तालाब खोदे हैं। और इन्ही में से कुछ आँखें ऐसी हैं जो पीढ़ियोंसे यही काम करती आ रही हैं।
यों तो दसों दिशाएँ खुली हैं, तालाब बनाने के लिए, फिर भी जगह का चुनाव करते समय कई बातों का ध्यान रखा गया है। गोचर की तरफ है यह जगह। ढाल है, निचला क्षेत्र है। जहाँ से पानी आएगा, वहाँ की जमीन मुरुम वाली है। उस तरफ शौच आदि के लिए भी लोग नहीं जाते हैं। मरे जानवरों की खाल वगैरह निकालने की जगह यानी हड़वाड़ा भी इस तरफ नहीं है।
अभ्यास से अभ्यास बढ़ता है। अभ्यस्त आँखें बातचीत में सुनी-चुनी गई जगह को एक बार देख भी लेती हैं। यहाँ पहुँच कर आगौर, जहाँ से पानी आएगा, उसकी साफ-सफाई, सुरक्षा को पक्का कर लिया जाता है। आगर, जहाँ पानी आएगा, उसका स्वभाव परख लिया जाता है। पाल कितनी ऊँची होगी, कितनी चौड़ी होगी, कहाँ से कहाँ तक बँधेगी तथा तालाब में पानी पूरा भरने पर उसे बचाने के लिए कहाँ से अपरा बनेगी, इसका भी अंदाज ले लिया गया है।
सब लोग इकट्ठे हो गए हैं। अब देर काहे की। चमचमाती थाली सजी है। सूरज की किरणें उसे और चमका रही हैं। जल से पूर्ण लोटा है। रोली, मौली, हल्दी, अक्षत के साथ रखा है लाल मिट्टी का एक पवित्र डला। भूमि और जल की स्तुति के श्लोक धीरे-धीरे लहरों में बदल रहे हैं।
वरुण देवता का स्मरण है। तालाब कहीं भी खुद रहा हो, देश के एक कोने से दूसरे कोने तक की नदियों को पुकारा जा रहा है। श्लोकों की लहरें थमती हैं, मिट्टी में फावड़ों के टकराने की खडख़ड़ाहट से। पाँच लोग पाँच परात मिट्टी खोदते हैं, दस हाथ परातों को उठा कर पाल पर डालते हैं। यहीं बँधेगी पाल। गुड़ बँट जाता है। महूरत साध लिया जाता है। आँखों में बसा तालाब का पूरा चित्र फावड़े से निशान लगाकर जमीन पर उतार लिया गया है। कहाँ से मिट्टी निकलेगी और कहाँ-कहाँ डाली जाएगी, पाल से कितनी दूरी पर खुदाई होगी ताकि पाल के ठीक नीचे इतनी गहरी न हो जाए कि पाल पानी के दबाव से कमजोर होने लगे।...
अनपूछी ग्यारस को इतना तो हो ही जाता था। लेकिन किसी कारण उस दिन काम शुरू नहीं हो पाए तो मुहुर्त पूछा जाता था, नहीं तो और कई बातों के साथ कुआँ, बावड़ी और तालाब बनाने का मुहुर्त आज भी समझाते हैं- हस्त, अनुराधा, तीनों उत्तरा, शतभिषा, मघा, रोहिणी, पुष्य, मृगशिरा, पूष नक्षत्रों में चंद्रावर, बुधवार, बृहस्पतिवार तथा शुक्रवार को कार्य प्रारंभ करें। परन्तु तिथि 4, 9 और 14 का त्याग करें। शुभ लगनों में गुरुऔर बुध बली हो, पाप ग्रह निर्बल हो, शुक्र का चन्द्रमा जलचर राशिगत लगन व चतुर्थ हो, गुरु शुक्र अस्त न हो, भद्रा न हो तो खुदवाना शुभ है।
आज हममें से ज्यादा लोगों को इस विवरण में से दिनों के कुछ नाम भर समझ में आ पाएँगे, पर आज भी समाज के एक बड़े भाग के मन की घड़ी इस घड़ी से मिलती है। कुछ पहले तक तो पूरा समाज इसी घड़ी से चलता था।
...घड़ी साध ली गई है। लोग वापस लौट रहे हैं। अब एक या दो दिन बाद जब भी सबको सुविधा होगी, फिर से काम शुरू होगा।
अभ्यस्त निगाहें इस बीच पलक नहीं झपकतीं। कितना बड़ा है तालाब, काम कितना है, कितने लोग लगेंगे, कितने औजार, कितने मन मिट्टी खुदेगी, पाल पर कैसे डलेगी मिट्टी? तसलों से, हँगी से, लग्गे से ढोई जाएगी या गधों की जरूरत पड़ेगी? प्रश्न लहरों की तरह उठते हैं। कितना काम कच्चा है, मिट्टी का है, कितना है पक्का, चूने का, पत्थर का। मिट्टी का कच्चा काम बिल्कुल पक्का करना है और पत्थर, चूने का पक्का काम कच्चा न रह जाए। प्रश्नों की लहरें उठती हैं और अभ्यस्त मन की गहराई में शांत होती जाती हैं। सैकड़ों मन मिट्टी का बेहद वजनी काम है। बहते पानी को रुकने के लिए मनाना है। पानी से, हाँआग से खेलना है।
डुगडुगी बजती है। गाँव तालाब की जगह पर जमा होता है। तालाब पर काम अमानी में चलेगा। अमानी यानी सब लोग एक साथ काम पर आएँगे, एक साथ वापस घर लौटेंगे।
सैकड़ों हाथ मिट्टी काटते हैं। सैकड़ों हाथ पाल पर मिट्टी डालते हैं। धीरे-धीरे पहला आसार पूरा होता है, एक स्तर उभरकर दिखता है। फिर उसकी दबाई शुरू होती है। दबाने का काम नंदी कर रहे हैं। चार नुकीले खुरों पर बैल का पूरा वजन पड़ता है। पहला आसार पूरा हुआ तो उस पर मिट्टी की दूसरी तह डलनी शुरू होती है। हरेक आसार पर पानी सींचते हैं, बैल चलाते हैं। सैकड़ों हाथ तत्परता से चलते रहते हैं, आसार बहुत धीरज के साथ धीरे-धीरे से उठते जाते हैं।
अब तक जो कुदाल की एक अस्पष्ट रेखा थी, अब वह मिट्टी की पट्टी बन गई है। कहीं यह बिल्कुल सीधी है तो कहीं यह बल खा रही है, आगौर से आने वाला पानी जहाँ पाल पर जोरदार बल आजमा सकता है, वहीं पर पाल में भी बल दिया गया है। इसे कोहनीभी कहा जाता है। पाल यहाँ ठीक हमारी कोहनी की तरह मुड़ जाती है।
जगह गाँव के पास ही है तो भोजन करने लोग घर जाते हैं। जगह दूर हुई तो भोजन भी वहीं पर। पर पूरे दिन गुड़ मिला मीठा पानी सबको वहीं मिलता है। पानी का काम है, पुण्य का काम है, इसमें अमृत जैसा मीठा पानी पिलाना है, तभी अमृत जैसा सरोवर बनेगा।
इस अमृतसर की रक्षा करेगी पाल। वह तालाब की पालक है। पाल नीचे कितनी चौड़ी होगी, कितनी ऊपर उठेगी और ऊपर की चौड़ाई कितनी होगी- ऐसे प्रश्न गणित या विज्ञान का बोझ नहीं बढ़ाते। अभ्यस्त आँखों के सहज गणित को कोई नापना ही चाहे तो नींव की चौड़ाई से ऊंचाई होगी आधी और पूरी बन जाने पर ऊपर की चौड़ाई कुल ऊँचाई की आधी होगी।
मिट्टी का कच्चा काम पूरा हो रहा है। अब पक्के काम की बारी है। चुनकरों ने चूने को बुझा लिया है। गरट लग गई है। अब गारा तैयार हो रहा है। सिलावट पत्थर की टकाई में व्यस्त हो गए हैं। रक्षा करने वाली पाल की भी रक्षा करने के लिए नेष्टा बनाया जाएगा। नेष्टा यानी वह जगह जहाँ से तालाब का अतिरिक्त पानी पाल को नुकसान पहुँचाए बिना बह जाएगा। कभी यह शब्द नसृष्टया निस्तरणया निस्ताररहा होगा। तालाब बनाने वालों की जीभ से कटते-कटते यह घिस कर नेष्टाके रूप में इतना मजबूत हो गया कि पिछले कुछ सैकड़ों वर्षों से इसकी एक भी मात्रा टूट नहीं पाई है।
नेष्टा पाल की ऊँचाई से थोड़ा नीचा होगा, तभी तो पाल को तोडऩे से पहले ही पानी को बहा सकेगा। जमीन से इसकी ऊँचाई, पाल की ऊँचाई के अनुपात में तय होगी। अनुपात होगा कोई 10 और 7 हाथ का।
पाल और नेष्टा का काम पूरा हुआ और इस तरह बन गया तालाब का आगर। आगौर का सारा पानी आगर में सिमट कर आएगा। अभ्यस्त आँखें एक बार फिर आगौर और आगर को तौलकर देख लेती हैं। आगर की क्षमता आगौर से आने वाले पानी से कहीं अधिक तो नहीं, कम तो नहीं। उत्तर हाँ में नहीं आता।
आखिरी बार डुगडुगी पिट रही है। काम तो पूरा हो गया पर आज फिर सभी लोग इकट्ठे होंगे, तालाब की पाल पर। अनपूछी ग्यारस को जो संकल्प लिया था, वह आज पूरा हुआ है। बस आगौर में स्तंभ लगना और पाल पर घटोइया देवता की प्राण प्रतिष्ठा होना बाकी है। आगर के स्तंभ पर गणेश जी बिराजे हैं और नीचे हैं सर्पराज। घटोइया बाबा घाट पर बैठकर पूरे तालाब की रक्षा करेंगे।
आज सबका भोजन होगा। सुंदर मजबूत पाल से घिरा तालाब दूर से एक बड़ी थाली की तरह ही लग रहा है। जिन अनाम लोगों ने इसे बनाया है, आज वे प्रसाद बाँट कर इसे एक सुंदर - सा नाम भी देंगे। और यह नाम किसी कागज पर नहीं, लोगों के मन पर लिखा जाएगा।
लेकिन नाम के साथ काम खत्म नहीं हो जाता है। जैसे ही हथिया नक्षत्र उगेगा, पानी का पहला झला गिरेगा, सब लोग फिर तालाब पर जमा होंगे। अभ्यस्त आँखें आज ही तो कसौटी पर चढ़ेंगी। लोग कुदाल, फावड़े, बाँस और लाठी लेकर पाल पर घूम रहे हैं। खूब जुगत से एक-एक आसार उठी पाल भी पहले झरे का पानी पिए बिना मजबूत नहीं होगी। हर कहीं से पानी धंस सकता है। दरारें पड़ सकती हैं। चूहों के बिल बनने में भी कितनी देरी लगती है भला! पाल पर चलते हुए लोग बाँसों से, लाठियों से इन छेदों को दबा-दबाकर भर रहे हैं।
कल जिस तरह पाल धीरे-धीरे उठ रही थी, आज उसी तरह आगर में पानी उठ रहा है। आज वह पूरे आगौर से सिमट-सिमट कर आ रहा है -
सिमट-सिमट जल भरहि तलावा।
जिमी सदगुण सज्जन पहिं आवा॥
अनाम हाथों की मनुहार पानी ने स्वीकार कर ली।

(पुस्तक:  आज भी खरे हैं तालाब से)
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